प्रस्तुति-- अमित कुमार / रतन सेन भारती
भारत ही नहीं दुनिया भर में समझा जाता है कि तलाक की मांग पत्नी करे या
पति, दोनों ही स्थितियों में गुजारा भत्ते की हकदार पत्नी ही होती है.
लेकिन भारत में बदलती परिस्थितियों में कानून का रुख अब बदलता दिख रहा है.
यह सुन कर भले ही हैरानी हो कि पति से गुजारा भत्ते की मांग कर रही पत्नी
को उल्टा पति के वास्ते गुजारा भत्ता देने का अदालत से फरमान मिल जाए. मगर
अब यह हकीकत है कि भारतीय अदालतें समय के साथ समाज में आए बदलाव को देखते
हुए महिलाओं के हित में बने कानूनों पर अलग तरीके से फैसला कर रही हैं. हाल
ही में राजधानी दिल्ली सहित तमाम शहरों में निचली और उच्च अदालतों ने पति
को गुजारे भत्ते का हकदार ठहराते हुए बदलते वक्त का अहसास कराया है.
नए नजरिए से फैसला करते हुए अब अदालतें आत्मनिर्भर महिलाओं को गुजारा भत्ता देने से साफ इंकार करने लगी हैं. इतना ही नहीं कुछ मामलों में तो अदालतों ने उन महिलाओं की भत्ते की मांग को खारिज कर दिया जो पति से वसूली की मंशा रखते हुए तलाक से पहले अपनी नौकरी छोड़ देती हैं. अदालतें अब पत्नी की योग्यता और कार्यक्षमता का आकलन करने के बाद ही उन्हें गुजारा भत्ते का हकदार ठहरा रही है.
और तो और कानून को लकीर का फकीर होने जैसा तमगा देने वालों की धारणा तोड़ते हुए अदालतों ने कई मामलों में लीक से हटकर पति को ही पत्नी से गुजारा भत्ता पाने का हकदार ठहरा दिया है. आलम यह है कि महानगरों की तेजतर्रार महिलाएं पति से यथाशीघ्र छुटकारा पाने के लिए अदालती झंझटों से बचते हुए आपसी समझौता कर खुद ब खुद पति को आजीवन गुजारा भत्ता दे कर वक्त को पीछे छोड़ रही हैं.
बदलते वक्त की बानगी
पिछले कुछ सालों में इस बहस की शुरुआत दिल्ली की एक निचली अदालत के फैसले से तेज हो गई. गुजारा भत्ता मांगने अदालत पहुंची पत्नी की अर्जी को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अनुराधा शुक्ला भारद्वाज ने खारिज कर दिया. इसका आधार बना पत्नी की पति के बराबर ही कमाई होना. अदालत ने कहा कि लैंगिक समानता के इस दौर में पति को महज मर्द होने के कारण कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है. पति के बराबर ही कमाने वाली महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है.
दरअसल इस मामले में पत्नी ने पति से आवास सुविधा मुहैया कराने की मांग की थी. अदालत ने कहा कि पत्नी को इसके लिए यह साबित करना होगा कि वह अपनी आर्थिक अक्षमता के कारण अपने लिए आवास का इंतजाम करने में लाचार है. एक अन्य मामले में पति का पत्नी से काफी अधिक वेतन होने के बाद भी अदालत ने गुजारा भत्ता देने से इंकार कर कानून की नई व्याख्या कर दी. एडवोकेट ओसामा सुहेल बताते हैं कि इस मामले में पति ब्रिटिश एनआरआई था जबकि पत्नी दिल्ली में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में 60-70 हजार रुपये मासिक वेतन पर कार्यरत थी. अदालत ने कहा कि गुजारा भत्ते का मतलब पति की कमाई और संपत्ति में हिस्सा बंटाना नहीं है बल्कि पत्नी को अतीत, वर्तमान और भविष्य के मद्देनजर गरिमापूर्ण जीवनयापन के साधन मुहैया कराना है.
इससे एक कदम और आगे जाकर अदालत ने एक डेंटिस्ट की डिग्रीधारक महिला को पति से भरणपोषण दिलाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह सामान्य गुजरबसर के लिए पर्याप्त काबिल और सक्षम थी. वह पहले नौकरी कर चुकी थी और उसकी शैक्षिक योग्यता को देखते हुए आगे भी नौकरी मिलने में उसके लिए कोई दिक्कत नजर नहीं आ रही थी.
बना नया सिद्धांत
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस विक्रमजीत सेन ने तो साल 2004 में गुजारा भत्ते के निर्धारण के लिए एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया.पारिवारिक मामलों के वकील प्रभजोत जौहर बताते हैं कि जस्टिस सेन ने ऐसे मामलों से जुड़े कानून को लचकदार साबित करते हुए तलाक के मामलों में पति और पत्नी दोनों की आय को जोड़ते हुए इसका नाम फेमिली रिसोर्स केक दिया. इस केक के दो हिस्से कर पति और पत्नी को बराबर बराबर दे दिए. ऐसे में कम आय वाले पति को पत्नी से उल्टी रकम मिलना लाजिमी हो गया. दिल्ली की निचली अदालतें अब इस सिद्धांत का बखूबी पालन कर रही हैं.
दरअसल पत्नी के गुजारे भत्ते का मामला भले ही सिविल श्रेणी में आता हो लेकिन इसे कानून में इसे अपराध प्रक्रिया संहिता ‘‘सीआरपीसी‘‘ में धारा 125 के रुप में जगह दी गई है. ब्रिटिशकालीन इस उपबंध के पीछे भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना को प्रमुख आधार बनाया गया था. जौहर बताते हैं कि अब वक्त की बदलती बयार को महसूस करते हुए अदालतों ने कानून को अपने तरीके से दुरुस्त करने की यह पहल की है. यद्यपि धारा 125 पूरी तरह से महिला के पक्ष में दिखती है मगर अदालतों ने संविधान में प्रदत्त लैंगिक समानता के मूल अधिकार को वरीयता देते हुए कानून की नई व्याख्या की है.
पति भी गुजारेभत्ते का हकदार
भारत में कानून के व्यापक दायरे में पति को भी गुजारा भत्ता दिलाने वाले कानून मौजूद हैं. हालांकि इसका दायरा बेशक सीमित है मगर अहम भी है. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 24 ऐसे पति या पत्नी को गुजारा भत्ता मिलने का हकदार बनाती है जिनके पास आय का कोई जरिया नहीं है. ऐसे में अदालत को पति अथवा पत्नी के लिए आंशिक या स्थाई गुजाराभत्ता तय करने का अधिकार है. साथ ही मुकदमे का खर्च भी जरूरतमंद पक्षकार को दिलाने का अधिकार है. हालांकि स्पष्ट है कि यह विकल्प गैरहिंदुओं के पास मौजूद नहीं है.
वकील शिल्पा जैन इसे सामाजिक पहलू के लिहाज से उपयुक्त मानती हैं. उनका कहना है कि इसी समाज में ऐसी महिलाएं भी हैं जो कोर्ट के बाहर आपसी सहमति से पति को 60 लाख रुपये एकमुश्त गुजारा भत्ता देकर जिंदगी की राह में आगे बढ़ रही हैं जबकि दूसरी ओर गांवों और झुग्गियों में बसने वाले भारत की लाचार बेबश महिलाएं भी हैं जो पति के जुल्म से पीड़ित हैं. ऐसे में अदालतों के व्यावहारिक रवैये को देखते हुए अन्य विवाह और गुजारा भत्ता कानूनों के दुरुपयोग का खतरा समय के साथ कम हो रहा है.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: महेश झा
नए नजरिए से फैसला करते हुए अब अदालतें आत्मनिर्भर महिलाओं को गुजारा भत्ता देने से साफ इंकार करने लगी हैं. इतना ही नहीं कुछ मामलों में तो अदालतों ने उन महिलाओं की भत्ते की मांग को खारिज कर दिया जो पति से वसूली की मंशा रखते हुए तलाक से पहले अपनी नौकरी छोड़ देती हैं. अदालतें अब पत्नी की योग्यता और कार्यक्षमता का आकलन करने के बाद ही उन्हें गुजारा भत्ते का हकदार ठहरा रही है.
और तो और कानून को लकीर का फकीर होने जैसा तमगा देने वालों की धारणा तोड़ते हुए अदालतों ने कई मामलों में लीक से हटकर पति को ही पत्नी से गुजारा भत्ता पाने का हकदार ठहरा दिया है. आलम यह है कि महानगरों की तेजतर्रार महिलाएं पति से यथाशीघ्र छुटकारा पाने के लिए अदालती झंझटों से बचते हुए आपसी समझौता कर खुद ब खुद पति को आजीवन गुजारा भत्ता दे कर वक्त को पीछे छोड़ रही हैं.
बदलते वक्त की बानगी
पिछले कुछ सालों में इस बहस की शुरुआत दिल्ली की एक निचली अदालत के फैसले से तेज हो गई. गुजारा भत्ता मांगने अदालत पहुंची पत्नी की अर्जी को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अनुराधा शुक्ला भारद्वाज ने खारिज कर दिया. इसका आधार बना पत्नी की पति के बराबर ही कमाई होना. अदालत ने कहा कि लैंगिक समानता के इस दौर में पति को महज मर्द होने के कारण कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है. पति के बराबर ही कमाने वाली महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है.
दरअसल इस मामले में पत्नी ने पति से आवास सुविधा मुहैया कराने की मांग की थी. अदालत ने कहा कि पत्नी को इसके लिए यह साबित करना होगा कि वह अपनी आर्थिक अक्षमता के कारण अपने लिए आवास का इंतजाम करने में लाचार है. एक अन्य मामले में पति का पत्नी से काफी अधिक वेतन होने के बाद भी अदालत ने गुजारा भत्ता देने से इंकार कर कानून की नई व्याख्या कर दी. एडवोकेट ओसामा सुहेल बताते हैं कि इस मामले में पति ब्रिटिश एनआरआई था जबकि पत्नी दिल्ली में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में 60-70 हजार रुपये मासिक वेतन पर कार्यरत थी. अदालत ने कहा कि गुजारा भत्ते का मतलब पति की कमाई और संपत्ति में हिस्सा बंटाना नहीं है बल्कि पत्नी को अतीत, वर्तमान और भविष्य के मद्देनजर गरिमापूर्ण जीवनयापन के साधन मुहैया कराना है.
इससे एक कदम और आगे जाकर अदालत ने एक डेंटिस्ट की डिग्रीधारक महिला को पति से भरणपोषण दिलाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह सामान्य गुजरबसर के लिए पर्याप्त काबिल और सक्षम थी. वह पहले नौकरी कर चुकी थी और उसकी शैक्षिक योग्यता को देखते हुए आगे भी नौकरी मिलने में उसके लिए कोई दिक्कत नजर नहीं आ रही थी.
बना नया सिद्धांत
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस विक्रमजीत सेन ने तो साल 2004 में गुजारा भत्ते के निर्धारण के लिए एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया.पारिवारिक मामलों के वकील प्रभजोत जौहर बताते हैं कि जस्टिस सेन ने ऐसे मामलों से जुड़े कानून को लचकदार साबित करते हुए तलाक के मामलों में पति और पत्नी दोनों की आय को जोड़ते हुए इसका नाम फेमिली रिसोर्स केक दिया. इस केक के दो हिस्से कर पति और पत्नी को बराबर बराबर दे दिए. ऐसे में कम आय वाले पति को पत्नी से उल्टी रकम मिलना लाजिमी हो गया. दिल्ली की निचली अदालतें अब इस सिद्धांत का बखूबी पालन कर रही हैं.
दरअसल पत्नी के गुजारे भत्ते का मामला भले ही सिविल श्रेणी में आता हो लेकिन इसे कानून में इसे अपराध प्रक्रिया संहिता ‘‘सीआरपीसी‘‘ में धारा 125 के रुप में जगह दी गई है. ब्रिटिशकालीन इस उपबंध के पीछे भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना को प्रमुख आधार बनाया गया था. जौहर बताते हैं कि अब वक्त की बदलती बयार को महसूस करते हुए अदालतों ने कानून को अपने तरीके से दुरुस्त करने की यह पहल की है. यद्यपि धारा 125 पूरी तरह से महिला के पक्ष में दिखती है मगर अदालतों ने संविधान में प्रदत्त लैंगिक समानता के मूल अधिकार को वरीयता देते हुए कानून की नई व्याख्या की है.
पति भी गुजारेभत्ते का हकदार
भारत में कानून के व्यापक दायरे में पति को भी गुजारा भत्ता दिलाने वाले कानून मौजूद हैं. हालांकि इसका दायरा बेशक सीमित है मगर अहम भी है. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 24 ऐसे पति या पत्नी को गुजारा भत्ता मिलने का हकदार बनाती है जिनके पास आय का कोई जरिया नहीं है. ऐसे में अदालत को पति अथवा पत्नी के लिए आंशिक या स्थाई गुजाराभत्ता तय करने का अधिकार है. साथ ही मुकदमे का खर्च भी जरूरतमंद पक्षकार को दिलाने का अधिकार है. हालांकि स्पष्ट है कि यह विकल्प गैरहिंदुओं के पास मौजूद नहीं है.
वकील शिल्पा जैन इसे सामाजिक पहलू के लिहाज से उपयुक्त मानती हैं. उनका कहना है कि इसी समाज में ऐसी महिलाएं भी हैं जो कोर्ट के बाहर आपसी सहमति से पति को 60 लाख रुपये एकमुश्त गुजारा भत्ता देकर जिंदगी की राह में आगे बढ़ रही हैं जबकि दूसरी ओर गांवों और झुग्गियों में बसने वाले भारत की लाचार बेबश महिलाएं भी हैं जो पति के जुल्म से पीड़ित हैं. ऐसे में अदालतों के व्यावहारिक रवैये को देखते हुए अन्य विवाह और गुजारा भत्ता कानूनों के दुरुपयोग का खतरा समय के साथ कम हो रहा है.
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- तारीख 13.06.2014
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