शनिवार, 23 सितंबर 2023

गया जी की संगीत परंपरा का इतिहास -

 Part-1



अति प्राचीन ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगरी गया जी की धरा में संगीत रचा बसा है। यहां के संगीत परंपरा की ख्याति दूर देशों तक फैली है। शास्त्रीय और लोक संगीत का सृजन तथा साधना यहां का श्रेयकर माना गया है। संगीत जगत में "ध्रुपद" गायकी विधा का जो आज रूप विश्व पैमाने पर उपलब्ध है, वह गयाजी की ही देन है। यह विधा यहीं मूल रूप से पुष्पित और पल्वित हुई है। 


गयाजी के श्री धनारंग जी ने सर्वप्रथम ध्रुपद गायकी को नया आयाम दिया था। यह कहा जाये कि इस विधा के ये ही जन्मदाता हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। इन्होंने ही सर्व प्रथम इस 'कंठ संगीत' विधा को अपनी सृजनात्मक क्षमता से परवाना चढ़ाया। इतना ही नहीं श्री सारंग जी ने ध्रुपद, धमाल, तिरवट, टप्पा, तराना और मौलिक बंदिशों को भी नया रुप दिया। ये एक अद्वितीय कलाकार के रूप में उभरे। 


इसी समय पूरब देश कोलकाता से "कथक घराना" बनारस के प्रतिभावान कलाकार पंडित राम प्रसाद मिश्र उर्फ रामू जी का गयाजी में आगमन हुआ। उन्होंने इसे और भी उच्च स्तरीय राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्ठापित करने का उल्लेखनीय कार्य किया। वे ध्रुपद, धमार, टप्पा तथा ठुमरी के प्रख्यात गायक के रूप में प्रतिष्ठित रहे।


श्री धनारंग जी के शिष्यों में श्री बच्चू जी ने इस ध्रुपद गायन को छितपाल जी तथा राजाराम मल्लिक जी को साथ रखकर सांस्कृतिक नगरी दरभंगा तक पहुंचाये। 


वहीं पंडित जयराम तिवारी जी के "ख्याल" गायिकी के अनूठे प्रयोग ने शास्त्रीय गायन जगत में राज्य स्तरीय पहचान दिलाई।


गया के रहने वाले पंडित सियाराम तिवारी जी ने इस संस्कृति को अपने प्राणों से प्यारा मानकर अंतिम अवस्था तक इसे जीवित रखा।   


गया जी से सुदूर ग्रामीण अंचल परैया का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक ईश्वरपुर (इसरपुर) गांव शास्त्रीय गायन तथा वादन में पूरे देश में जाना जाता है और आज भी प्रसिद्ध है। 


"सुरों की नगरी" से जाना जाने वाला प्रसिद्ध  गयाजी का यह इसरपुर गांव बिहार सहित देश का नाम रौशन किया है। 


ईश्वरपुर के स्वर्गीय बलदेव उपाध्याय तथा स्वर्गीय वासुदेव उपाध्याय बन्धुओं का पखावज वादन का उन दिनों कोई जोड़ नहीं था। सितार वादन में भी यह गांव शीर्ष पर रहा है। 


वहीं पास का पवई गांव भी संगीत क्षेत्र में अहम भूमिका निभा रखी है।


कहा गया है कि संगीत जीवन की लयात्मक शक्ति होती है। मानव जीवन में संगीत का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह सभ्यता के विकास के साथ-साथ हर युग में मानव विकास के साथ नए आयामों में पुष्पित एवं पल्लवित होता रहा है। 


इस क्रम में अपने जीवन काल में ही सांस्कृतिक विरासत को सुरभित करने में 'सरोज वादक' में श्री नवीन चंद्र सरकार, 'हारमोनियम वादक' में ग्वालियर महाराज के यहां से गयाजी आने वाले में श्री मुनेश्वर दयाल और 'इसराज वादन' में श्री शांति भट्टाचार्य की एक खास पहचान रही है। 


गयाजी की मिट्टी में जन्मे पले मोहम्मद रहीम बक्स- शहनाई वादक, आकाशवाणी पटना, मोहम्मद पीर बख्श- बांसुरी वादक, आकाशवाणी पटना तथा मोहम्मद फही मुल्लाह- मुरली वादक आकाशवाणी पटना, ये तीनों भाइयों ने आकाशवाणी पटना के कार्यक्रमों में स्थायी प्रसारण देकर बिहार को गौरान्वित किया है। 


बांसुरी वादन में श्री मैथिली शरण जी, पखावज वादन में श्री बलदेव महाराज तथा श्री रामजी पाठक तथा वायलिन वादन में श्री पतरष घोष का अमूल्य योगदान रहा  है।


श्री गोवर्धन मिश्र ने गयाजी को शास्त्रीय संगीत परंपरा में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाकर गयाजी का मान बढा़या  है। उन्होंने अपने पिता श्री नरसिंह पाठक से अल्प आयु में ही इसकी शिक्षा ग्रहण की थी। 


श्री कामेश्वर पाठक को गायकी के चारों विधाओं पट ध्रुपद, धमाल, खयाल एवं ठुमरी में उन्हें महारत प्राप्त थी। वे आकाशवाणी पटना के स्थापित कलाकार रहे। 


मो. मौजेदीन खां के कंठ की ठुमरी ने गयाजी के पूर्वी अंग की ठुमरी को जन्म देकर एक अलग पहचान बनायी, जो अब श्री जयराम तिवारी जी निधन के बाद वह समाप्त हो गया।


स्वर्गीय गणपत राव भैया जब यूरोप से पहली बार एक नए वाद्ययंत्र "हारमोनियम" को साथ लेकर भारत आए तो उसे देखने दूर दूर से लोग आने लगे। उसे देखकर लोगों को आश्चर्य का ठीकाना न रहा। तब भैया जी ने उसे भारत के कोने-कोने में प्रतिस्थापित किया और उसे प्रदर्शित तथा प्रसारित भी किया। वे सदा बाहर ही रहने लगे। 


इस प्रकार पूरे मध्य भारत में यह हारमोनियम वाद्य यंत्र जो हर गली एवं कोने-कोने में संगीत का मुख्य अंग बना इसका पूर्ण श्रेय श्री गणपत राव भैया जी को ही है। गयाजी का मान उन्होंने बढा़या।


रामचंद्र कटरियार के पुत्र माधो लाल कटरियार ने तब गणपतराव भैया को गयाजी बुलाकर उनसे हार्मोनियम वादन की कला सीखी। 


बाद में हनुमान दास के पुत्र सोहन सिंह उर्फ सोनी जी पूरब अंग की ठुमरी के प्रसिद्ध गायक रहे और माधो लाल कटरियार के यहाँ रहे। 


सोनी सिंह इसराज छोड़ कर हारमोनियम वाद्ययंत्र पर ठुमरी को गाया और "गया की ठुमरी" के नाम से इसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई। इनके नाम पर "सोनी संगीतालय" गयाजी में आज भी अवस्थित है।

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डॉक्टर शत्रुघ्न दांगी

राज्यपाल तथा बिहार पुरातत्व निदेशालय 

निदेशक से प्रशंसित एवं प्रशस्ति प्राप्त 

इतिहासकार तथा पुरातत्व वेत्ता

लाव, टिकारी, गया।

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