बुधवार, 5 अगस्त 2020

राग दरबारी के दरबार में कुछ टीका टिप्पणी

श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी'  1968 में प्रकाशित हुआ था। बेस्ट सेलर है। तब से इसके कई संस्करण छप चुके हैं। तब लेखक पत्रकार और पत्रकारिता के विषय में इस उपन्यास में की गई टिप्पणी पर गौर कीजिए...


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*उस शहर में लगभग आधे दर्जन हिन्दी और उर्दू के चीथड़े निकलते थे, जिन्हें वहाँ साप्ताहिक पत्र कहा जाता था। चीथड़े उड़ाने वाले कुछ अर्द्धशिक्षित लोग थे जो अपने को पत्रकार कहते थे और जिनको पत्रकार लोग शोहदा कहते थे। इन चीथड़ों में प्रायः अदालतों की नोटिसों और सड़क की घटनाओं का वृतांत छपा करता था। साथ ही, निश्चित रूप से प्रत्येक चीथड़े में किसी अफसर के जीवन की ऐसी घटना का विवरण छपता था जिसमें एक पात्र तो वह स्वयं होता था और शराब की बोतल, छोकरी, नोट की गड्डी, जुआ या दलाल का जिक्र दूसरे पात्र की हैसियत से हुआ करता था। ये चीथड़े अदालतों और अफसरों की दुनिया में बड़े गौर से पढ़े जाते थे और उन क्षेत्रों में हिन्दी-उर्दू पत्रकारिता के खतरे की दलील पेश करते थे। कभी-कभी अचानक किसी अफसर के जीवन वृतांत का खंडन भी छप जाता था, जिससे पता चलता था कि संपादक ने अमुक तिथि के चीथड़े में छपी हुई घटना की स्वयं जांच की है और पाया कि उसमें कोई सत्य नहीं है और उन्हें उस समाचार के छपने का खेद है और अपने विशेष संवाददाता पर, जिसे अब नौकरी से निकाल कर मूंगफली बेचने के लिए मजबूर कर दिया गया है, रोष है। जिस अफसर के पक्ष में इस तरह का खंडन छपता था वह अपने साथियों से मुस्कुरा कर कहता था, ''देखा? '' और उसके साथी उसकी पीठ-पीछे कहते थे कि संपादक जी ने इसे भी दुहे बिना माने नहीं और इस तरह के साहित्य और शासन का संपर्क दिन-पर-दिन गाढ़ा होता जाता था। इन चीथड़ों की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि से यही उपयोगिता थी।*

- श्रीलाल शुक्ल जी के राग दरबारी से
(अध्याय 30)

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