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- Created on Thursday, 01 December 2011 18:37
- Written by मधुकर मिश्र
नई दिल्ली के सौ सालाना जलसे के बारे में 86 साल के वयोवृद्घ कॉमरेड आनंद गुप्त कहते हैं कि हम अंग्रेजों के शासनकाल वाली राजधानी के सौ साल आखिर क्यों मनाएं, वह तो गुलामी के शासनकाल की राजधानी थी। उनका कहना है कि कुछ लोग हैं जो किसी-न-किसी दिन को किसी-न-किसी तरह से मनाने की सोचते रहते हैं।
सात बार उजड़ने और सात बार बसने वाले इस प्राचीन शहर की रूपरेखा बदलने की जिम्मेदारी सन् 1911 में ब्रिटिश वास्तुशिल्पी एड्विन लुटियंस को सौंपी गई थी। तय हुआ था कि रायसीना की पहाड़ियों में एक नया शहर बसाया जाएगा। इतिहासकार बताते हैं कि इससे पहले यह जानने के लिए एक आयोग बनाया गया था कि क्या दिल्ली देश की राजधानी बनने के लिए उपयुक्त शहर होगा? उसकी रिपोर्ट में उस समय यह कहा गया था कि यह इलाका पचास साल के भीतर रेगिस्तान बन जाएगा। बावजूद इसके अंग्रेजों ने भारत पर हुकूमत करने के लिए इस केंद्र को ही राजधानी बनाने के लिए चुना। उस समय रायसीना की पहाड़ियों पर छोटे-छोटे गांव बसे थे, जिनमें मालचा, रायसीना, टोडापुर, अलीगंज, पिलंजी, जयसिंहपुरा आदि थे। लुटियंस और हर्बर्ट बेकर की चमचमाती नई दिल्ली आज उन्हीं गांवों पर बसी हुई है, जिन गांपों में उस समय जाट, गुज्जर, मुस्लिम, ब्राह्मण और ईसाई समुदाय के लोग रहा करते थे। ये लोग खेती-किसानी, पशुपालन या फिर शाहजहांनाबाद (शाहजहां की बसाई पुरानी दिल्ली) के बाजार में काम करके रोजी- रोटी कमाते थे। नई राजधानी की नींव भले ही रायसीना हिल्स में रखी गई हो लेकिन इस ऐतिहासिक फैसले का ऐलान बुराड़ी के पास कोरोनेशन ग्राउंड में किया गया था। जहां पर सौ साल पहले बाकायदा दिल्ली दरबार लगा था और जॉर्ज पंचम की भारत के बादशाह के रूप में ताजपोशी हुई थी। यह अजब इत्तफाक था कि जिस दौरान अंग्रेज नई दिल्ली की रचना में जुटे हुए थे, उस समय हिंदुस्तानी क्रांतिकारी दल उन्हें देश से भगाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन छेड़ रखा था। दिल्ली की चारदीपारी के बाहर कनॉट प्लेस, इंडिया गेट, रायसीना पहाड़ी पर साउथ ब्लॉक, पर्तमान राष्ट्रपति भपन, पर्तमान संसद का भप्य निर्माण हुआ, जहां से आज हमारे हुक्मरान पूरे देश को देखते और चलाते हैं। 1927 में लुटियंस द्वारा तैयार किए गए इस शहर का नाम नई दिल्ली रखा गया, जिसका बाद में ब्रिटिश भारत के गपर्नर जनरल लॉर्ड इरपिन ने 13 फ़रपरी, 1931 को उद्घाटन किया।
बीते सौ साल में भले ही नई दिल्ली 4,14,000 के मामूली कस्बे से 1.70 करोड़ नागरिकों वाला महानगर बन चुकी हो लेकिन एक दौर वह भी था जब यह शहर सिर्फ पुरानी दिल्ली तक ही सिमटा हुआ था। इसके चारों ओर घना जंगल फैला हुआ था। सिविल लाइंस, कश्मीरी गेट और दरियागंज में तब शहर के कुलीन लोग रहा करते थे। जिस समय नई दिल्ली को बसाया जा रहा था, उस समय कनॉट प्लेस को आबाद करने के लिए शाहजहांनाबाद के व्यापारियों को तमाम तरह के प्रलोभन दिए गए थे लेकिन यहां के लोगों ने इन गलियों वाले बाजार को नहीं छोड़ा। अंग्रेजों के दबाव में जो लोग गए भी, उन्होंने अपना कारोबार यहां से जारी रखा। न सिर्फ व्यापारी बल्कि आम आदमी भी इस क्षेत्र से दूर नहीं गया। बहुमंजिली इमारतें जब बननी शुरू हुईं तो कुछ लोग यहां से बाहर निकले, लेकिन उन्हें फलैट संस्कृति रास नहीं आई और वे वापस यहीं आकर इन्हीं संकरी गलियों में बस गए।
जिस पुरानी दिल्ली में लाल किला स्थित है, उस शहर को बादशाह शाहजहां ने बसाया था, इसलिए इस शहर का नाम शाहजहांनाबाद पड़ा। चांदनी चौक क्षेत्र का डिजाइन शाहजहां की बेटी जहांआरा ने तैयार किया था। भले ही इस भीड़भाड़ वाले इलाके में आज यहां पर फुटपाथ नजर आता हो, लेकिन एक दौर था जब यहां पर क्यारियां होती थीं और फव्वारे चला करते थे। भले ही आज यहां जमीन के नीचे मेट्रो और सड़कों के ऊपर चमचमाती गाड़ियां और रिक्शों का रेला नजर आता हो, लेकिन एक समय इसी जगह कभी ट्राम भी चला करती थी। यहां पर लगने वाला बाजार पहले भी उतना गुलजार रहा करता था, जितना कि आज है। फिर चाहे मारवाड़ियों को सबसे पुराना बाजार चावड़ी बाजार हो या फिर दरीबा कलां। सौ साल की दिल्ली के इस चार सौ साल पुराने बाजार में समय के साथ यहां का ट्रेंड भी बदला है। एक समय दिल्ली के लोग यहां के प्रमुख बाजारों जैसे चांदनी चौक, कमला मार्केट, जामा मस्जिद, लाल किले के पास लगने वाले हाट-बाजारों में खरीदारी किया करते थे, लेकिन अब वे अपनी जरूरत का सामान अपनी किसी कॉलोनी के बाजार में या फिर बड़े-बड़े मालों में करने लगे हैं। दिल्ली के दस बड़े बाजारों में से एक कमला मार्केट को 1980 तक मिनी कनॉट प्लेस कहा जाता था, उसमें भी अब काफी बदलाव आ चुके हैं।
साव के दशक में जब कनॉट प्लेस का बाजार लोगों की जरूरतें पूरी करने में अक्षम साबित होने लगा तो 1962 के मास्टर प्लान में शहर के भीतर सात डिस्ट्रिक्ट सेंटर बनाने की योजना बनी। अस्सी के दशक की शुरुआत में जो सबसे पहले डिस्ट्रिक्ट सेंटर तैयार हुआ, वह नेहरू प्लेस कहलाया। इसे आज तमाम कंपनियों के ऑफिस और आइटी हब के रूप में जाना जाता है। दिल्ली के लोगों को बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पाद सस्ते दामों में उपलब्ध कराने के लिए 1966 में देश का पहला सुपर मार्केट कनॉट प्लेस के शंकर मार्केट में सुपर बाजार के रूप में बना। आर्थिक अव्यवस्था के चलते इसे सत्तर के दशक में काफी नुकसान उवाना पड़ा और अंतत: 2001 में इसे बंद कर दिया गया। साव के ही दशक में निरूलाज ने पहली बार स्वचालित मशीन से सॉफटी की बिक्री शुरू की, जिसकी उस समय कीमत मात्र आठ आना यानी पचास पैसा हुआ करती थी। साठ के दशक में ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, श्रीराम सेंटर और देश का पहला 70 एमएम स्क्रीन वाला सिनेमाहॉल शीला भी बनकर तैयार हुआ।
सत्तर-अस्सी के दशक में दिल्ली में जब बदलाव की बयार बही तो मानो इस शहर को पंख लग गए। 1978 में देश का पहला भूमिगत वातानुकूलित बाजार पालिका बाजार कनॉट प्लेस के बीचोंबीच बनकर तैयार हुआ, जहां कभी थियेटर कम्युनिकेशन नामक चर्चित बिल्डिंग और उस समय का सबसे भीड़ भरा कॉफी हाउस हुआ करता था। सत्तर के ही दशक में चाणक्य सिनेमा, छतरपुर मंदिर और दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश में नोएडा बनकर तैयार हुआ।
इसी तरह अस्सी के दशक में प्रगति मैदान, अप्पू घर और इस समय अपने पच्चीस साल पूरे करने वाला प्रसिद्घ लोटस टेंपल भी तैयार हुआ। 1983 में ही आम आदमी की मारुति कार सड़कों पर उतरी।
कहते हैं कि किसी भी शहर को जानने के लिए उसके भीतर जाकर देखना होता है। इसके लिए आपको जरूरत एक वाहन की होती है। बीते सौ सालों में यहां के लोगों ने बग्घी, ट्राम से लेकर मेट्रो तक के सफर का लुत्फ उठाया है। 25 नवंबर को अपने जीवन के 85 साल पूरे करने वाले आनंद गुप्ता बताते हैं कि मैंने दिल्ली में ट्राम बनती हुई तो नहीं देखी, लेकिन उसे उजड़ते हुए जरूर देखा है। सन् 50 के लगभग इसका डिपो श्रद्घानंद बाजार के पीछे हुआ करता था। उस समय ट्राम श्रद्घानंद डिपो से निकलकर खारी बावली होकर पूरे चांदनी चौक का चक्कर लगाया करती थी। जामा मस्जिद, काजी हॉल, फराशखाना, फतेहपुरी जाया करती थी। इसी तरह लाहौरी गेट को पार करके अजमेरी गेट और बाड़ा हिंदूराव तक जाती थी। दूसरी लाइन सेंट स्टीफेंस हॉस्पिटल से चला करती थी। उस समय एक आना किराया हुआ करता था और वह इतने धीरे चला करती थी कि लोग चलते-चलते उसमें चढ़ जाया करते थे, हालांकि भीड़ तो उस जमाने में भी हुआ करती थी। उन दिनों ट्राम के अलावा 2-3 ट्राली बसें चला करती थीं, जो कि वहां से गुड़ मंडी यानी आज के आजादपुर आया-जाया करती थीं। लेकिन आज सूरज उगने से लेकर आधी रात तक 30 लाख लोगों को अपनी मंजिल पर पहुंचाने के लिए दिल्ली की सड़कों पर डीटीसी की लो फलोर बसें मौजूद हैं। सीएनजी द्वारा चलने वाली दुनिया की यह सबसे बड़ी बस सर्विस है। इसी तरह लगातार बढ़ते ट्रैफिक के बोझ से निजात पाने के लिए मेट्रो का सपना भी राजधानी के लोगों का साकार हो चुका है। कुछ साकार होने की प्रक्रिया में है, लेकिन दोनों के बीच अभी भी फर्क बाकी है। मेट्रो पर चढ़ने वाला आम आदमी यात्री कहलाता है और बस में चढ़ने वाला आदमी सवारी कहलाता है। बावजूद इसके, अभी भी मेट्रो दिल्ली की लाइफलाइन यानी डीटीसी का विकल्प नहीं साबित हो पाई है और हर खासोआम को इसका सहारा कभी-न-कभी लेना ही पड़ता है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों से दिल्ली आने वाली बसों के लिए अंतरराज्यीय बस अड्डा 1976 में बना। राजधानी के सबसे पुराने इस बस अड्डे में प्रतिदिन लगभग एक से डेढ़ लाख लोग आते हैं। यहां से प्रतिदिन लगभग ढाई हजार बसें विभिन्न राज्यों के लिए चलती हैं। इस बस अड्डे का कायाकल्प करने के लिए इन दिनों काम चल रहा है। इसके अलावा भी पूर्वी दक्षिणी दिल्ली के लिए सराय काले खां और आनंद विहार बस अड्डे बने हैं।
पल-पल बदलती दिल्ली में 1982 में हुए एशियाड और 2011 में कॉमनवेल्थ गेम ने अपनी अहम भूमिका अदा की है। दिल्ली को चमकाने के लिए नए स्टेडियम, नए पांच सितारा होटल, नए फलाइओवरों के निर्माण के बाद विश्व स्तर पर दिल्ली की साख कुछ बढ़ी है। वैसे देश को पहला पांच सितारा होटल तब हासिल हुआ, जब देश की राजधानी दिल्ली में 1956 में सरकार द्वारा निर्मित अशोक होटल बनकर तैयार हुआ। आधुनिक जरूरतों को जेहन रखते हुए इसमें ठहरने के लिए 550 कमरे हैं। इसके बाद दिल्ली में ताज पैलेस, ली मेरिडियन, हयात रेजीडेंसी, रेडिसन, मौर्या शेरेटन, ओबरॉय जैसे एक से एक शानदार होटल भी देश-दुनिया से आने वाले पर्यटकों की आवभगत के लिए बने हैं। पचास के ही दशक में जहां सुप्रीम कोर्ट, विज्ञान भवन, भारतीय नाट्य विद्यालय तैयार हुआ। इसी दशक में दिल्ली गोल्फ क्लब, इंडिया कॉफी हाउस, चिड़ियाघर और दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के द्वार आम लोगों के लिए खोल दिए गए। 1944 से बननी शुरू हुई दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को तैयार करने के लिए जब जनरल सर क्लाउड ने उस समय के जाने-माने उद्योगपति रामकृष्ण बिड़ला से मुलाकात की, तो वे तुरंत इसके लिए हर संभव मदद देने के लिए तैयार हो गए। 1951 में बनी 8000 पुस्तकों वाली इस लाइब्रेरी में इस समय लगभग 18 लाख पुस्तकें हैं। अप्रैल 1951 में सर गंगाराम अस्पताल और 1956 में भारत का पहला अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) बनकर तैयार हुआ। आज भी यह अत्यंत ख्यात वाला सरकारी अस्पताल है और स्वास्थ्य के मामले में एक मानक माना जाता है। हालांकि तमाम शिकायतें भी हैं। इसी दशक में पहले एशियन गेम्स में 52 पदक हासिल करके भारत दूसरे स्थान में रहा।
महाभारत काल से लेकर मुगलकाल तक, अंग्रेजों के समय से लेकर आजादी के बाद तक दिल्ली ने अनेकों उतार-चढ़ाव देखे हैं। हर दौर में दिल्ली अपने एक अलग ही रूप में नजर आई। रियासतें बदलती रहीं, लेकिन दिल्ली की रौनक हमेशा बरकरार रही। लुटियंस द्वारा तैयार की गई इस नई दिल्ली को अंग्रेजों के समय से ही शाही शानो-शौकत के लिए जाना जाता रहा है। यहां आज भी तमाम राजनेताओं के विशाल आवास के साथ देश के प्रमुख रईसों के रैन बसेरे हैं। दिल्ली के सबसे पॉश इलाके यानी लुटियंस जोन के तकरीबन एक किलोमीटर से भी कम के दायरे में देश के कारोबारी जगत में अपना दबदबा रखने पाले बड़े-बड़े उद्योगपतियों के घर हैं। इसमें स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल, जिंदल बंधु, बिड़ला, डालमिया, मोदी, सिंघानिया, रुइयां आदि शामिल हैं। लेकिन यह जानकर आश्चर्य ही होता है कि लुटियंस की इस दिल्ली में अंबानी बंधु और रतन टाटा का नाम नहीं है। उन्होंने मुंबई के मुकाबले दिल्ली को महत्व देना जरूरी नहीं समझा।
चमचमाती, भागती-दौड़ती इस दिल्ली शहर की जितनी ऊंची इमारतें हैं, उतने ही ऊंचे यहां पर आने वाले तमाम प्रांतों के लोगों के सपने हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए वे हर दिन यहां पहुंचते हैं और किसी न किसी हद तक अपने सपने साकार भी करते हैं। हालांकि कुछ हार-थक कर तथा कुछ और लोग जीवन की नई ऊंचाइयां हासिल करने के लिए मुंबई से लेकर लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क चले जाते हैं। दिलवालों की दिल्ली ने भी दिल खोलकर परप्रांतीय लोगों का खूब स्वागत करते हुए यहां गुजर-बसर करने की जगह दी है, यही कारण था कि भले ही इस शहर की अपनी कोई संस्कृति होने की बात अक्सर कही जाती हो, लेकिन मिली-जुली गंगा-जमुनी संस्कृति ने इसे एक अलग ही स्थान दिया है। यही कारण है कि यहां होने वाले उत्सवों में कथकली से लेकर भांगड़ा तक, पराठे से लेकर पिज्जा तक जोर-शोर से बिकता-चलता है। दिल्ली ने हर उस शख्स को अपने में समाहित किया है जो अपनी संस्कृति-सभ्यता और परंपरा के साथ यहां पर आया। इन सौ सालों में जो प्रवासी आए उन्होंने इस शहर की इंद्रधनुषी संस्कृति को अपना लिया और यहां की फिजां में पूरी तरह रच-बस गए। यहां की तेज गति में विलीन होते गए। हालांकि उनकी क्षेत्रीय संस्कृति बीते कुछ सालों में तेजी से फलती-फूलती नजर आ रही है। दिन ब दिन बदलती इस दिल्ली में जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो हमें गर्व और गम दोनों होता है। मसलन आज जहां इतना समय बीतने के बाद भी दिल्ली हरी-भरी तो है लेकिन उसका सुकून, लोगों के बीच अपनापन कहीं दूर होता चला गया है। भले ही दिल्ली का भौगोलिक दायरा बढ़ता जा रहा हो लेकिन आत्मिक दायरा सिमटता जा रहा है। अपने भी अब अपने नहीं लगते और पराये और ज्यादा पराये हो चुके हैं। यहां की हृदयहीनता यहां के समृद्घ नवधानाढ्य लोगों की संस्कृति भी कुख्यात है। दिलवालों की दिल्ली में शहर की दीवारों से ऊंची उनके दिलों की दीवारें बन चुकी हैं।
इस शहर में जितनी तेजी से बुनियादी सुविधाओं के लिए काम हो रहा है, उतनी ही तेजी से इस शहर की जरूरतें भी बढ़ती जा रही हैं। यही कारण है कि आज यह शहर अपनी योजना से तकरीबन 10-15 साल पीछे चल रहा है। इंटेक में दिल्ली क्षेत्र पर काम करने वाले संयोजक एजीके मेनन के अनुसार ज्ज्जब अंग्रेजों ने नई दिल्ली की रूपरेखा बनाई थी तो उस पर उनका पूरा नियंत्रण था, लेकिन आज तमाम प्रांतों से आने वाले लोगों को यहां आने से नहीं रोका जा सकता। जो रोजी-रोजगार के लिए यहां आते हैं, स्वाभाविक है यहीं बस जाते हैं। 1962 में जब पहली बार मास्टर प्लान बना तो पचास लाख लोगों के लिए योजना बनी थी लेकिन आज यह संख्या एक करोड़ सत्तर लाख तक पहुंच गई है। ऐसे में दिल्ली जैसे शहर में टाउन प्लानिंग करना बहुत कठिन काम बन चुका है। यह दुखद है कि हम अभी तक अपनी सोसायटी को अंग्रेजों के चश्मे से देखते हैं और आज भी कुलीन लोगों को ध्यान में रखकर ही योजनाएं बनाते हैं। हमारे यहां आज एचआइजी, एमआइजी, एलआइजी और ईडब्ल्यूएस अलग-अलग सोसाइटी डेवलप की जाती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे अंग्रेज व्हाइट टाउन और ब्लैक टाउन बनाया करते थे। ब्रिटिश काल में प्लानिंग ऊपर से नीचे हुआ करती थी। जो भी वे योजना बनाते, उसे नीचे के लोगों को मानना ही पड़ता था। पैंसठ साल बीत जाने के बाद आज भी हमारी वही स्थिति है। आज सच यह बन चुका है कि शहर को सुंदर बनाने के नाम पर जमीन माफिया को करोड़ों-अरबों की जमीन भेंट में दी जा रही है और वहां बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतें बन रही हैं। गरीबों को पैरों से, हाथों से हर तरह से ठेलकर बाहर किया जा रहा है।
यह शहर तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक घटनाओं का पुराना गवाह रहा है। जिस नई दिल्ली में लोकतंत्र की बुनियाद रखी गई थी, उसी दिल्ली ने इमरजेंसी से लेकर 84 के दंगे तक का दर्द भी सहा है। दिल्ली के तख्त पर राज करने के लिए यहां हजारों-लाखों हिंदू-मुसलमानों का खून बहा तो दूसरी तरफ इसकी सूरत बदलने के लिए भ्रष्टाचार की गंगा में तमाम लोगों ने हाथ भी खूब धोए हैं। इस शहर ने गांधी से लेकर अण्णा के आंदोलन की आंधियां झेली हैं। इन दिनों यह शहर दिल्ली नगर निगम में बड़े बदलावों के कारण चर्चा में है। देश की राजधानी में तीन नगर निगम का विधान पूरे देश में एक नया प्रयोग है। माना जा रहा है तीन टुकड़ों में बांटने के बाद लोगों की जरूरतें जल्दी पूरी होंगी और राजधानी का विकास तेजी से होगा। बहरहाल, जिस दिल्ली को लेकर आज हम वर्ल्ड हेरिटेज सिटी बनाने का ख्वाब बुन रहे हैं, वह अपने पर्तमान का प्रबंधन और अपने भपिष्य की योजना कैसे बना पाती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
मधुकर मिश्र की यह रिपोर्ट मैग्जीन 'शुक्रवार' में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित हो चुकी है.
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