मंगलवार, 9 नवंबर 2021

देव छठ पर्व का अपने गर्भ में समेटे हुए इतिहास

 देव, त्रेतायुगीन देव सूर्यमंदिर और कालजयी इतिहास

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 देव अपने आप में अद्भुत कालजयी इतिहास समेटे है। कितने आये, कितने गए, पर देव, देव ही है। देव का अपना इतिहास है, अर्थात देवताओं के इतिहास से शुरू हुआ देव और उसका कालजयी इतिहास। इस इतिहास में  अनंत गाथायें भी है, कुछ प्रकट है, कुछ अप्रकट है, कुछ गाथाओं में चर्चित है। अभी भी देव का इतिहास खोज का विषय है। यथार्थ के अनसुलझे रहस्य जो बड़े केंद्र है, वह आस्थाओं पर टिक नहीं पाते।  बहरहाल, देव जो आस्थाओं में समेटे है, वह देव की गौरवशाली अतीत के पृष्टभूमि को जरूर परिलक्षित करती है।

देव सूर्य मंदिर ही नहीं, आध्यात्मिक मार्ग पर कभी शीर्षस्थ था।  भगवान राम का सीता के साथ आगमन, कृष्ण का साम्ब के साथ आना, पांचों पांडवों का आना, गौतमबुद्ध का आना, जगद्गुरु शंकराचार्य, बाण भट्ट, मयूर भट्ट, राहुल सांकृत्यायन सहित अनेक इतिहास कारों, अन्वेषण कर्ताओं, खोजी फक्कड़ लोगों का आना यहां संस्कृति विरासत की पहचान रही है। सूर्योपासना के बहाने आध्यामिक ज्ञान की गंगा यहां सदैव से प्रवाहित रहा है।


यहां करीब एक सौ फुट ऊंचा देव सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किये आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार कई रूपों और आकारों में काटे गये पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी है।


जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं, जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है लेकिन इसके निर्माण के संबंध में अभी भी भ्रामक स्थिति बनी हुई है। निर्माण के मुद्दे को लेकर इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के बीच चली बहस से भी इस संबंध में ठोस परिणाम प्राप्त नहीं हो सका है।


सूर्य पुराण से सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार ऐल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ से पीड़ित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गये। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखायी पड़ा, जिसके किनारे वे पानी पीने गये और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गये कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गये और इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह जाता रहा। 

अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने इसी वन प्रांतर में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया और रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमें प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ।


कहा जाता है कि राजा ऐल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुण्ड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऐसा लगता है मानो बाद में स्थापित की गयी हो। मंदिर परिसर में जो मूर्तियां हैं, वे खंडित तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।


 मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था और कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूरब की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी उषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।


जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों और मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को कृपया न तोड़े क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला- यदि सचमुच में तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं और यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाये तो मैं इसे नहीं तोडूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रातभर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है।


कहा जाता है कि एक बार एक चोर मंदिर में आठ मन (एक मन 40 किलोग्राम के बराबर) वजनी स्वर्ण कलश को चुराने आया। वह मंदिर के ऊपर चढ़ ही रहा था कि उसे कहीं से गड़गड़ाहट की आवाज सुनायी दी और वह वहीं पत्थर बनकर चिपक गया। आज लोग सटे चोर की ओर अंगुली दिखाकर बताते हैं। इस संबंध में पूर्व सांसद प्रख्यात साहित्यकार एवं देव के बगल के ही गांव भवानीपुर के रहने वाले स्व, शंकर दयाल सिंह का मानना था कि इसके दो कारण हो सकते हैं। उनमें एक यह कि कोई सोना चुराने नहीं आये, इसलिए यह किंवदंति प्रसिद्धि में आयी और दूसरी बात यह कि जिसे चोर की संज्ञा दी जाती है वह देखने पर बुद्ध की मूर्ति नजर आती है। हालांकि यह तस्वीर शेर की मुखड़े के रूप में है।


वहीं, इस मत से भिन्न रुख रखने वालों में पंडित राहुल सांकृत्यायन प्रमुख हैं, जिनके अनुसार यह प्राचीनकाल में बुद्ध मंदिर था जिसे विधर्मियों से भयाक्रांत भक्तजनों ने इसे मिट्टी से पाट दिया था। कहा जाता है कि सनातन धर्म के संरक्षक और संस्कारक शंकराचार्य जब इधर आये तो संशोधित और सुसंस्कृत कर यहां मूर्ति प्रतिष्ठित की। 


पुरातत्व से जुड़े डॉ. के.के. दत्त और पंडित विश्वनाथ शास्त्री ने भी इसकी अति प्राचीनता का प्रबल समर्थन किया है। इस मंदिर के निर्माण से संबद्ध विवाद चाहे जो भी हो, कोई साफ अवधारणा भले ही नहीं बन पायी हो लेकिन इस मंदिर की महिमा को लेकर लोगों के मन में अटूट श्रद्धा एवं आस्था है। यही कारण है कि हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं। भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीन मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो सालों भर देश के विभिन्न जगहों से लोग यहां पधारकर मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्घ्य देने आते हैं लेकिन लोगों का विश्वास है कि कार्तिक एवं चैती छठ व्रत के पुनीत अवसर पर सूर्य देव की साक्षात उपस्थिति की रोमांचक अनुभूति होती है। यहां दो तस्वीरें प्रस्तुत है, एक 50 वर्ष पहले की और एक अब की।  सिर्फ रंग रोगन बदला है, मुख्य छवि जीवंत है।


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