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दिल्ली सौ साल की
हो गयी जी. सुनकर दिल्लीवाले बड़े नोस्टेल्जिक हो रहे हैं.
दिल्ली बनने की
ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें छप रही हैं. बताया जा रहा है कि आज जहां कनॉट
प्लेस है, कभी वहां माधवगंज गांव था.
राष्ट्रपति भवन, पार्लियामेंट, सेंट्रल सेक्रेटेरियट की जगह कभी रायसीना
की पहाड़ियां थी और वहां सरे शाम से सियार बोलने लगते थे. अब वहां सत्ता बोलती है. सत्ताधारी बोलते हैं. सब कितना बदल गया है. सचमुच?
पुराने लोग बता
रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली को बनते देखा है. कैसे वे तांगों में घूमते थे, पैदल या साइकिल से इंडिया गेट तक चले आते थे. पिकनिक मनाने महरौली चले जाते थे. पुरानी दिल्ली से नयी दिल्ली आया
करते थे. यहां बस अफसर और बाबू रहते थे. सत्ता की मारा-मारीवाली, जाम की मारी, रेप की राजधानी, चोर-उचक्कों और झपटमारों
की दिल्ली के बारे में सुनकर लगता है जैसे दिल्ली सौ
नहीं, पांच सौ या हजार साल पुरानी है और हम सतयुग के किस्से सुन रहे हैं.
पुलिसवालों को
आश्चर्य हो रहा होगा कि तब हम कहां थे. चोर-उच्चकों और झपटमारों को अफसोस हो रहा होगा कि हम तब क्यों नहीं थे. सत्ताधारियों को विास न हो रहा होगा कि जमाना इतना भोला था. नौकरीपेशा और
कारोबारियों को कोफ्त हो रही होगी कि ऐसा भी जमाना था जब मेट्रो में भीड़
नहीं थी, पार्किग का झंझट नहीं था, जाम की समस्या नहीं थी. पर यह यह सोच संतुष्ट हो जाते होंगे कि तब कोई करोड़ों में नहीं खेलता था. अरबों के सौदे
नहीं होते थे. इसीलिए यह भी बताया जा रहा है कि दिल्ली ने कितना लंबा सफर
तय कर लिया है. ट्राम से मेट्रो तक, रीगल से मल्टीप्लेक्सों तक, धूल भरी सड़कों से फ्लाईओवरों तक. पर यह सब किस्से लुटियन की नयी दिल्ली के
हैं.
कहा जा रहा है कि
दिल्ली को राजधानी बने सौ साल हो गए पर दिल्ली हमेशा राजधानी रही है. माना दिल्ली सात बार उजड़ी और बसी है फिर भी राजधानी तो रही. बेशक अंग्रेजों ने राजधानी पहले कोलकाता बनायी थी, मुगलों की भी कुछ पीढ़ियों की
राजधानी दिल्ली नहीं रही लेकिन अनंगपाल से लेकर गुलाम, खिलजी, तुगलक, लोदी और मुगल वंश से लेकर शेरशाह सूरी तक की राजधानी दिल्ली
ही थी. अंग्रेजों की राजधानी के सौ साल का जश्न मनाते हुए क्या
शहजानाबाद, तुगलकाबाद, महरौली और सीरी
बसने का जश्न भी कभी मनाया जाएगा. अगर यह इतिहास है तो वह भी इतिहास है. इतिहास में दुभांत क्यों?
हमने एक पुरानी
दिल्लीवाले को बताया कि दिल्ली सौ साल की हो गयी. उसने कहा लुटियन की दिल्ली हुई होगी. हमारी दिल्ली तो मुगलों के जमाने की है. यहां घंटेवाले की मिठाइयां और परांठेवाली गली के पराठे उससे
भी पुराने हैं. महरौलीवाले को बताया तो बोला, हम तो हजार के हो गए. सकपकाकर हमने कहा- नहीं हम नए की बात कर रहे हैं. उसने कहा- नयों की बात करते हो तो हमारे एमजी रोड के फैशन डिजाइनरों के शो रूम सबसे नए हैं. दिल्ली
के एक गांववाले से कहा तो उसने कहा, पर हमारा गांव तो आठ सौ साल पुराना है. सौ साल की होकर भी दिल्ली बहुत बदल गयी. वहां ट्राम की जगह मेट्रो आ गयी. पर हमारे गांव में आज भी कुछ नहीं बदला. हमने कहा- नहीं गलियां बेशक संकरी
हैं पर मकान कई मंजिले हो गए और किराया भी लाखों में आता है. आप लंबी-लंबी
गाड़ियों में चलते हैं. उसने बहस नहीं की. बोला- पर गांव हमारा अब भी वही
है. वहीं घूंघट, वही हुक्का, वही चौपाल.
जमानापारवाले ने
कहा-यार पचास साल का तो मैं भी हो गया. पर हमारी सोसायटी नयी है. पीक ऑवर्स में जाम के कारण जमना पार करना मुश्किल हो जाता है. एक करावलनगर वाले को यह खुशखबरी दी तो वह बोला-हमारी
कालोनी भी काफी पुरानी हो गयी, लेकिन पानी-बिजली की अब भी बड़ी समस्या है. एनसीआर वाले से कहा-दिल्ली सौ साल की हो गयी तो उसे आश्चर्य हुआ-अच्छा? क्यों क्या हुआ, हमने कहा. तो बोला, मैं तो दो-एक साल से यहां आया हूं और लोग कह रहे हैं कि यह भी दिल्ली ही है.
सौ बरस की राजधानी दिल्ली
दिलवालों की दिल्ली जब से बनी है तब से ही यह कोलाहल का केन्द्र है.
दिल्ली हमेशा से भारत का दिल रही है. इस दिल ने सब सह कर भी हिंदुस्तान
को कई ऐसे मौके दिए हैं जिन्हें हम कभी नहीं भूल सकते. चाहे वह आजादी के
बाद पहली बार स्वतंत्रता का गवाह बना लाल किला हो या फिर इंडिया गेट की
परेड, देश की संसद हो या
आतंकवादियों का हमला सबकी गवाह है दिल्ली.
भारत के इतिहास में
शायद ही कोई दूसरा शहर इतनी बार बसा और उजड़ा, जितनी बार शहर दिल्ली. माना जाता है कि 1450 ईसा पूर्व ‘इंदरपथ’ (इंद्रप्रस्थ) के रूप में पहली बार
पांडवों ने दिल्ली को बसाया. इस आधार पर दिल्ली तीन से साढ़े तीन हज़ार साल पुराना शहर है. इंद्रप्रस्थ वो जगह था जहां हम आज पुराने किले के खंडहर देखते हैं.
भारत के तत्कालीन शासक किंग जॉर्ज पंचम ने 12 दिसंबर, 1911 को बुराड़ी में
सजे दरबार में नई राजधानी की घोषणा की थी. किंग जॉर्ज पंचम के
इस फैसले ने दिल्ली की तकदीर ही बदल दी. दिल्ली को न सिर्फ राष्ट्रीय
स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर नई पहचान मिली. आज 2011 में दिल्ली को राजधानी बने सौ साल हो गए हैं. इन सौ वर्षो में दिल्ली ने कई उतार-चढ़ाव देखे. विकास की गति ने दिल्ली की तस्वीर पूरी तरह से बदल दी है.
सौ वर्ष पहले जब जार्ज पंचम का राज्यभिषेक हुआ और कलकत्ता से दिल्ली
को राजधानी बनाने का फैसला हुआ तो कोई नहीं जानता था कि दिल्ली उसके
बाद हमेशा के लिए राजनीतिक गलियारों की अहम जगह बन जाएगी. इस बनती बिगड़ती
दिल्ली की कहानी भी बड़ी अनूठी है.
12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली को भारत की राजधानी बनाया गया और दिल्ली को मिली अपनी नई पहचान. 1772 से 1911 तक कलकत्ता ही भारत की राजधानी थी. आज के ही दिन जार्ज पंचम का भारत के शासक के तौर पर राज्याभिषेक हुआ
और दिल्ली में एक विशाल दरबार लगाया गया. यह दरबार कोई मामूली दरबार नहीं
था, बल्कि इस दरबार में अंग्रेज
हुक्मरानों ने अपने को शासक के तौर पर भारत पर काबिज कर दिया था. इस राज्याभिषेक के दौरान हाजिरी लगाने पूरे देश के नवाब और राजा पहुंचे थे. इसका अर्थ यह था कि उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को
स्वीकार कर लिया था.
मिर्जा गालिब की दिल्ली
दिल्ली पर काबिज आखिरी मुगल बादशाह खुद बड़े आला दर्जे के शायर थे और
उनके मुशायरे में अकसर मिर्जा गालिब और जौक जैसे शायर शिरकत करते थे. उस
वक्त के लालकिला में इस मुशायरे के बीच वाहवाही की आवाजें खूब जोर-शोर से
गूंजा करती थीं.
उस वक्त की श्वेत श्याम दिल्ली आज पूरी तरह से तबदील हो चुकी है.
वक्त के साथ दिल्ली की खूबसूरती पर भी चार चांद लग गए हैं. उस वक्त की
हवेलियां आज भी दिल्ली में शानौ शौकत की मिसाल पेश करती हैं. चंद दरवाजों में
रची बसी उस वक्त की दिल्ली आज भारत के सियासी गलियारों में कितनी अहम
है इसे बताने की कोई जरूरत यहां समझ नहीं आती. दिल्ली की खूबसूरती और यहां
की आबोहवा पर ही दिल्ली के शायर ने कहा था “कौन जाए जौक अब
दिल्ली की गलियां छोड़ कर.” वहीं मिर्जा गालिब को
भी दिल्ली इतनी रास आई कि आखिर तक उन्होंने इस दिल्ली का साथ नहीं छोड़ा.
आज की दिल्ली
ऐतिहासिक दिल्ली आज एक आधुनिक दिल्ली के रूप में परिवर्तित हो गई है.
हां, इतना जरूर है कि यहां
ऐतिहासिक स्वरूप को भी सहेज कर रखा गया है. अत्याधुनिक परिवहन सुविधाएं, चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवरों का जाल, आइजीआइ एयरपोर्ट पर अंतरराष्ट्रीय
स्तर का टी-3 टर्मिनल, अत्याधुनिक
सुविधाओं से युक्त स्टेडियम इत्यादि ने दिल्ली को वह तस्वीर दी है, जिस पर इतराया जा सकता है. लेकिन यह तस्वीर पूरी दिल्ली की तकदीर नहीं बन पाई है.
लेकिन जैसा कि हम हमेशा से कहते रहे हैं कि दिल्ली ने अच्छा बुरा
सब देखा है तो इस दिल्ली के साथ कई बुरी चीजें भी हुईं. दिल्ली पर 1984 के दंगों से लेकर आतंकवाद तक कई बार
खून के धब्बे लगे तो वहीं आज दिल्ली की सड़कें महिलाओं के लिए एक खौफनाक जगह बन चुकी हैं. दिलवालों की दिल्ली को कई बार महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगहों में भी गिना गया है.
दिल्ली कई मायनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर का शहर बन गई है लेकिन
जनसंख्या विस्फोट का सही आकलन कर उसके
अनुसार नियोजित विकास में विफलता ही हाथ लगी है. 1911 में दिल्ली को जब देश की राजधानी बनाया गया था, उस समय इसकी आबादी केवल चार लाख के करीब थी जो
अब बढ़कर करीब 1.68 करोड़ हो गई है.
तब से अब तक दिल्ली की सूरत भले ही बदल गई हो लेकिन नहीं बदली इसकी शान जो आज
भी ज्यों की त्यों बनी हुई है.
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.भारत की राजधानी को स्थानांतरित करते हैं''
पारुल अग्रवाल
बीबीसी संवाददाता,
दिल्ली
सोमवार,
5 दिसंबर, 2011 को 10:19 IST तक के समाचार
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12 दिसंबर 1911 की सुबह 80 हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की भीड़ के सामने ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम ने जब ये घोषणा की, तब लोग एकाएक यह समझ भी नहीं पाए कि चंद लम्हों में वो भारत के इतिहास में जुड़ने वाले एक नए अध्याय का साक्ष्य बन चुके हैं.इस घटना को आज सौ साल बीत चुके हैं और साल 2011 इतिहास की इसी करवट पर एक नज़र डालने का मौका है, जब अंग्रेज़ों ने एक ऐसे ऐतिहासिक शहर को भारत की राजधानी बनाने का फैसला किया जिसके बसने और उजड़ने की स्वर्णिम-स्याह दास्तान इतिहास से भी पुरानी है.
ये मौका है एक ऐसी राजधानी को परखने का जो आज दुनिया के नक्शे पर सबसे बड़े लोकतंत्र की ताकत के रुप में स्थापित है.
लेकिन सवाल ये है कि तीन हज़ार साल पुराना शहर 'दिल्ली' जिसे खुद अंग्रेज़ों ने भारत की प्राचीन राजधानी कहा उसे 1911 के बाद ‘असल राजधानी’ मानकर सौ साल के इस सफ़र का जश्न क्या तर्कसंगत है.
दिल्ली एक देहलीज़
शुरुआत हुई दिल्ली शहर के नाम से, जिसे लेकर कई कहानियां मशहूर हैं. कुछ लोगों का मानना है दिल्ली शब्द फ़ारसी के देहलीज़ से आया क्योंकि दिल्ली गंगा के तराई इलाकों के लिए एक ‘देहलीज़’ था. कुछ लोगों का मानना है कि दिल्ली का नाम तोमर राजा ढिल्लू के नाम पर दिल्ली पड़ा. एक राय ये भी है कि एक अभिषाप को झूठा सिद्ध करने के लिए राजा ढिल्लू ने इस शहर की बुनियाद में गड़ी एक कील को खुदवाने की कोशिश की. इस घटना के बाद उनके राजपाट का तो अंत हो गया लेकिन मशहूर हुई एक कहावत, किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतीहीन, जिससे दिल्ली को उसका नाम मिला.भारत के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा शहर इतनी बार बसा और उजड़ा, जितनी बार शहर दिल्ली.
माना जाता है कि 1450 ईसा पूर्व 'इंदरपथ' (इंद्रप्रस्थ) के रुप में पहली बार पांडवों ने दिल्ली को बसाया. इस आधार पर दिल्ली तीन से साढ़े तीन हज़ार साल पुराना शहर है. इंद्रप्रस्थ वो जगह थी जहां हम आज पुराने किले के खंडहर देखते हैं. नीली छतरी और सूर्य मंदिर के किनारे बने निगमबोध घाट के रुप में इंद्रप्रस्थ की तीन निशानियां आज भी हमारे बीच मौजूद हैं.
1000 ईसवी से अंग्रेज़ों के शासनकाल तक दिल्ली पर ग़ौरी, ग़ज़नी, तुग़लक, खिलजी और कई मुग़ल शासकों का राज रहा.
इस दौरान हर शासक ने अपनी बादशाहत साबित करने के लिए दिल्ली में अलग-अलग शहरों को बसाया.
दिल्ली के सात शहर
लाल कोट, महरौली, सिरी, तुग़लकाबाद, फ़िरोज़ाबाद, दीन पनाह और शाहजहानाबाद नाम के ये सात शहर आज भी खंडहर बन चुकी अपनी निशानियों की ज़बानी दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानियां कहते हैं.
दिल्ली भले ही हमारे दिलो-दिमाग़ पर राजधानी के रुप में छाई हो लेकिन इतिहास गवाह है कि मुग़लों के दौर में भी जो रुतबा आगरा और लाहौर का रहा वो दिल्ली को कम ही नसीब हुआ.
ये सिलसिला आखिरकार 1911 में ख़त्म हुआ जब अंग्रेज़ प्रशासित भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा हुई. इसी के साथ शुरु हुई ‘शाहजहानाबाद’ यानि पुरानी दिल्ली को 'नई दिल्ली' का रुप देने की क़वायद.
पुरानी दिल्ली के लिए क्या कुछ बदलने वाला था इसकी आहट दिल्ली दरबार की तैयारियों पर एक नज़र से मिलती है.
गहरा राज़
1911 में हुए दिल्ली दरबार का ये वो दौर था जब अंग्रेज़ों का विरोध शुरु हो चुका था और कलकत्ता इन गतिविधियों का गढ़ बन रहा था. स्वराज की सुगबुगाहट के बीच किंग जॉर्ज पंचम ने भारत की जनता से सीधा रिश्ता कायम करने की नज़र से अपने राज्याभिषेक के लिए दिल्ली दरबार सजाया. लेकिन एक तीर से दो निशाने साधते हुए इस अवसर पर दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित करने का निर्णय अंतिम समय तक एक राज़ रखा गया."''अंग्रेज़ों ने जब दिल्ली के बारे में सोचा तो उन्हें लगा कि ये बेहद सुंदर शहर है और इसका इतिहास इतना पुराना है कि इसे राजधानी बनाने के ज़रिए वो भी इस इतिहास से जुड़ जाएंगे. किसी ने उन्हें यह भी याद दिलाया कि दिल्ली में जो राज करता है बहुत दिन तक उसका राज्य टिकता नहीं लेकिन अंग्रेज़ अपना मन बना चुके थे.'' "
नारायनी गुप्ता इतिहासकार
अंग्रेज़ी सरकार नहीं चाहती थी इस
महत्वपूर्ण आयोजन में कोई भी चूक रंग में भंग डाले.ये आयोजन जिस शानो-शौकत और सटीक योजनाबद्ध तरीके से किया गया उसका आज भी कोई सानी नहीं.
आयोजन इतना भव्य था कि इसके लिए शहर से दूर बुराड़ी इलाके को चुना गया और अलग-अलग राज्यों से आए राजा-रजवाड़े, उनकी रानियां, नवाब और उनके कारिंदों सहित भारतभर से 'अतिविशिष्ट' निमंत्रित थे.
लोगों के ठहरने के लिए हज़ारों की संख्या में लगाए गए अस्थाई शिविरों के अलावा दूध की डेरियों, सब्ज़ियों और गोश्त की दुकानों के रुप में चंद दिनों के लिए शहर से दूर मानो एक पूरा शहर खड़ा किया गया.
जॉर्ज पंचम और क्वीम मैरी की सवारी चांदनी चौक में आम लोगों के बीच से गुज़री ताकि जनता न सिर्फ़ अपने राजा को एक झलक देख सके बल्कि अंग्रेज़ी साम्राज्य की शानो-शौकत से भी रूबरू हो. जिस रास्ते से किंग जॉर्ज और क्वीन मैरी का काफ़िला गुज़रा वो आज भी किंग्सवे-कैंप के रुप में जाना जाता है.
लाइटों से जगमगा उठी दिल्ली
दरबार के अगले दिन राजधानी बनी दिल्ली, जश्न के रुप में लाइटों से जगमगा उठी और इस मौके पर अंग्रेज़ प्रशासन ने आम लोगों से भी अपने घरों को रौशन करने का आग्रह किया. इसके लिए शहर में अतिरिक्त बिजली का विशेष इंतज़ाम किया गया था.
1911 की उस ऐतिहासिक घोषणा के बाद अंग्रेज़ों ने नई दिल्ली को नींव रखी और इस शहर को देश की राजधानी का जामा पहनने की जो कवायद शुरु की वो आज तक जारी है.
विशालयकाय भवन, चौड़ी सड़कें, दफ्तर, क्वार्टर, विश्वविद्यालय हर तरफ़ अंग्रेज़ अपनी छाप छोड़ना चाहते थे और इसकी जीती जागती निशानियां बनीं 'वायसराय हाउस' और 'नेशनल वॉर मेमोरियल' जैसी इमारतें जिन्हें हम आज 'राष्ट्रपति भवन' और 'इंडिया गेट' के नाम से जानते हैं.
दिल्ली की इस कायापलट पर इतिहासकार नारायनी गुप्ता कहती हैं, ''अंग्रेज़ों ने जब दिल्ली के बारे में सोचा तो उन्हें लगा कि ये बेहद सुंदर शहर है और इसका इतिहास इतना पुराना है कि इसे राजधानी बनाने के ज़रिए वो भी इस इतिहास से जुड़ जाएंगे. किसी ने उन्हें यह भी याद दिलाया कि दिल्ली में जो राज करता है बहुत दिन तक उसका राज्य टिकता नहीं लेकिन अंग्रेज़ अपना मन बना चुके थे.''
क्या ये वही दिल्ली है?
तब से आजतक ये शहर अपने शासकों की महत्वाकांक्षा और उनकी राजनीतिक मंशाओं पर ख़रा उतरने की होड़ में आगे बढ़ता रहा है. भले ही इस क्रम में अकसर यहां रहने वालों की ज़रूरतें पिछड़ गईं.लेकिन सवाल ये है कि ये दिल्ली क्या वही दिल्ली है जिसका सपना कभी शाहजहां ने देखा था, वो दिल्ली जिसे अंग्रेज़ों ने बड़ी हसरत से अपने रंग में रंगा, वो दिल्ली जो आज़ाद भारत के लिए जिजीविषा और राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गई है.
सवाल ये भी है कि राजधानी होने के नाते दिल्ली पर ‘राष्ट्रीयता’ का भार कहीं इतना तो नहीं कि उसकी अपनी पहचान, उसकी संस्कृति इसके बोझ तले कहीं दब कर रह गई है. सवाल ये भी कि राजीव चौक, लाजपत नगर और विवेकानंद मार्गों के बीच दिल्ली में ‘अमीर-ख़ुसरो रोड’ या ‘ग़ालिब-गली’ के लिए कोई जगह क्यूं नहीं है.
बीबीसी की विशेष श्रंखला 'दिल्ली: कल आज और कल' इन्हीं सवालों के जवाब की एक कड़ी है.
ये कहानी है एक ऐसी राजधानी की जो अपने गदले-मैले कपड़ों को मखमल के शॉल में छिपाए हर मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है.
(अगले अंक में पढ़िए राजधानी की घोषणा के बाद कैसे बदली ब्रितानियों ने दिल्ली की प्रशासनिक और वास्तुकलात्मक शक्ल)
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