आज जैसे ही सूरज की किरणे धरती पर आईं दिल्ली को राजधानी बने 100 साल पूरे
हो गये। आज ही के दिन यानी कि 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली को राजधानी बनाने
की घोषणा की गई थी। इन 100 सालों ने दिल्ली ने कई बड़े उतार-चढ़ाव देखे
मगर विकास की तीव्र गति ने दिल्ली की तस्वीर ही बदल दी। जी हां ऐतिहासिक
दिल्ली आज मॉर्डन दिल्ली के रूप में परिवर्तित हो गई है। हां, इतना जरूर
है कि यहां ऐतिहासिक स्वरूप को भी सहेज कर रखा गया है। एक से एक कारें,
चमचमाती हुई सड़के, फ्लाईओवरों का जाल, एयपोर्ट पर इंटरनेशनल लेवल का टी-3
टर्मिनल और फिरोजशाह कोटला स्टेडियम ने दिल्ली को वह तस्वीर दी है जिसपर
इतराया जा सकता है।
खैर कुछ भी हो मगर दिल्ली का हजारों साल पुराना इतिहास रहा है और मुगलों
के अलावा तमाम राजवंशों ने यहीं से देश पर शासन भी किया है। दिल्ली शहर ने
अपने विकास और विस्तार की अनेक मंजिलों को तय किया है और यह यात्रा बहुत
ही शानदार रही है। पर हमारे मन में यही सवाल उठता है कि आज की दिल्ली की
नींव कैसे पड़ी और इसे सजाने-संवारने में मुख्य भूमिका किसकी रही। तो आईए
दिल्ली के 100 साल पूरे होने पर हम इसकी कुछ ऐसे पहलूओं पर नजर डालते हैं
जो सच में काफी रोचक हैं।
आर्किटेक्ट लुटियन ने डाली थी दिल्ली की नींव
जब अंग्रेजों ने दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने का निर्णय तो समस्या इसके
आधुनिकीकरण और नवनिर्माण की थी ताकि यहां अंग्रेज शासक न केवल सुकून से रह
सकते, बल्कि इसे देश का रोल मॉडल शहर बना पाते। इस काम की जिम्मेदारी उठाई
लुटियंस और बेकर ने। राजधानी को नया रूप देने के शुरुआती सालों में एडविन
लुटियंस और हरबर्ट बेकर नाम के दो शख्सियतों ने उन तमाम इमारतों के डिजाइन
तैयार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो आज राजधानी को एक अलग
भव्यता प्रदान करते हैं और जिन्हें आज हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर मानते हैं।
ब्रिटेन से एडविन लुटियंस को भारत वर्ष वर्ष 1912 में भेजा गया ताकि वह
यहां पहुंचकर भारत की नई राजधानी के लिए बनने वाली जरूरी इमारतों के डिजाइन
तैयार करने और निर्माण करवाने के काम को बेहतर तरीके से पूरा करा सकें। तब
तक एडविन लुटियंस की मंजे हुए टाउन प्लानर और आर्किटेक्ट के रूप में अपनी
पहचान बना चुके थे। पहले कुछ साल तो यह तय करने में ही निकल गए कि नई
राजधानी की अहम इमारतों के निर्माण करने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त होगी।
एडविन लुटियंस ने जहां अपना कैंप ऑफिस बनाया वहां आजकल राजधानी का प्रेस
क्लब बना हुआ है। इस भवन की कुछ रोचक और दिलचस्प यादें हैं। इसी बंगले में
कभी इंदिरा गांधी के पति और राजीव गांधी के पिता फिरोज गांधी भी रहा करते
थे। इसके बाद लुटियन ने कई ऐसी इमारते बनाई जो आज दिल्ली की भव्यता को
दर्शाने के लिये प्रर्याप्त हैं। खास बात तो यह है लुटियन ने ही
राष्ट्रपति भवन के साथ-साथ इंडिया गेट, राष्ट्रीय अभिलेखागार, जनपथ, राजपथ,
दिल्ली जिमखाना क्लब और गोल मार्केट का भी डिजाइन तैयार करने का काम पूरा
कराया था।
जार्ज पंचम के दरबार में हुई थी राजधानी बनाने की घोषणा
12 दिसंबर की तारीख थी। दिल्ली के बुराड़ी इलाके में जो कोरनेशन पार्क बना
हुआ है, वहीं पर राजा-रानी का दरबार लगा। जार्ज पंचम और उनकी रानी मेरी
शाही बग्घी पर सवार होकर यहां पहुंचे। उस समय देश में सैकड़ों की संख्या
में देशी रियासतें थीं, जिनके राजा-महाराजा इस दरबार में बतौर मेहमान बुलाए
गए थे। इसी दरबार में जार्ज पंचम को हिन्दुस्तान का सम्राट घोषित कर दिया
गया।
लेकिन इस दरबार में एक ऐसी घोषणा भी हुई जिसे सुनकर वक्त भी सहसा ठिठक सा
गया। जब जार्ज पंचम ने यह एलान किया कि अब दिल्ली ही देश की राजधानी होगी
तो दरबार में कुछ पलों तक सन्नाटा पसर गया लेकिन कुछ ही क्षणों बाद दरबार
तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। जानकार बताते हैं कि यह जलसा कितना बड़ा
था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तब दिल्ली की आबादी चार
लाख थी और इस जलसे में एक लाख लोग मौजूद थे।
100 साल बाद भी कायम है पुराने जायकों का मजा
दिल्ली वाले सिर्फ बड़ा दिल ही नहीं रखते, बल्कि दूसरों के दिल में सहजता
से उतरने का तजुर्बा भी रखते हैं। यह तजुर्बा भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि पीढ़ी
दर पीढ़ी से जाना और परखा। जी हां, दिल्ली वालों को यह अच्छी तरह पता है
कि दिल तक पहुंचने का एक रास्ता पेट से होकर भी गुजरता है। दिल्ली के लजीज
व्यंजन, चटपटे चाट-पकौड़े और कुल्फी-फालूदा व रबड़ी-मिठाई विरासत के तौर पर
मिले हैं। इतिहास गवाह रहा है कि दिल्ली वालों ने खान-पान की इसी खासियत
के बलबूते बादशाहों के साथ-साथ आम लोगों को भी अपना मुरीद बनाया है।
घंटेवाला की मिठाई - हादुरशाह जफर से राजीव गांधी तक को भाई पुरानी दिल्ली
के चांदनी चौक इलाके की पहचान बन चुकी मिठाई की दुकान घंटेवाला
कॉन्फेक्शनर्स का इतिहास दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। सन् 1790 में
यहां स्थापित हुई दुकान लगभग सवा दो सौ साल से अपनी पाक कला को सहेजे हुए
है। यहां की मिठाइयां विशेषकर सोहन हलवा, मेसू पाक, पतिसा आदि ने मुगल
बादशाह बहादुरशाह जफर को अपना मुरीद बनाया। वहीं, बादाम कतली, बादाम लौज,
पिस्ता लौज आदि ने अंग्रेजों व देश के कई प्रधानमंत्रियों की वाहवाही लूटी।
मोतीमहल- दिल्ली को तंदूरी चिकन का अनूठा स्वाद देने और इसे दिल्ली सहित
उत्तर भारत की पहचान बनाने वाले मोती महल रेस्टोरेंट की स्थापना सन् 1947
में दरियागंज में हुई। इससे पहले संस्थापक कुंदन लाल गुजराल 1920 में
पाकिस्तान के पेशावर में मोतीमहल की शुरुआत कर चुके थे। आजादी के दौरान
स्थापित मोतीमहल को अनेक क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों व राजनेताओं
की सेवा करने का मौका हासिल है। मोतीमहल के अतिथियों में पं. जवाहरलाल
नेहरू, इंदिरा गांधी, जाकिर हुसैन, केनेडी व अरब के शाह आदि शामिल हैं।
पराठे वाली गली- चांदनी चौक की यह गली, पराठे वाली गली के नाम से तब मशहूर
हुई, जब 1870 में यहां पराठे की दुकाने खुलीं। इस गली के पराठों के स्वाद
ने भारत की कई शख्सीयतों को दीवाना बनाया है। आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल
नेहरू और उनके परिवार के अन्य सदस्य जैसे इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित
अकसर इस गली में पराठे का स्वाद चखने आया करते थे। जय प्रकाश नारायण और
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इस गली के नियमित ग्राहक रह चुके
हैं। इस गली के पराठों की खासियत यह है कि इन्हें लोहे के तवे में शुद्ध
देसी घी में तला जाता है।
दिल्ली की आधुनिक कला संस्कृति
देश के आजाद होते ही दिल्ली ने वैश्विक संस्कृति को अपनाया। आज टोक्यो
इंटरनेशनल सेंटर के आधार पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर है तो पाश्चात्य
संस्कृति की तर्ज पर यहां मदर्स, फादर्स व वेलेंटाइन डे मनाया जा रहा है।
हाल के समय में तो दिल्ली वालों ने गे कल्चर को भी अपनाना शुरू कर दिया है।
अपनी कला-संस्कृति के बीच आज का युवा वर्ग हर तरह की कला व संस्कृति को
अपने अंदर उतारने की कोशिश करता दिखता है।
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