"अत एव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत कर धन-धान्य से संपन्न राज्य को भोग। ये सब शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा।।
द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार।भय मत कर।नि:संदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा। इसलिए युद्ध कर।।
।। श्रीमद्भगवद्गीता ११।३३-३४।।
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भोक्ता,निमित्त कैसे हो सकता है?
वस्तुत:यह तो घटना है।होना है इसलिए अर्जुन को तो निमित्त भाव ही रखना है,न कि भोक्ताभाव।
सब कुछ पहले से परमात्मा का किया हुआ है।
एक अर्थ में सब कुछ गुणों द्वारा किया हुआ है।हर आदमी पूर्व संस्कारों से परिचालित है।
'भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।'
इसका अर्थ भूतकाल चला रहा है सबको।जैसे संस्कार वैसे कर्म,जैसे कर्म वैसे संस्कार।इस तरह भूतकाल की पुनरावृत्ति होती रहती है। तथाकथित भविष्य उसीका हिस्सा है। कोई कल क्या करेगा तो आज उसका स्वभाव देख लेना काफी है।वह कल भी यही करेगा।
महर्षि कहते हैं -सब कुछ पूर्व निश्चित है इसलिए अपने आप में रहो।'
स्व की तरह रहने का वे उपाय बताते हैं -अनुसंधान करो मैं कौन हूं?भीतर गहरे में उतरो और स्व की तरह रहो।यह ईश्वर है अस्तित्व की तरह।'
मैं कौन हूं पूछने वाला मस्तिष्क से उतरकर हृदय में आ जाता है।जो चित्त उच्चाटित होकर मन-बुद्धि में तनावपूर्ण हो रहा था वह हृदय में उतरकर परम आश्वस्त, विश्रामपूर्ण हो जाता है।
ऐसी स्थिति में कर्ता भोक्ताभाव की व्यग्रता हो नहीं सकती,केवल 'उपस्थिति' होती है और यह 'उपस्थिति' अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जहां सब लोग उद्विग्न,आतुर,भागे भागे हों वहां अपनी गहराई में जीनेवाला व्यक्ति अपनी उपस्थिति की छाप छोडेगा ही।चीजें सुधरने लगेंगी। अव्यवस्था, व्यवस्था में बदलने लगेगी।
कोई यह नहीं कह सकता कि उसका कर्म न करना व्यर्थ है, निरर्थक है। वहां और भी बडा कर्म हो रहा है, सर्वोच्च कर्म हो रहा है। कर्ता भोक्ता भाव तो क्षुद्र बना देता है।
सब कुछ पूर्व निश्चित है इसलिए अपने आपमें रहने की बात को पूरा समझना चाहिए।
जो अपने आपमें रहकर जिन सुपरिणामों का हेतु बन जाता है उन्हें पूर्वनिश्चित कहा जाता है मगर यह होता गणित की तरह साफ सुथरा। जो है सो है ,वह घड़ी घड़ी बदलता नहीं।
कोई कह सकता है कि हम अपने आपमें रहें,स्व में रहें,स्वस्थ रहें फिर भी परिस्थितियां नहीं बदली तो?
वह समझता नहीं कि वह क्या कह रहा है?
स्वस्थ आदमी परवाह नहीं करता परिस्थितियों की,वह अपनी परवाह करता है।
अखंडानंदजी जैसे समर्थ महापुरुष ने रमण महर्षि से पूछा-
'ध्यान किसका करें?'
महर्षि ने प्रतिप्रश्न किया-
'पूछ कौन रहा है?'
अखंडानंदजी ने कहा-
'जिज्ञासु।'
महर्षि ने कहा-'जिज्ञासु का ध्यान करो।'
इसका मतलब आपकी चाहे जो भी स्थिति हो।अगर आप क्रोधी हैं तो क्रोधी का ध्यान करें,न कि क्रोध दिलानेवाले व्यक्ति -घटना-परिस्थिति का।
अगर आप भयभीत हैं तो भयभीत का ध्यान करें, भयजनक से ध्यान बिल्कुल हटा लें।
ऐसा क्यों?
क्योंकि ग्रंथि ही समस्या है, उसीमें समाधान है।
मानस में कहा है-
'जड चेतनहि ग्रंथि परी गई।'
हम सब कौन हैं?
हम सब ग्रंथि रुप हैं और हमें सीधे अपने ग्रंथिरुप का ध्यान करना चाहिए।केवल अपने आपका,और किसीका भी नहीं।
और चीजें स्मरण में आती हैं तो कृष्ण अभ्यास तथा वैराग्य का उपाय बताते ही हैं।
कोई पूछ सकता है -अपने ग्रंथिरुप का ध्यान करने से क्या होगा?'
तो यह पूछने से नहीं, करने से पता चलेगा।
अहंकारी अपना ध्यान करे,क्रोधी अपना ध्यान करे, भयभीत,निराश,चिंतित व्यक्ति दृढ रहकर अपना ही ध्यान करे तो उसका ग्रंथिरुप अपने आप छिन्न-भिन्न होने लगेगा।
इस तरह खुद समस्या में समाधान है या समस्या खुद समाधान है-अपने आपसे बचते नहीं फिरते तो।
आदमी अपने आपसे ही तो बचता फिर रहा है झूठे कारणों पर दृष्टि जमाये रखकर।
काई के नीचे ही नदी का जल छिपा हुआ है। देखने वाले को काई ही दीख रही है इसलिए प्यास नहीं बुझ पा रही है।
देखने में रहस्य है।समझे तो सरल है समाधान।और इसकी विशेषता है जो व्यक्ति चाहे जितनी जटिल स्थिति में हो,चाहे जैसी प्रकृति विकृति को अनुभव करता हो वह सीधे स्वयं से शुरू कर सकता है।यह बहुत उपकारी और राहत देने वाला है।
कोई फ़िक्र नहीं।
अहंनिर्भरता, आत्मनिर्भरता का आंतरिक मार्ग प्रशस्त कर देती है।
नकारात्मक ही नहीं, सकारात्मक भी।साहसी साहसी खुद का ध्यान करे,गर्वीला खुद गर्वीले खुद का ध्यान करे।किसी और से तुलना तो करनी है नहीं,जो भी जैसा भी अनुभव होता हो स्वयं का ध्यान करे।
ज्यादातर लोग परेशान, तनावग्रस्त रहते हैं तो उन्हें चाहिए वे परेशान का ध्यान करें, तनावग्रस्त का ध्यान करें।
वह ग्रंथि है।उस पर डटे रहना है बिना दूर दूर भागे।
दूर दूर भागने से ही उसमें स्थित होना संभव नहीं हो पाता।
लेकिन परेशान व्यक्ति अगर उपस्थित रहकर परेशान खुद का ध्यान करे, उसमें टिके तो यह देखकर आश्चर्य होगा कि अपना परेशान रुप छिन्न-भिन्न होने लगा है।जिस अहंकार ने आत्मा को ढंक रखा था वह अहंकार तिरोहित होने लगा है।मैं की जगह स्व झलकने लगा है,स्व प्रकट होने लगा है जिससे स्थितप्रज्ञता ने अपना काम शुरू कर दिया है।
इसी पृथ्वी पर ऐसे अनेक स्व में स्थित महापुरुष हुए हैं।गीता का संदेश यही है-"स्वस्थ:।"
उसमें भोक्ताभाव तो है नहीं फिर वह स्वार्थ से प्रेरित कैसे हो सकता है,वह स्वार्थ पूर्ण कृत्य कैसे कर सकता है?
वह सिर्फ है।
प्रकृति अपना काम करती है।गुण एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं जिससे परिस्थितियां निर्मित होती हैं, घटनाएं घटती हैं।
ऐसे में जो स्थितप्रज्ञ है वह निमित्त की तरह कार्य कर सकता है या तटस्थ साक्षी की तरह रह सकता है जिसका जैसा स्वभाव।
यहां ज्ञानी भी स्वभाव से चलता है मगर उसे उससे कोई आपत्ति नहीं होती।गुण गुणों में बरतते हैं और वह अलिप्त है।
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