गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

दलितों को पानी देने पर पाबंदी


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सागरनामा-12: दलितों के लिए जारी है पानी पर पाबंदी

 बुधवार, 2 अप्रैल, 2014 को 08:55 IST तक के समाचार
कर्नाटक के एक मंदिर का कुआं
जड़ें तय करती हैं कि तना कैसा होगा. ज़मीन वनस्पतियों का आकार-प्रकार तय करती है और पानी निर्धारित करता है कि पत्तों का हवा से क्या रिश्ता होगा.
इस जैविक रिश्ते में किसी की भूमिका कम नहीं होती लेकिन जैविक नातेदारी हमेशा उसी तरह बनी रहे, ज़रूरी नहीं होता. मसलन, पानी की कमी की वजह से थोड़ी-सी राहत के लिए घोंघे पेड़ पर चढ़ जाते हैं लेकिन रामनाथपुरम के घोंघों को ये सीखने में शायद सदियाँ-सहस्राब्दियाँ लगी होंगी.
पानी पर सोच की जड़ें भी गहरी हैं. वे वनस्पतियों के साथ इंसानों को प्रभावित करती हैं, उन्हें व्यवस्थाओं से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
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राजशाही हो या तानाशाही, सामंतवाद हो या लोकतंत्र, वे हर माहौल जज़्ब कर सकती है. उसमें ढल सकती हैं, उसे अपने मुताबिक़ ढाल सकती हैं.
यही करते-करते सोच की जड़ें इतनी रूढ़ हो जाती हैं कि उन्हें आसानी से नहीं बदला जा सकता. कोई फ़रमान जारी करे, कोई क़ानून बनाए, उनकी बला से.

छुआछूत

भारतीय संविधान जल संसाधनों को राष्ट्रीय संपत्ति मानता है और छुआछूत के ख़िलाफ़ है. अपने नागरिकों के बीच भेदभााव की अनुमति नहीं देता.

सागरनामा

आम धारणा रही है कि दूरदराज़ के प्रांतों की किस्मत की कुंजी दिल्ली या केंद्र के हाथ में है. पिछले 30 साल में कई चुनावी समर कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने पाया है कि भारतीय राजनीति की कहानी अब इससे आगे बढ़ गई है. असल चुनावी अखाड़ा, उसके मुख्य पात्र और हाशिये पर नज़र आने वाले वोटर अब बदल चुके हैं. जैसे 'द हिंदूज़' की अमरीकी लेखक वेंडी डोनिगर कहती हैं- 'भारत में एक केंद्र नहीं है. कभी था ही नहीं. भारत के कई केंद्र हैं और हर केंद्र की अपनी परिधि है. एक केंद्र की परिधि पर नज़र आने वाला, दरअसल ख़ुद भी केंद्र में हो सकता है जिसकी अपनी परिधि हो.'

चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. आम चुनाव 2014 के दौरान मधुकर उपाध्याय बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
इसे सुनिश्चित करने के लिए क़ानून बने हैं और काग़ज़ पर भेदभाव को समाप्त घोषित कर दिया गया है. लेकिन देश के कई हिस्सों में इसके सक्रिय अवशेष मिलते हैं, जैसे कि तमिलनाडु में आज भी कुछ होटलों में दलितों को अलग गिलास में पानी दिया जाता है.
विकसित कर्नाटक में अब भी ऐसे कुएँ हैं, जिनसे पानी निकालने का अधिकार केवल ऊँची जातियों को है. दूसरी जाति के लोग उनसे पानी नहीं ले सकते.
दक्षिणी कर्नाटक में उडुपी से चालीस किलोमीटर दूर मुक्का गाँव है, जो अब गाँव कहीं से नहीं लगता. मुक्का से क़रीब-क़रीब सटा हुआ समुद्र तट सुरतकल है. गाँव की आबादी अधिक नहीं है और रास्ता ऊबड़-खाबड़ है.
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उसके बीचों-बीच एक मंदिर है और उससे लगभग दस कच्ची सीढ़ियाँ उतरकर एक कुआँ, जिस पर अंग्रेजी में लिखा बोर्ड लगा है 'नो एडमिशन'.

पानी पर हक़

कुएँ की हालत ठीक है, उसके ऊपर टिन की छत है कि पेड़ों की पत्तियाँ टूटकर पानी में न गिरें. चारों तरफ़ पक्की जगत है, लेकिन उससे पानी निकालने का अधिकार केवल ब्राह्मणों, पंडितों और पुजारियों के पास है.
सिर्फ़ इतनी सी इबारत से स्पष्ट नहीं होता कि पाबंदी किसके प्रवेश पर लगी है और किसने आयद की है. ये भी साफ़ नहीं होता वर्जित प्रवेश के इलाक़े में कौन सी जातियाँ आ-जा नहीं सकती.
सदाशिव मंदिर के बाहर नारियल पानी बेच रहे उसी गाँव के लोग बताते हैं कि दूसरे वर्ण के लोगों पर प्रतिबंध शायद मंदिर ने लगाया है क्योंकि कुएँ के पानी का उपयोग पूजा के लिए होता है. ये पाबंदी उनके बाप-दादों के ज़माने में कभी लगाई गई थी और आज तक क़ायम है.
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कुएँ से कुछ दूरी पर समुद्र तट है. सुरतकल के तट पर 'नो एडमिशन' नहीं लिखा है लेकिन ये हिदायत दर्ज है कि लोग वहाँ संभल कर जाएं. इसे भी स्थानीय लोग नियम मानते हैं और शायद इसलिए तट पर कम ही जाते हैं.

नियमों के पाबंद

दलितों के साथ भेदभाव
नियम-क़ानूनों के पाबंद दक्षिणी कर्नाटक के लोग, जो साइकिल के आगे बत्ती लगाए बिना घर से नहीं निकलते, सभी नियमों का गंभीरता से पालन करते हैं.
ये उनकी सोच में शामिल हो गया है, रूढ़ हो गया है.
हैरान करने वाली बात ये है कि गाँव के लोगों ने भेदभाव करने वाली इस व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है और वे इस पर सवाल नहीं उठाते. प्रतिवाद नहीं करते.
उन्हें इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता कि मीठे पानी के इस स्रोत से पानी लेने का अधिकार उन्हें क्यों नहीं है.
ये नियमों का पालन करने की दक्षिण कर्नाटक की प्रवृत्ति के कारण है या सोच के रूढ़ होने की वजह से, पता नहीं.
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