- 5 अक्तूबर 2014
प्रस्तुति-- आमेश शर्मा,राज शाह
पंजाब
भारत के उन राज्यों में है जहाँ लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों की संख्या
सबसे कम है. भारत के जिन राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या सबसे अधिक होती है
उनमें भी पंजाब का नाम शुमार होता है.
पंजाब की रहने वाली 80 वर्षीय जगत कौर अपने मायके में तक़रीबन 40 साल बाद आई हैं. उनके मायके के सभी लोग शहरों में चले गए हैं.एक ही गांव में पैदा होने और साथ पढ़ने के बावजूद जसविंदर कौर और जसवीर कौर 22 साल बाद मिली हैं. बचिंत कौर 70 साल की हैं और 20 साल बाद मायके आई हैं.
गुरुदेव कौर ने बताया कि उनकी शादी देश के बंटवारे के दो साल बाद हुई थी. वह ख़ुशी-ग़म के मौक़ों पर मायके आती रहती हैं पर बचपन की सहेलियों से शादी के बाद पहली बार मिली हैं.
गुरुविंदर और जसवीर जैसी ढेरों सहेलियों को मिलाया एक ऐसे मेले ने जिसका आयोजन लड़कियों ने किया और उसमें शामिल भी केवल लड़कियाँ ही हुईं.
पढ़ें पूरी रिपोर्ट
पंजाब के पटियाला ज़िले में नाभा तहसील का गांव थूही इन सारी लड़कियों का गांव है.यहाँ यह 'बेटियों की मिलनी' नाम के मेले में शामिल होने पहुंची हैं.
गांव में रह रही लड़कियों ने मेले में शादी के बाद इस गांव को छोड़ चुकी लड़कियों को बुलाया है.
लड़कियों की सामर्थ्य
थूही गांव की लड़कियों को ऐसा मेला लगाने का विचार लुबाना गांव की लड़कियों से आया, जिन्होंने सबसे पहले ढूंढ-ढूंढ कर गांव की लड़कियों को तकरीबन एक हज़ार गांवों से बुलाया था.इस मेले की ख़ास बात मेज़बान और मेहमान लड़कियों का होना है. मंच पर लड़कियां गीत, संगीत, नाटक और भाषण पेश करती हैं.
अगर पांचवीं जमात की शबनम ने नृत्य पेश किया तो 20 वर्षीय नाज़िया व्यवस्था में लगी तमाम लड़कियों की प्रधान हैं.
इस मेले को पंजाब यूनिवर्सिटी की दो शोधार्थी हरप्रीत कौर और हरसुमित कौर देखने आई हैं.
हरप्रीत कहती हैं, "यूनिवर्सिटी जो पढ़ाने का दावा करती हैं वह इस मेले ने असल में कर दिखाया है. इतनी लड़कियों को इस बड़े स्तर पर मेले का आयोजन करने का मौका मिला और उन्होंने अपनी सामर्थ्य को साबित कर दिया है."
मानवीय अहसास
हरसुमित कहती हैं, "बचपन की सहेलियों से मिलना मानवीय अहसास है. इस अहसास को इस मेले ने ज़िंदा कर दिया है."लड़कियों के मेले की अहमियत को गांव के गुरमीत सिंह थूही पंजाब के प्रसंग में देखते हैं.
गुरमीत कहते हैं, "यह मेला लड़कियों की गांव पर दावेदारी को मज़बूत करता है और उनके समाजिक रुतबे को बराबर करने की तरफ क़दम है."शायद, इसीलिए बचिंत कौर पूरे गांव की भलाई मांगने वाला गीत गाती हैं और कहती हैं कि 20 साल बाद उनका मायका ज़िंदा हो गया है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें