सोमवार, 7 नवंबर 2022

जाड़े की दस्‍तक और गुड का स्‍वाद...

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


जाड़े ने दस्‍तक दे दी है। सिर पर पंखों की पंखडि़यां थमती जा रही है और रजाई या कंबल चढ़ती जा रही है। मार्गशीर्ष आरंभ। आयुर्वेद तो कहता है : मार्गशीर्षे न जीरकम्। जीरा इस दौरान नहीं खाएं मगर कहने से कौन मानेगा, जीरा सेक कर गुड़ में मिलाकर खाएं तो खांसी जाए। हां, शक्‍कर से दूरी रखी जाए। गुड़ से याद आया कि इस दौर में तिल और गुड़ खाने और गन्‍ने चूसने की इच्‍छा हाेती है। ये इच्‍छा कालिदास की भी हाेती थी। तभी तो ऋतु वर्णन में उन्‍होंने इस बात का इजहार किया है :


प्रचुर गुडविकार: स्‍वादुशालीक्षुरम्‍य। (ऋतुसंहार 16)


हमारे यहां गुड के कई व्‍यंजन बनाए जाते हैं। गुड़ में तिल को मिलाकर घाणी करवाई जाती है। आज घाणी को कोल्‍हू के नाम से जाना जाता है। कई जगह खुदाइयों में घाणियां मिली है। इसे तेलयंत्र के नाम से नरक के वर्णनों में लिखा गया है। शिल्‍परत्‍नम् में घाणी बनाने की विधि को लिखा गया है।

घाणी में पिलकर तिलकूटा तैयार होता है... गजक तो खास है ही। गजकरेवड़ी, बाजरे का रोट और गुड़, गुड़धानी, गुडराब... और न जाने क्‍या-क्‍या। आपके उधर भी बनते ही होंगे। मगर, खास बात ये कि गुड एक ऐसा शब्‍द है जो संस्‍कृत में मीठे के लिए आता है। 


दक्षिण के कुछ पाठों में 'गुल' शब्‍द भी मिलता है मगर वह गुड़ ही है। अनुष्‍ठानों में देवताओं की प्रसन्‍नता के लिए गुड़, गुडोदन, गुडपाक, गुलगुले आदि के चरु चढ़ाने का साक्ष्‍य कई अभिलेखों में भी मिलता है। सल्‍तनकालीन संदर्भों में इसके भाव भी लिखे मिलते हैं। बनारस के इलाके का गुड और खांड दोनों ही ख्‍यात थे। गुड शब्‍द देशज भी है और शास्‍त्रीय भी। मगर अपना मूल रूप मिठास की तरह ही बरकरार रखे हुए है, इस स्‍वाद का गुड़ गोबर नहीं हुआ। यदि अंधेरे में भी यह शब्‍द सुन लिया जाए तो भी जीभ उसकी मीठास जान लेती है, है न।


जब देवताओं को अमृत बंटा और सूर्यदेव पान करने लगे तब उसकी कुछ बूंदें धरती पर गिर पड़ी। उसी से शालि जैसा अगहनी धान्य, मूंग और इक्षुदण्ड हुए। इसकी शर्करा में उस अमृत की बूंदों की मिठास है। यह इक्षु की वंशादि अनेक परंपराओं का आधार बना : 


अमृतं पिबतो वक्त्रात् सूर्यस्यामृतबिन्दव:।

निष्पेतुर्ये धरण्यां ते शालिमुद्गेक्षव: स्मृता:।।

शर्करा तु परा तस्मादिक्षुसारोऽमृतात्मवान्।

आष्टा रवेरत: पुण्या शर्करा हव्य कव्ययो:।।

(मत्स्य पुराण 77, 13-14)


यह रोचक तथ्य हो सकता है कि सूर्य से यह ईख इक्ष्वाकु जैसे वंश के नामकरण ही नहीं, शर्करा व्रत, अनुष्ठान, उद्यापन, दान, यज्ञ और कृषि क्षेत्र का भी आधार बना!


ईख की शर्करा की उत्पत्ति कामदेव के धनुष के मध्य भाग से हुई है : मनोभव धनुर्मध्यादुद्भूता शर्करा यत:। वह स्वाद, स्वरूप और सत्कार में अनन्य है। देवता तक उसका स्वाद लेने को लालायित रहते हैं। उसके अभाव में व्यंजन और मिठाई की कल्पना ही नहीं हो सकती। (मत्स्य पुराण : शर्कराचल व्रत विधान की कथा 92, 12)


मार्गशीर्ष में ईख की मिठास परम होती है। 

😋

क्यों 

यह माना गया है कि जिसे गन्ना प्रिय होता है, वह सत्व गुणी

होता है! भारत इसी कारण सत्व गुण प्रशंसा प्रधान रहा और यहां मिठास जैसे करुणा भाव का पोषण हुआ!


जैसा मीठा ईख : वैसी ही मीठी कहानी


ईख या गन्‍ना। सांठा या हांठा। सुगरकेन के नाम से इसे पूरी दुनिया में जाना जाता है। कार्तिक में रस से लबालब हो जाता है और अपने सिर पर दूल्हे की तरह मौर बांध लेता है। लक्ष्‍मीदेवी, गौ और गोवर्धन की पूजा के लिए इसका भी प्रयोग होता है, लिहाजा जड से कटकर बाजार में अपना सिर ऊंचा किए हुए है। 


कमाल है कि लक्ष्‍मी पूजा में सीताफल के साथ ईख क्‍यों ? यह इसलिए कि गन्‍ने सरस उत्‍पाद है और मानवीय कृषि की सबसे अच्‍छी उपज है जिसके साथ गुणात्‍मक रूप से पांच गुण छुपे हुए हैं। यूं यह भोजन के चोष्‍य वर्ग में आता है, यानी चूसकर खाने वाला। भावप्रकाश, शालग्राम निघंटु आदि में इसके गुणों पर चर्चा है। लोक की लकीर से ही ये मान्‍यताएं श्‍लोक होकर शास्‍त्रों के अंक में समाई है।


पांच आयुर्वेदिक गुण होने से ही शायद इसे 'कामदेव का बाण' भी कहा गया है। कामदेव का पंचशर नाम भी मिलता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में कामदेव के पांचों ही बाणों का नाम मिलता है, जिसका उत्‍स वात्‍स्‍यायन है। ये हैं- द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्‍माद - द्रवणं शोषणं बाणं तापनं मोहनाSभिधम्। उन्‍मादं च कामस्‍य बाणा: पंच प्रकीर्तिता:।। हर्षदेव के नागानंद नाटकं में कमल, अशोक, आम्रमंजरी, चमेली और नीलकमल को कामदेव का बाण बताया गया है। 


मयमतम् नामक शिल्‍प ग्रंथ में कामदेव की मूर्ति के लक्षणों में कहा गया है कि उसके तापिनी, दाहिनी, सर्वमोहिनी, विश्‍वमर्दिनी, मारिणी कामिनी ये पांच प्रेमदंत उसके सायक या बाण हैं और ईख का चाप होता है- इक्षुचापेषु पंचैव पश्चिमे परिकीर्तिता:। यही वर्णन दीप्‍तागम में भी आया है- इक्षुचाप समायुक्‍तं पंचबाण समायुतम्। (मयमतम्, अनुवाद श्रीकृष्‍ण जुगनू, चौखंबा संस्‍कृत सीरिज, बनारस, 2008, 36, 165, वहीं पर दीप्‍तागम का उदाहरण) कालिका पुराण, सस्यवेद, बारहस्पत्य कृषि शास्त्र, दैवज्ञ रंजन आदि में कितना कुछ कहा गया है।


इसे गुजराती में शेरडी, छोड सांठों कहा जाता है, मेवाडी में भी सांठा या हांठा कहा जाता है। अन्‍यत्र कण्‍डेक्षु, खंगपत्र, गण्‍डकिन्, गण्‍डीरी, बहुरस, रसाल, शतपर्वन, ईख, ऊख, गन्‍ना भी इसके नाम है। बंगाली में आक, मराठी में उस और अंग्रेजी में sugar cane. वानस्‍पतिक नाम है- Charum officinarum Lim. इसका सुगरकेन नाम क्‍यों पडा, मालूम नहीं, मगर एक कहानी जिसका प्‍लीनी, ऐरियन आदि ने संकेत किया है। 


सिकंदर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उसके हाथियों ने पंजाब की धरती पर पहली बार गन्‍ने के खेत देखे। हाथियों को तो मजा आ गया। महावतों ने हांकने के लिए वे गन्‍ने तोडकर ही हाथियों को डराया। उनके हाथ मीठे हो गए। हाथियों को खिलाने के लिए या संग्रह के लिए वे गन्‍नों की गंडीरियों की भारिया बनाकर अपने देश ले गए। उनकी पत्नियों को बहुत अच्‍छा लगा। उन्‍होंने बांस या केन तो देखे थे मगर उनमें भरी मिश्री नहीं। वे उन रसभरे बांसों पर मुग्‍ध हो गई। सैनिकों से ऐसे सुगरकेन और लाने की जिद की- 'जिस धरती पर ऐसे सुगरकेन होते हैं, वहां इनके खाने वाले लोग कितने मीठे होंगे... क्‍यों न तुम जाओ और ये ले आओ...।' 


कितनी सुंदर कहानी है कि एक मीठे फल पर दुश्‍मन के देश की कामिनियां भी मुग्‍ध हो गईं। गन्‍ने की विश्‍वयात्रा यही से आरंभ होती हैं और विश्‍व को गन्‍ना देने वाला भारत आज इसकी पैदावार में दूसरा होकर रह गया है। अमीर खुसरो ने भी भारत को मीठा बांटने वाला देश कहा है। कल्‍पना नहीं, मगर यह सच ही लगता है। लक्ष्‍मीदेवी की मिठास बनी रहे, पांच बाणों वाले इस गन्‍ने से उसकी पूजा के पीछे यही रहस्‍य होना चाहिए। 


यह संस्कृत में इक्षु है और इक्ष्वाकु वंश का इसके साथ बड़ा संबंध है। तृण आदि वनस्पतियों के वंशों का ऐसा संबंध दर्भ और गुर्जर, कुश और कुशवाह, ईख और पाटीदार, कमल और कमलिया, खेजड़ी और खत्री... आदि का मिलता है ना! यह एक अलग लेकिन रोचक विषय है और महाजनपद से वंश के विस्तार को बताता है। ईक्षु तीज और अक्षय तृतीया की बात भी मीठी - मीठी... और हां, पांच पर्व, पांच शर, पांच योग, पांच मुख... लाभपंचमी से पहले यह प्रसंग उपयोगी लगेगा। 

जय जय।


अंगीठी कहां गई?


बढ़ती सर्दी में अंगीठी याद आ रही है। गांव में थे तो घर के बाहर घोघड़ तप सुलगाते जिसे अलाव कहा जाता है और सब आसपास से जलाऊ लकड़ी आदि लेकर आते। आते जाते कहीं कोई जलाऊ चीज मिल जाती तो उठा ले आते : सूखी पूखी लाओ भाई, सबको तपाओ भाई...।


घर में तो लोहे या गारे वाली अंगीठी ही सुलगाई जाती। दादी और मां गारे की अंगीठी को चुल्ली, सुल्ली भी कहती। सिगड़ी भी इसका नाम था। संस्कृत में इसका "अग्नीष्टिका" नाम आग के लिए जमाई जाने वाली ईंटों के कारण हुआ लेकिन अंग देश में "बोरसी" और कश्मीर में "कांगड़ी" नाम कैसे आए? सिगड़ी को दादी खुद ही बना लेतीं। सर्दी में मंदिर में अंगीठी को ईंधन सहित दान भी किया जाता। कभी कभी अखाड़ा, मठ के महाराज को भी देकर पुण्य पाते। 


तब दादी के वचन ही प्रमाण थे और अब लगता है कि दादी कहां भविष्योत्तर पुराण पढ़ी थीं! पुराण में कहा कि मार्गशीर्ष के आरंभ में अच्छा दिन देखकर अंगीठी बनाएं। वह सुखासनावर्ती और दृढ़ हो। देवांगन, मठ, बाजार और बड़े चबूतरे पर अंगीठी को बनाया जा सकता है। वहां सुबह शाम जलाने के लिए सूखे ईंधन का संचय भी करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह ब्रह्मलोक पाता है... पुराण में तो अंगीठी दान की विधि, मंत्र, विप्र भोजन आदि भी आए हैं और संकल्प भी। नीलकंठ (17वीं सदी) लिखित बृहत् भगवंत भास्कर के "दान मयूख" ने ज्यों का त्यों लिया भी है। 

पुराण में श्रीकृष्ण का वचन है : 

आदौ मार्गशिरे मासि शोभने दिवसे शुभे।

अग्नीष्टिकां कारयित्वा सुखासनावर्ती दृढ़ाम।।

देवांगणे मठे हट्टे विस्तीर्णे चत्वरे तथा।

उभयो: संध्ययो: कृत्वा सु शुद्धकाष्ठसंचयम्...।।


यह वर्णन पुराना है क्योंकि तब तक लोहे की अंगीठी का चलन नहीं था। गारा मिट्टी की ही करीने से धुना रूप में बनाई जाती थी। वैष्णव मंदिर में ठाकुर जी को लोह अंगीठी कोयला से भरकर, सुलगाकर निवेदित कर कीर्तन पद का गायन करने की प्रथा रही है :


श्री राधारमण अंगीठी तापै।

अपनी प्राणप्रिया छवि निरखत बैठे हैं पलका पै।

सुन्दर अगर सुगंध लेत हैं मधुर मधुर आलापें।

गुणमंजरी रजाई ओढ़न निरख लगत पलका पै॥


बल्लाल सेन, जिन्होंने भोज चरित्र लिखा था, लोहे की बनी अंगीठी के चलन को देखकर चकित थे। बंगाल आदि के लोहाबाजार से अंगीठी का प्रचार अनेकत्र हुआ था। इसकी प्रशंसा में लिखा गया था : 


कविमतिरिव बहुलोहा सुघटितचक्रा प्रभातवेलेव।

हरमूर्तिरिव हसन्ती भाति विधूमानलोपेता।। (भोजप्रबन्धः)


इसका अभिप्राय है कि हंसती हुई यह अंगीठी कवि की बुद्धि के समान 'बहुलोहा' है। सुबह के समान सुघटितचक्रा है और शिव की मूर्ति के समान विधूमानल है। इसके अर्थ को और गंभीरता से देखिए : बहुलोहा =बहु +लोहा, बहुल+ऊहा (कल्पना)। सुघटितचक्रा = सुन्दर चक्राकार, चकवा - चकवी का मिलन कराने वाली सुन्दर घड़ी (प्रातःकाल) और विधूमानल = धूम रहित अग्नि, विधु + उमा + अनल = चन्द्रमा, पार्वती और तृतीय  नेत्राग्नि।

कितनी महिमा इस छोटे से अग्नियंत्र की रही है... अब गैस और हीटर के दौर में कहां है?

जय जय।

✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहित 


#मार्गशीर्ष 

#जिस महीने की पूर्णिमा तिथि जिस नक्षत्र से युक्त होती है, उस नक्षत्र के आधार पर ही उस महीने का नामकरण किया जाता है। चूंकि मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है, इसलिए इस माह को मार्गशीर्ष कहा जाता है। इसके अलावा इसे मगसर, मंगसिर, अगहन, अग्रहायण आदि नामों से भी जाना जाता है। ये पूरा मास बड़ा ही पवित्र माना गया है। इसकी महिमा स्वयं श्री कृष्ण भगवान ने गीता में बताई है। 


शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में

 इष, ऊर्ज, रयि व पोष, 

(क्वांर/आश्विन), (कार्तिक), (अग्रहायण/मार्गशीर्ष), (पौष) ?


इन चार को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है.

इष और ऊर्ज  शरद ऋतु के मास हैं .

ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .

रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होगी.

पोष ... पौष मास  पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से .

.

वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात्  शब्द की बहुधा आवृत्ति है ।

नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है .

हो भी या नहीं भी ।

✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी


अग्रहायण आहारचर्या


यह पोस्ट मुख्यतः उनके लिए है जो प्रातः हल्का-फुल्का खाकर अथवा केवल चाय/कॉफी/जूस पीकर और tiffin लेकर दुकान, कार्यालय आदि जाते हैं।


कार्तिक पूर्णिमा के उपरान्त दुर्बल जन की जठराग्नि भी प्रबल हो जाती है जो माघ पूर्णिमा तक प्रबल रहती है अतः जो कुछ tiffin में ले जाते हैं उसे बनते ही उष्ण दशा में घर पर ही सेवन कर लें। प्रातः पूर्ण आहार ग्रहण करने का अभ्यास न हो तो किसी रोचक विधि से भोजन करें। यथा एक ग्रास रोटी-दाल, अगला केवल चावल, अगला रोटी-शाक, अगला पुनः केवल चावल का ग्रहण करें अथवा अन्य किसी रोचक विधि का प्रयोग कर सकते हैं। tiffin में हल्का-फुल्का खाद्य ले जाएँ। फल भी ले जा सकते हैं। दिन में एक बार जूस पी सकते हैं। रात्रिभोज के अन्त में किञ्चित् गुड अथवा मूँगफली व गुड की पट्टी ले सकते हैं। रात्रिभोज के डेढ़ घण्टे पश्चात् कभी भी अनुष्ण अथवा किञ्चित् उष्ण दूध पी सकते हैं। अधिक दूध पी लेने का लोभ त्याग दें क्योंकि अधिक पीकर न पचा पाने से अच्छा है कि न्यून ही पिया जाय। एक गिलास भी पर्याप्त है। शैत्य में प्यास की उपेक्षा न करें। प्यास लगने पर पानी पीते रहें।


यदि आपका मल बँधा हुआ (रस्सीवत्) नहीं आता है तो समझ लीजिए कि आप एक बार में अपनी क्षमता से अधिक खा-पी रहे हैं और भली-भाँति पच नहीं रहा है। अतः निरीक्षण द्वारा त्रुटि का पता लगाएँ।


योगासन, सूर्य-नमस्कार, प्राणायाम, ध्यान आदि को दिनचर्या में स्थान दें। किसी जानकार से जान लेवें। अगले तीन मासों में अर्जित स्वास्थ्य शेष नौ मासों में काम आता है।


नीचे से ऊपर की ओर अंगों को गीला करते हुए स्नान का आरम्भ करें। प्रातः स्नान के पूर्व धड़ का तैल-मर्दन करें और रात्रि में सोने के पूर्व मुख व शिर में हल्के हाथों से तैल-मर्दन करें।

पहला सुख निरोगी काया!

✍🏻प्रसिद्ध पातकी

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