शिक्षा....
इस छोटे से बच्चे का मन किताबों में नहीं लगता था। स्कूल की कक्षा में अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे भी वो खिड़कियों से बाहर की दुनिया पर निगाह जमाए रखता था। पत्ते हिलते हुए क्या कह रहे हैं। क्या वे खुश हैं। या नाराज। उन पर मंडराती मधुमक्खियां क्या सोच रही हैं। वो हर समय इस सोच में खोया रहता था।
यह एक संयोग ही है कि उसकी टीचर ने इस बात को समझ लिया। शिक्षिका ने उसे नए तरीके से शिक्षित किया। ज्ञान की ओर अग्रसर करने के लिए नया रास्ता ढूंढा। वे उसे कहतीं कि जाओ और स्कूल के सभी पेड़ों के नाम लिखकर ले आओ। जाओ और पूरे स्कूल में कौन-कौन सी चिड़िया आती हैं, उन पक्षियों के नाम क्या हैं, उनकी खासियतें क्या हैं, वे कैसे बोलती हैं, इसकी पूरी एक लिस्ट बनाकर ले आओ। कक्षा चार-पांच में पढ़ने वाले बच्चे के लिए यह एक अनोखी शिक्षा थी।
बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि वो बच्चा अपने परिवार के साथ कुछ समय के लिए अफ्रीका के किसी देश में शिफ्ट हो गया। कुछ सालों बाद वहां से लौटा। दिल्ली से पढ़ाई की। पुणे से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर मास्टर डिग्री करने के लिए अमेरिका चला गया। वहां पर इंजीनियर की जॉब भी करने लगा। लेकिन, साल-दो साल में ही उसे यह अहसास हुआ कि नहीं। ये उसकी जगह नहीं है। उसे तो पेड़ों-फूलों-पत्तियों से प्यार है। वो दिल्ली लौट आया। पर्यावरण के प्रति उसका प्यार संरक्षण में प्रगट हुआ। फिलहाल वो दिल्ली में पक्षियो, पेड़ों और तितलियों को बचाने जैसे मामूली काम में लगा हुआ है। उसने महान कामों को अलविदा कर दिया।
ये कहानी पर्यावरण एक्टिविस्ट मेरे एक मित्र ने मुझे एक दिन सुनाई थी। अपनी उस शिक्षिका को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से ही मेरे अंदर एक बर्ड वॉचर तैयार कर दिया था। बीज बोए जा चुके थे। मौका मिला तो वो बीज एक पेड़ बन गया।
मैं हैरान रह गया। शिक्षा ऐसे भी दी जा सकती है। लेकिन, मेरे सामने कई दूसरे उदाहरण हैं। यह कोई पंद्रह-बीस साल पहले की बात होगी। एक दिन मैं अपने एक मित्र के घर दिल्ली आया। सुबह-सुबह हम उठे तो बाहर टहलने के लिए निकल दिए। उसकी बस्ती से कुछ ही दूरी पर एक स्कूल का था। नगर निगम का था या दिल्ली सरकार का। अब ये विभाजन तो उस समय याद नहीं है। तमाम बच्चे लाइन में लगे हुए थे। वे प्रार्थना कर रहे थे। लेकिन, देर से आने वाले बच्चों को बाहर रोक दिया गया। जब प्रार्थना खतम हो गई और सभी बच्चे कक्षाओं में चले गए तो देर से आने वाले बच्चों के हाथों में झाड़ू पकड़ा दी गई। उनसे पूरे स्कूल की सफाई करवाई गई। इनमें ज्यादातर लड़कियां थीं।
उस स्कूल ने तुरंत ही उन्हें दो शिक्षाएं दीं। पहली की साफ-सफाई करना एक सजा है, जब आप गलती करते हैं तो आपको इसकी सजा दी जाती है। यह छोटा काम है। जिसे सामान्य तौर पर नहीं किया जाता। दूसरा कि मेहनत में खुशी नहीं है। बल्कि अपमान है। इसके अलावा भी तमाम सबक हैं।
अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थ्यांगो अपनी किताब भाषा संस्कृति और अस्मिता में एक बहुत ही भयानक और रोचक किस्सा अपने स्कूली दिनों का बयान करते हैं। वे बताते हैं कि वहां पर औपनिवेशिक सरकार का पूरा जोर था कि बच्चे अपनी भाषा में बात नहीं करें। वहां के लोग गिकूयू या स्वाहिली भाषा में बात करते थे। अपनी मातृ भाषा में उन्हें बात करने से रोकने के लिए सुबह प्रार्थना के समय ही एक बच्चे को एक बटन दिया जाता था। उससे कहा जाता था कि वो इस बटन को उस बच्चे को दे दे जो उससे मातृभाषा में बात कर रहा है। शाम के समय जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो यह देखा जाता था कि वह बटन किसके पास है। फिर उस बच्चे से यह पूछा जाता था कि यह बटन उसके पास कहां से आया।
इस प्रकार वह पूरी चैन सामने आ जाती थी। उस दिन उस स्कूल में कितने बच्चों ने अपनी मातृभाषा में बात की, इसका खुलासा होता था, फिर उसे सजा मिलती थी। इस तरह से औपनिवेशिक सरकार उन्हें दो शिक्षाएं देती थी। पहली तो अपनी मातृभाषा में बात करना एक गुनाह है, जिसकी सजा मिलती है। दूसरी, वो अपने साथियों से गद्दारी सिखाती थी। उन्हीं साथियों से, जिनके साथ ही उसे मरना-जीना है। जिनके साथ ही उनकी नियति जुड़ी हुई है। वो ऐसे जुड़वा तैयार करती है जो अलग-अलग दिशा में जाने की जिद करने लगें।
न्गूगी वा थ्यांगों की किताब पढ़े हुए मुझे पच्चीस से ज्यादा साल हो गए हैं। इसलिए हो सकता है कि इसकी डिटेल में कुछ कमियां रह गई हों।
बाकी, हमारी शिक्षा क्या है और उसकी व्यवस्था क्या है, हम उसकी चिंता कितनी करती हैं, इन पर कुछ बातें आपके साथ साझा करने की इच्छा थी, सो यह लिखा।
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