प्रस्तुति -- मनीषा यादव
वर्धा
महिला सशक्तिकरण
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महिला सशक्तिकरण के अंतर्गत महिलाओं से जुड़े सामाजिक,
आर्थिक, राजनैतिक और कानूनी मुद्दों पर रूप से संवेदनशीलता और
सरोकार व्यक्त किया जाता है।[1] सशक्तिकरण की प्रक्रिया में समाज को पारंपरिक पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के प्रति जागरूक किया जाता है,
जिसने महिलाओं की स्थिति को सदैव कमतर
माना है। वैश्विक स्तर पर नारीवादी आंदोलनों और यूएनडीपी आदि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने महिलाओं के सामाजिक समता, स्वतंत्रता और न्याय के राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।[2] महिला सशक्तिकरण, भौतिक
या आध्यात्मिक, शारिरिक या मानसिक,
सभी स्तर पर महिलाओं में आत्मविश्वास
पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है।[3]भारत में महिला सशक्तिकरण
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
आज की दुर्गा – महिला सशक्तिकरणमहिला सशक्तिकरण
शिक्षा में छिपा है महिला सशक्तिकरण का रहस्य
आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना
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महिला सशक्तिकरण - स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका
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महिला सशक्तिकरण : हालात कहां बदले हैं
भारतीय समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान रहा है। यहां महिलाओं को हमेशा से दूसरे दर्जे का माना जाता
है। पहले महिलाओं के पास अपने मन से कुछ
करने की सख्त मनाही थी। परिवार और समाज के लिए वे एक आश्रित से ज्यादा कुछ नहीं समझी जाती थीं। ऐसा माना जाता था कि उसे हर कदम पर पुरुष के
सहारे की जरूरत पड़ेगी ही।
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लेकिन अब महिला उत्थान को महत्व का विषय मानते हुए कई प्रयास किए जा रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के कार्यों में तेजी भी आई है। इन्हीं प्रयासों के कारण महिलाएं खुद को अब दकियानूसी जंजीरों से मुक्त करने की हिम्मत करने लगी हैं। सरकार महिला उत्थान के लिए नई-नई योजनाएं बना रही हैं, कई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं।
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आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं। बिजनेस हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व है, अधिकार है।
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जैसे ही उन्हें शिक्षा मिली, उनकी समझ में वृद्धि हुई। खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई। शिक्षा मिल जाने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा और घर के बाहर की दुनिया को जीत लेने का सपना बुन लिया और किसी हद तक पूरा भी कर लिया।
लेकिन पुरुष अपने पुरुषत्व को कायम रख महिलाओं को हमेशा अपने से कम होने का अहसास दिलाता आया है। वह कभी उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी उस पर हाथ उठाता है। समय बदल जाने के बाद भी पुरुष आज भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना पसंद नहीं करते, उनकी मानसिकता आज भी पहले जैसी ही है। विवाह के बाद उन्हे ऐसा लगता है कि अब अधिकारिक तौर पर उन्हें अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने का लाइसेंस मिल गया है। शादी के बाद अगर बेटी हो गई तो वे सोचते हैं कि उसे शादी के बाद दूसरे घर जाना है तो उसे पढ़ा-लिखा कर खर्चा क्यों करना। लेकिन जब सरकार उन्हें लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं लालच देती है, तो वह उसे पढ़ाने के लिए भी तैयार हो जाते हैं और हम यह समझने लगते है कि परिवारों की मानसिकता बदल रही है।
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दुर्भाग्य की बात है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपनाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं की अब उन्हें वहां से निकलने में डर लगता है। वे उसी को अपनी नियति समझकर बैठ गई हैं।
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हम खुद को आधुनिक कहने लगे हैं, लेकिन सच यह है कि मॉर्डनाइज़ेशन सिर्फ हमारे पहनावे में आया है लेकिन विचारों से हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। आज महिलाएं एक कुशल गृहणी से लेकर एक सफल व्यावसायी की भूमिका बेहतर तरीके से निभा रही हैं। नई पीढ़ी की महिलाएं तो स्वयं को पुरुषों से बेहतर साबित करने का एक भी मौका गंवाना नहीं चाहती। लेकिन गांव और शहर की इस दूरी को मिटाना जरूरी है।
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“महिला सशक्तिकरण” ऐसा द्विशब्द हो गया है जो पिछले कई वर्षों से भारत और विश्व के कई और देशों में भी बेहद ज़ोरों-शोरों से सुनने को मिल जाता है। भारत में राजनैतिक गहमागहमी के कारण अब यह जंगल की आग की तरह नेताओं के भाषणों में भी फ़ैल रहा है। पर इस देश की यही विडम्बना है कि यहाँ पर ऐसे लोग ही महिला सशक्तिकरण के विशेषज्ञ बने बैठे हैं जिनको ना ही इसका अर्थ मालूम है और ना ही वोट बैंक के अलावा इसमें कुछ दिलचस्पी है। सबसे पहले तो हम अगर महिला सशक्तिकरण की बात करें तो इसका सीधा सपाट अर्थ है महिलाओं का घर में, दफ्तरों में, समाज में, देश में, कहीं भी, किसी भी प्रकार से मान का हनन ना होना। महिलाओं और पुरुषों का एक समान बर्ताव होना। उनमें जैविक भिन्नता के अलावा और किसी भी दृष्टिकोण से पक्षपात ना होना।समस्या यह है कि हमारे समाज की सांस्कृतिक रीढ़ को जो सदियों से हो रहे बाहरी हमलों ने तोड़ा है, उसका भुगतान हमें समाज के हर छोटे-बड़े पहलू में करना पड़ रहा है और पुरुष-महिला भेदभाव भी उस घुसपैठ का उत्पाद है। अपने ग्रंथों और पुराणों में ऐसे बहुतेरे दृष्टांत हमें मिल जाएँगे जिसमें महिलाओं और पुरुषों को कभी भी अलग नहीं बताया गया है। जिस तरह की गुरुकुली शिक्षा एक लड़के को प्राप्त होती थी, ठीक वैसी ही शिक्षा एक लड़की को भी प्राप्त होती थी चाहे वो तलवारबाज़ी हो, कढ़ाई-बुनाई हो या जीवन में उपयोगी कोई और कला। कई वाकये तो ऐसे हैं जिसमें स्त्री को पुरुषों से भी ऊँचा स्तर दिया जाता था उदाहरणतः महिलाओं के लिए स्वयंवर होते थे जिसमें उसकी रज़ामंदी के बगैर विवाह संपन्न नहीं हो सकता था। यह पक्षपाती सिलसिला मुगलों के शासन से शुरू हुआ और गोरों के भारत पे कब्ज़ा करने के बाद अपनी चरम पर पहुंचा। कैसी विडम्बना है कि जिस देश में महिलाओं को देवियों की उपाधि दी गयी हो, जहाँ उनके स्वरूप को सबसे बढ़कर पूजा जाता हो, जहाँ ज्ञान, धन और शक्ति का प्रतीक महिलाएं ही हों, वहाँ आज ऐसी स्थिति आ गयी है कि हमें महिला सशक्तिकरण की ज़रूरत आन पड़े।
- महिला सशक्तिकरण का सबसे पहला दोष यह है कि हम यह मान रहे हैं कि महिलाएं पुरुषों से कमतर हैं। जहाँ पर हम ऐसे भेदभाव के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे, वहीँ पर हम मात खा जाएँगे। जब तक हम इस बुनियादी मसले को दरकिनार करते रहेंगे, इस देश में महिलाओं का सम्मान वापस ना आ सकेगा।
- इसी सशक्तिकरण के नाम पर आरक्षण का जो मुफ्त उपहार हम महिलाओं को दे रहे हैं, दरअसल वो उनके सशक्तिकरण के लिए नहीं वरन वोट सशक्तिकरण के लिए है। विधानसभा में ३३% आरक्षण से महिला साझेदारी में वृद्धि कैसे होगी जब उन साझेदारी करने वाली महिलाओं को घरों से ही ना निकलने दिया जाए?
- तीसरा पक्ष जो इस सशक्तिकरण के खिलाफ जाता है वह यह कि इसका अब बहुत गलत इस्तेमाल होने लगा है। जैसे महिला उत्पीड़न के मामले हमें आये दिन सुनने को मिल रहे हैं तो उसी प्रकार पुरुष उत्पीड़न के मामले भी अब उजागर हो रहे हैं। स्त्रियों को दिए गए हक और कानूनी प्रतिरक्षा का वो पुरुषों पर ही उल्टा इस्तेमाल करके कानून के समक्ष पुरुषों का पक्ष बेहद हल्का कर रही हैं। हमें ऐसे गलत मामलों में जल्द ही और भी बढ़ोतरी देखने को मिलेगा इसमें दो राय नहीं है।
-प्रतीक महेश्वरी
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सम्मान से जीने का हक तो हमें संविधान से मिले है। अगर इस पर अतिक्रमण हो तो इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। वैसे तो कई अधिनियम हैं पर उदहरण स्वरूप घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए सन् 2005 में “द प्रेटेक्शन ऑफ वुमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस” अधिनियम पारित हुआ था। यह कानून लड़की, मां, बहन, पत्नी, बेटी बहू यहां तक कि लिव इन रिलेशन यानी बगैर शादी के साथ रह रही महिलाओं को भी शारीरिक व मानिसिक प्रताड़ना से सुरक्षा प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत हर जिले में दंडाधिकारी के समकक्ष प्रोटेक्शन ऑफिसर की व्यवस्था की गई है। इस कानून में सजा का भी प्रावधान है। सवाल है कि कितनी महिलाओं को इसके प्रावधानों की जानकारी है ? और अगर है भी ,तो क्या वे प्रोटेक्शन ऑफिसर तक शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत जुटा पाती है ?
अगर जुटा पाती होती तो हर सातवें मिनट में कोई न
कोई महिला घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होती।
1. स्त्रियां इतिहास का एक मात्र ऐसा
शोषित समुदाय है जो अशक्त रूप में आदर्श बना दी गई हैं।
2. औरत को अभी तक यह सीखना बाकी है कि
ताकत कोई देता नहीं है, वह आपकों
खुद ले लेनी होती है ।
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महिला आरक्षण :महिला सशक्तिकरण का एक सशक्त माध्यम
महिलाये भारत की कुल आबादी का आधा हिस्सा हैं .संभवतः राष्ट्र के विकास के कार्य में महिलाओ की भूमिका और योगदान को पूरी तरह और सही परिप्रेक्ष्य में रखकर राष्ट्र निर्माण के कार्य को समझा जा सकता हैं. समूची सभ्यता में व्यापक बदलाव के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में महिला सशक्तिकरण आन्दोलन 20 वी शताब्दी के आखिरी दशक का एक महत्वपूर्ण राजनितिक और सामाजिक विकास कहा जाना चाहिए. भारत जैसे देश में जहाँ लोकतान्त्रिक तरीके से काम करने की आजादी हैं या यु कहे की एक सशक्त परम्परा हैं .जनमत जीवंत हैं और आधी आबादी के कल्याण में रूचि लेने वाला एक बड़ा वर्ग विधमान हैं . महिला सशक्तिकरण की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 8 मार्च ,1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से मानी जाती हैं .फिर महिला सशक्तिकरण की पहल 1985 में महिला अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन नैरोबी में की गई. भारत सरकार ने समाज में लिंग आधारित भिन्नताओ को दूर करने के लिए एक महान निति ‘महिला कल्याण नीति’1953 में अपनाई . महिला सशक्तिकरण का राष्ट्रीय उद्देश्य महिलाओ की प्रगति और उनमे आत्मविश्वास का संचार करना हैं.महिला आरक्षण का इतिहास
सर्वप्रथम 1926 में विधानसभा में एक महिला का मनोनयन कर सदस्य बनाया गया परन्तु उसे मत देने के अधिकार से वंचित रखा गया. इसके पश्चात् 1937 में महिलाओ के लिए सीट आरक्षित कर दी गई जिसके फलस्वरूप 41 महिला उम्मीदवार चुनाव में उतरी .1938 में श्रीमती आर. बी.सुब्बाराव राज्य परिषद् में चुनी गई उसके बाद 1953 में श्री मति रेणुका राय केंद्रीय व्यवस्थापिका में प्रथम महिला सदस्य के रूप में चुनी गई . आजादी के बाद महिला आरक्षण के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की शुरुआत सबसे पहले 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार के दौरान तब हुआ जब सरकार ने इस आशय का बिल पारित करने के संकेत दिए .यह संकेत इस मुद्दे पर आम विचार -विमर्श के उद्देश्य से दिया गया . लेकिन उस समय से आज तक इस मुद्दे पर आम राय नहीं बन पा रही हैं . इसमे काफी विरोधावाश हैं. इसमे पहला सुझाव यह दिया गया की कानून में संशोधन कर पार्टियों को ही यह काम करने के लिए बाध्य कर दिया जाये की वह ही महिलाओ को 33 % आरक्षण दे . लेकिन इसमे कोई दो राय नहीं पार्टिया प्रत्यक्ष रूप से तो महिला आरक्षण की बात करती हैं मगर उनमे अंतर्विरोध बहुत हैं. यह एक मानी हुई बात हैं की महिला आरक्षण को कुछ देर तक टाला तो जा सकता हैं परन्तु इससे मुह नहीं मोड़ा जा सकता हैं.
संवैधानिक प्रावधान
संविधान का अनुच्छेद 14 से 18 में स्त्री और पुरुष को समानता का अधिकार दिया गया हैं. अनुच्छेद 15 (1 ) तथा 15 ( 2 ) में धर्म ,मूल ,वंश ,जाति,लिंग ,जन्म ,स्थान के आधार पर विभेद अमान्य हैं .इसमें महिला और पुरुष दोनों को सामान रूप से जीविका का निर्वहन हेतु पर्याप्त साधन उपलब्ध करने की चर्चा की गई हैं. लेकिन अनुच्छे 15 (3 ) कहता हैं की स्त्रियों की दयनीय स्थिति ,कुरीतियों के कारण होने वाले उत्पीडन ,बाल विवाह तथा बहु विवाह आदि के कारण शोषण की स्थिति में राज्यों में राज्यों को उनके लिए विशेष प्रबंध तथा विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए. स्पष्टतः जहाँ भी आधी आबादी को सामाजिक ,पारिवारिक तथा स्वस्थ सम्बन्धी सुरक्षा के प्रश्न थे संविधान ने उन्हें पुर्णतः सुरक्षित किया हैं. वैसे महिला आरक्षण के मुद्दे पर सर्वसम्मति हो जाने के बावजूद भी के खास स्तर पर विरोध जारी हैं .महिलाओ के लिए आरक्षण की व्यवस्था के साथ पिछड़ी और दलित जातियों के महिलाओ के लिए उपव्यवस्था की जाये या नहीं .भारतीय जनता पार्टी ,कौंग्रेस और विभिन्न वामपंथी पार्टिया महिलाओ के लिए आरक्षण की व्यवस्था में जातीय व्यवस्था बनाने की विरोध में रही हैं परन्तु दलित और पिछड़ी जातीय के आधार पर राजनीति करने वाली पार्टिया यह भाजपा ,.कौंग्रेस पर यह आरोप लगाती हैं कि ये सभी दल एक साजिश के तहत सवर्णों को सत्ता के केंद्र में रखना चाहती हैं.
संसद और विधानसभाओ में महिलाओ को आरक्षण दिया जाने के पक्ष में तर्क
1 .जब संविधान का 73 वा और 74 वा संशोधन कर के महिलाओ को पंचायतो और नगर पालिकाओ में एक तिहाई आरक्षण दे दिया जा चूका हैं तो उसका विस्तार संसद और विधानसभा स्तर पर क्यूँ नहीं हो सकता हैं
2 .प्रतिनिधित्व से लडकियों की समक्ष एक नया रोल मोडल पेश हो सकेगा और इसका सकारात्मक असर महिला सशक्तिकरण के रूप में पड़ेगा.
3 .महिलाओ की आधी आबादी के नाते निति निर्धारण में उनकी समुचित भूमिका अति आवश्यक हैं. ,मतलब महिलाओ के लिए आधी सिट आरक्षित हो.
4 .महिलाओ की संख्या संसद या विधानसभाओ में नगण्य हैं क्यूँ की कोई भी दल महिलाओ को टिकट देना नहीं चाहता हैं.
5 .पुरुष के प्रभाव के चलते राजनितिक दल चुनाव में अधिक महिला उम्मीदवार को खड़ा करना नहीं चाहते हैं .अतः आरक्षण से सभी दलो द्वारा महिला उम्मीदवारों के चुनाव के समर्थन करना सुनिश्चित हो सकेगा. .
6 .महिलाओ को निरक्षरता दर पुरुषो की तुलना में काफी अधिक हैं .अतः संसद और विधानसभाओ में आरक्षण देकर उनकी चेतना का शीघ्र विकास किया जा सकता हैं.
73 वे और 74 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1993 में पारित कर सरकार ने पंचायतो में आरक्षण देकर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया हैं. इस आरक्षण के फलस्वरूप पंचायतो और नगत निकायों में भी महिलाये पंचायत प्रमुख और नगर परिषद् अध्यक्षा जैसी महत्वपूर्ण पद पर पहुँच सकी हैं. संविधान के अनुच्छेद 243 (घ ) तथा 243 (न ) द्वारा आरक्षित एवम अनारक्षित वर्ग की महिलाओ हेतु 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई हैं. इस व्यवस्था से फलस्वरूप सभी प्रान्तों में ग्रामीण एवम शहरी पंचायत के सभी स्तर पर कई महिलाओ जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी सफलता का निर्वाह सफलता पूर्वक कर रही हैं. संपूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 10 लाख महिलाए हैं जो महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में मिल का पत्थर साबित हो रही हैं. पंचायतो में निर्वाचित महिलाओ की संख्या विश्व में निर्वाचित महिलाओ की संख्या से भी अधिक हैं. बिहार,मध्य -प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश सरकार ने महिलाओ को 50 प्रतिशत आरक्षण पंचायतो में दिया हैं. इन राज्यों में महिलाये ने अपने कार्यो के बदौलत नए -नए कीर्तिमान स्थापित किया हैं. बिहार में तो पंचायतो में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों का संख्या 54 प्रतिशत तक जा पहुंची हैं. पंचायतो में महिलाओ को आरक्षण देने के फलस्वरूप जो महिलाये जनप्रतिनिधि के रूप में चुनकर आये हैं, वे अपने काम को ईमानदारी पूर्वक अंजाम दे रही हैं इससे यह साबित होता हैं, की महिलाये असहाय और निष्क्रिय नहीं हैं.
भारत में पंचायतो में महिलाओ को 33 प्रतिशत से बढाकर 50 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी गई हैं .लेकिन सत्ता का मुख्या केंद्र बिंदु विधानसभा और लोकसभा में महिलाओ के भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमारे राष्ट्रीय राजनितिक दल दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. राज्यसभा से भरी विरोध के बाद पास महिला आरक्षण बिल को अभी लोकसभा और कम से कम 50 फीसदी विधानसभा को पर करना जरुरी हैं. यह काम कब तक होगा कहा नहीं जा सकता हैं. ?भारतीय संसद म महिला जनप्रतिनिधियों का प्रतिशत हमारे पडोसी देश पाकिस्तान ,नेपाल और इराक से भी कम हैं. इन देशो को देखा जाए तो रवांडा में महिलाओ की संख्या “लोअर हॉउस” में 56 .30 प्रतिशत हैं .आजादी के 62 साल बाद भी लोकसभा में महिलाओ की संख्या काफी कम (50 )हैं. ये आंकड़े शर्मनाक हैं. महिला सशक्तिकरण का वास्तविक उपलब्धि यह हैं की वह अपने संपूर्ण नारीत्व पर गर्व करे और अपने अन्दर आत्मविश्वास का संचार करे .उसमे अपनी शर्तों पर जीने का साहस हो . इसमे “महिला आरक्षण बिल” महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं.
लोहिया के शब्दों में “शक्ति मौका आने पर प्रकट होती हैं और प्रकट होते- होते आगे बढाती हैं .शक्ति दबाने पर दबती चली जाती हैं ,की मानो हो ही और कभी नहीं हो रही” .भारतीय समाज में नारी को इतना दबा कर रखा गया कि उसे अपने क्षमताओ व सामर्थ्य पर विश्वास ही नहीं रहा. लोहिया ने महिलाओ कि स्थिति में सुधार एवम पुरुषवादी प्रभुत्व कि समाप्ती हेतु महिलाओ के लिए “विशेष अवसर की सिद्धांत” की मांग की.जिसमे पिछडो ,हरिजनों ,मुस्लिमो को शामिल किया गया था. और उन सबो के लिए साठ फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी . यह अत्यंत विषाद एवम दुर्भाग्य का विषय हैं कि यदि सैद्धांतिक स्तर पर आरक्षण अनुचित हैं तो सभी वर्गों के लिए होनी चाहिए .सिर्फ महिलाओ के सन्दर्भ में क्यूँ ? अन्य पिछडो के विकास में आरक्षण जरुरी हैं तो महिलाओ के क्यूँ नहीं .क्या महिलाये वंचित नहीं रही हैं.?सामाजिक न्याय के कथित पक्षधर इस बात का विरोध कर रहे हैं की इसमे “कोटे में कोटे” की पद्धति नहीं अपनी गई हैं. वे महिलाओ को अगड़े -पिछड़े में बाटने की घृणित अपराध व खतरनाक कोशिश कर रहे हैं. ताकि महिला आरक्षण पर आम राय नहीं बन पाए और वह विधेयक लोक सभा और विधानसभा में पास होने का बाट जोहता रहे.ऐसी विषम स्थिति में महिला और पुरुष को मिलकर समता और समृद्धि पर आधारित अभियान चलाना होगा .अन्यथा सशक्तिकरण का सपना बस सपना ही रह जायेगा. इस बात स्वीकार किया जाना चाहिए की कोई भी आरक्षण विभेदकारी होता हैं और इससे समानता के सिद्धांत का उल्लघंन होता हैं. और योग्यता को निम्न प्राथमिकता मिलती हैं. इस प्रकार बहुत से योग्य उम्मीदवारों में हताशा होगी . अतः किसी भी आरक्षण की विधिमान्यता की परखा इस आधार पर की जा सकती हैं की क्या यह किसी तर्कसंगत तथा प्रांसगिक मानदंड पर आधारित हैं.
लेकिन सवाल उठता हैं की क्या आरक्षण देने से आम महिलाओ की जिन्दगी में फर्क आ पायेगा? महिलाओ के लिए राजनितिक पदों पर बैठना और ऐसे पदों का उपयोग आम महिलाओ के कल्याण के लिए करना अलग बात हैं. यह मानना गलत होगा की महिलाओ के संसद में पहुचने मात्र से आम महिलाओ का भला हो जायेगा. क्यूँ की ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमे महिला जनप्रतिनिधि के द्वारा ही कई ऐसे योजनाओ को बंद किया गया जो महिलाओ के कल्याण से सम्बंधित थी. यह कतई नहीं समझा जाना चाहिए की महिलाए संसद में पहुंचकर महिला से सम्बंधित कार्य में रूचि लेंगी.यहाँ यह संभावना बलवती हैं की चुनिन्दा महिलाओ को दिखावटी रूप से संसद में स्थान देकर उन्ही नीतियों का समर्थन के लिए बाध्य किया जायेगा जिसे पुरुष चाहते हैं. वे खुद से निर्णय नहीं ले सकेंगे .महिला आरक्षण के मामले में दलितों के आरक्षण के मॉडल का पालन करना गलत होगा. इस प्रयास से आम दलितों का भला नहीं होगा उलटे दलितों पर अत्याचार होगा ऐसा पहले भी हुआ हैं. दलितों को आरक्षण देने से 120 दलित संसद में पहुचे परन्तु आज भी दलितों की समस्या ज्यो की त्यों बनी हुई हैं. कारण यह हैं की किसी दलित का जनप्रतिनिधि का चुना जाना अलग बात हैं और दलित सशक्तिकरण अलग बात हैं.
निष्कर्ष —— आरक्षण से ज्यादा जरुरी हैं महिला की स्थिति को सशक्त बनाना और उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल बनाया जाये जिससे उनमे आत्मविशवास आये और वे अपने हक़ की लड़ाई बिना किसी के सहयोग के खुद लड़ सके .महिलाओ की शिक्षा ,सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए . आरक्षण सच्ची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और महिलाओ की भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता हैं ,परन्तु इस दिशा में यह एक सही कदम हैं.
क्या है-महिला सशक्तिकरण
महिला सशक्तिकरण की बात समाज में रह रहकर उठती रही है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ कुछ इस प्रकार लगाया जाता है कि जैसे महिलाओं को किसी वर्ग विशेषकर पुरूष वर्ग का सामना करने के लिए सुदृढ किया जा रहा है। भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही नारी को पुरूष के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। उसे अपने जीवन की गरिमा को सुरक्षित रखने और सम्मानित जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। यहां तक कि शिक्षा और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी महिलाओं को अपनी प्रतिभा को निखारने और मुखरित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी। महाभारत काल के पश्चात नारी की इस स्थिति में गिरावट आयी। उससे शिक्षा का मौलिक अधिकार छीन लिया गया। धीरे धीरे शूद्र गंवार, पशु और नारी को ताडऩे के समान स्तर पर रखने की स्थिति तक हम आ गये।जबकि शूद्र, गंवार पशु और नारी ये प्रताडऩा के नही अपितु ये तारन के अधिकारी है। इनका कल्याण होना चाहिए। जिसके लिए पुरूष समाज को विशेष रक्षोपाय करने चाहिए।भारत की नारी सदा अपने पति में राम के दर्शन करती रही है। हमारे यह सांस्कृतिक मूल्य इस पतन की अवस्था में भी सुरक्षित रहे। मुस्लिम काल में हिंदू समाज के कई संप्रदायों ने महिलाओं को पर्दे में रखना आरंभ कर दिया। यह पर्दा प्रथा मुस्लिम समाज के आतंक से बचने के लिए जारी की गयी। जो आज तक कई स्थानों पर एक रूढि़ बनकर हिंदू समाज के गले की फांसी बनी हुई है। अंग्रेजों के काल में भी यह परंपरा यथावत बनी रही, अन्यथा प्राचीन भारतीय समाज में पर्दा प्रथा नही थी। आज समय करवट ले रहा है। दमन, दलन और उत्पीडऩ से मुक्त होकर नारी बाहर आ रही है। यह प्रसन्नता की बात है, किंतु फिर भी कुछ प्रश्न खड़े हैं। नारी के सम्मान के, नारी की मर्यादा के, नारी की गरिमा के और नारी सुलभ कुछ गुणों को बचाये रखने को लेकर। नारी की पूजा से देवता प्रसन्न होते हैं हमारे यहां ऐसा माना जाता है। जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। इसका अर्थ नारी की आरती उतारना नही है, अपितु इसका अर्थ है नारी सुलभ गुणों-यथा उसकी ममता, उसकी करूणा, उसकी दया, उसकी कोमलता का सम्मान करना। उसके इन गुणों को अपने जीवन में एक दैवीय देन के रूप में स्वीकार करना। जो लोग नारी को विषय भोग की वस्तु मानते हैं वो भूल जाते हैं कि नारी सबसे पहले मां है, यदि वह मां के रूप में हमें ना मिलती और हम पर अपने उपरोक्त गुणों की वर्षा ना करती तो क्या होता? हम ना होते और ना ही यह संसार होता। तब केवल शून्य होता। उस शून्य को भरने के लिए ईश्वर ने नारी को हमारे लिये सर्वप्रथम मां बनाया। मां अर्थात समझो कि उसने अपने ही रूप में उसे हमारे लिये बनाया। इसलिए मां को सर्वप्रथम पूजनीय देवी माना गया। मातृदेवो भव: का यही अर्थ है। आज नारी के इस सहज सुलभ गुण का सम्मान नही हो रहा है। नारी मां के रूप में उत्पीडि़त है। किंतु यदि थोड़ा सूक्ष्मता से देखा जाए तो आज वह मां बनना भी नही चाह रही है। पुरूष के लिए यह भोग्या बनकर रहना चाह रही है।इसीलिए परिवार जैसी पवित्र संस्था का आज पतन हो रहा है। उसे अपना यौवन, अपनी सुंदरता और अपनी विलासिता के लिए अपने मातृत्व से ऊपर नजर आ रही है। पुरूष के लिए वह भोग्या बनकर रहना चाहती है। खाओ, पिओ एवं मौज उड़ाओ की जिंदगी में मातृत्व को समाप्त कर वह अपने आदर्शों से खेल रही है। आज महिला पुरूष के झगड़े अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं। पुरूष ही नारी की हत्या नही कर रहा है अपितु नारी भी पति की हत्या या तो कर रही है या करवा रही है। निरे भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम है यह अवस्था।
मां नारी के रूप में जब मां बनती है तो वह हमारे जीवन का आध्यात्मिक पक्ष बन जाती है जबकि पिता भौतिक पक्ष बनता है। जीवन इन दोनों से ही चलता है। हमारे शरीर में आत्मा मां का आध्यात्मिक स्वरूप है और यह शरीर पिता का साक्षात भौतिक स्वरूप। अध्यात्म से शून्य भौतिकवाद विनाश का कारण होता है और भौतिकवाद से शून्य अध्यात्म भी नीरसता को जन्म देता है। नारी को चाहिए कि वह समानता का स्तर पाने के लिए संघर्ष अवश्य करें किंतु अपनी स्वाभाविक लज्जा का ध्यान रखते हुए। निर्लज्ज और निर्वस्त्र होकर वह धन कमा सकती है किंतु सम्मान को प्राप्त नही कर सकती है। भौतिकवादी चकाचौंध में निर्वस्त्र घूमती नारी, अंग प्रदर्शन कर अपने लिए तालियां बटोरने वाली नारी को यह भ्रांति हो सकती है कि उसे सम्मान मिल रहा है,किन्तु स्मरण रहे कि यह तालियां बजना, उसका सम्मान नही अपितु अपमान है क्योंकि जब पुरूष समाज उसके लिए तालियां बजाता है तब वह उसे अपनी भोग्या और मनोरंजन का साधन समझकर ही ऐसा करता है। जिसे सम्मान कहना स्वयं सम्मान का भी अपमान करना है।
हमें दूरस्थ गांवों में रहने वाली महिलाओं के जीवन स्तर पर भी ध्यान देना होगा। महिला आयोग देश में सक्रिय है। किंतु यह आयोग कुछ शहरी महिलाओं के लिए है। यह आयोग तब तक निरर्थक है जब तक यह स्वयं ग्रामीण महिलाओं के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए ग्रामीण आंचल में जाकर कार्य करने में अक्षम है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ है नारी का शिक्षाकरण। शिक्षा से आज भी ग्रामीण अंचल में नारी 90 प्रतिशत तक अछूती है। उसे शिक्षित करना देश को विकास के रास्ते पर डालना है। इससे नारी वर्तमान के साथ जुड़ेगी। नारी सशक्तिकरण का यही अंतिम ध्येय है।
नारी के बिना पुरूष की परिकल्पना भी नही की जा सकती। ईश्वर ने नारी को सहज और सरल बनाया है, कोमल बनाया है। उसे क्रूर नही बनाया। निर्माण के लिए सहज, सरल, और कोमल स्वभाव आवश्यक है। विध्वंश के लिए क्रूरता आवश्यक है। रानी लक्ष्मीबाई हों या अन्य कोई वीरांगना, अपनी सहनशक्ति की सीमाओं को टूटते देखकर ही और किन्ही अन्य कारणों से स्वयं को अरक्षित अनुभव करके ही क्रोध की ज्वाला पर चढ़ी। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी नारी के सहज स्वभाव से परे नही थी। सिंडिकेट से भयभीत इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। अन्यथा इंदिरा केवल एक नारी थी। वही नारी जो अपनी हार पर (1977 में) अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी थी। यह उसकी कोमलता थी। मातृत्व शक्ति का गुण था।
नारी को अपने मातृत्व पर ध्यान देना चाहिए। वह पुरूष की प्रतिद्वन्द्वी नही है। अपितु वह पुरूष की सहयोगी और पूरक है। पुरूष को भी इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। गृहस्थ इसी भाव से चलता है। नारी अबला है। अपनी कोमलता के कारण, अपने मातृत्व के कारण उसके भीतर उतना बल नही है जितना पुरूष के भीतर होता है। इसलिए पहले पिता पति और वृद्धावस्था में उसका पुत्र उसका रक्षक है। वह घर की चारदीवारी से बाहर निकले यह अच्छी बात है, उसकी स्वतंत्रता का तकाजा है। किंतु यह स्वतंत्रता उसकी लज्जा की सीमा से बाहर उसे उच्छृंखल बनाती चली जाए तो यह उचित नही है। इसी से वह हठीली और दुराग्रही बनती है। जिससे गृहस्थ में आग लगती है और मामले न्यायालयों तक जाते हैं। समाज की वर्तमान दुर्दशा से निकलने के लिए नारी और पुरूष दोनों को ही अपनी अपनी सीमाओं का रेखांकन करना होगा तभी हम स्वस्थ समाज की संरचना कर पाएंगे।
कमेंट्स नोट
नारी में जो भी कोमलता , दयालुता या अन्य स्वाभाविक खूबियां है .. वो प्रकृति की ओर से संतुलन लाने के लिए प्रदान
की गयी है .. पर इसे कमजोरी मान लेना बिल्कुल गलत है .. इस आधार पर उसे सामाजिक या संवैधानिक
अधिकारों से विमुख करना
बिल्कुल गलत है .. और यही मुख्य मुद्दा होना ही चाहिए .. यह समझना आवश्यक है कि समाज में दोनो एक दूसरे के पूरक हैं
.. एक के बिना दूसरे का काम नहीं
चल सकता !!
महिला सशक्तिकरण : शुरुआत परिवार से…
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Arun Kant Shukla for BeyondHeadlines
आज से 104
वर्ष पहले जब क्लारा जेटकिन ने महिला दिवस को
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का आह्वान किया था तो उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कुछ ही दशकों
में पूंजीवादी बाजार इस दिन पर भी अपना कब्जा कर लेगा और दुनिया की तमाम देशों की
सरकारें और बाजार की निहित स्वार्थी ताक़तें इसका प्रयोग न केवल प्रतीकात्मक बनाकर रख देंगी बल्कि योजनाबद्ध और
संस्थागत तरीके से इसका उपयोग महिलाओं के उपर होने वाले शोषण, अपराधों, भेदभाव तथा
असमानता की तरफ से ध्यान हटाने के लिए किया जाने लगेगा.
इस सचाई
के बावजूद कि पिछले दस दशकों के दौरान विश्व में हुई आर्थिक प्रगति ने विश्व समाजों के
प्रत्येक तबके पर कुछ न कुछ धनात्मक प्रभाव अवश्य ही डाला है, जो सोच और विचार के स्तर पर भी समाज में परिलक्षित होता है. स्त्रियों के
मामले में यह एकदम उलटा दिखाई पड़ता है.
पिछले 100
वर्षों के दौरान हुए तकनीकि और औद्योगिक परिवर्तनों और
पैदा हुई आर्थिक संपन्नता ने मनुष्यों के रहन-सहन, खान-पान और सोच-विचार सभी को उदार बनाया. नस्ल,
जाति, धर्म के मामलों में यह उदारवादी दृष्टिकोण काफी हद तक दिखाई पड़ता
है. पर, स्त्रियों के मामले में आज भी मनुष्यों की
वही सामंतवादी पुरातनपंथी सोच है, जिसके
चलते स्त्री उसके
सम्मुख प्रतीकात्मक रूप से तो देवी है, पर व्यवहार में उससे कमतर और भोग्या है.
यदि कोई
परिवर्तन हुआ है तो वह यह कि बाजार के रूप में एक नया स्त्री शोषक खड़ा हो गया है,
जिसके शोषण का तरीका इतना मोहक और धीमा है
कि स्वयं स्त्रियों को यह जंजाल नहीं लगता है. यही कारण है कि 104 साल पहले समानता, समान-वेतन, कार्यस्थल पर उचित कार्य-दशाएं जैसे जिन मुद्दों को लेकर महिलाओं की गोलबंदी
शुरू हुई थी, वे तो दशकों बाद आज भी जस की तस
मौजूद हैं ही, साथ ही साथ
स्त्रियों को स्वयं को एक उत्पाद के रूप में इस्तेमाल होने से बचने की नई लड़ाई
भी लड़नी पड़ रही है.
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर आज सबसे अधिक जोर महिलाओं के सशक्तिकरण
पर है. यहां तक कि विश्व बैंक जैसी संस्था भी महिला सशक्तिकरण से सबंधित योजनाओं के लिए
विशेष फंडिंग
करती हैं. पर, चाहे वह दुनिया के
देशों की सरकारें हों या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं सबकी महिलाओं के लिए उपज रही
सहृदयता, सद्भावना और सहायता का कारण वह
बाजार है, जो दुनिया की आधी
आबादी के साथ जुड़ा है.
यही कारण
है कि महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों का पूरा फोकस महिला श्रम के दोहन के लिए
बनाए जा रहे आर्थिक कार्यक्रमों पर ही है और महिलाओं की सामाजिक, लेंगिक, राजनीतिक और धार्मिक रूप से शोषण करने वाली
समस्याओं को कभी वरीयता नहीं दी जाती.
भारत
जैसे विडंबनाओं वाले देश में जहां पुरातनपंथी ढंग से महिलाओं को देवी बनाकर पूजनीय तो
बताया जाता है, पर व्यवहार में इसके ठीक
उलट होता है, महिला सशक्तिकरण की
स्थिति दयनीय ही हो सकती है.
वर्ष 2003
में जारी वर्ल्ड इकानामिक फ़ोरम की ग्लोबल जेंडर गैप
रिपोर्ट में भारत का स्थान 136 देशों
में 101वां था. उसके पहले इंटरनेश्नल
कंसल्टिंग एंड मैनेजमेंट फर्म बूज एंड कंपनी ने वेतन समानता, कार्यनीति, संस्थागत समर्थन और महिलाओं में हुई प्रगति के आधार पर 128 देशों में सर्वेक्षण किया था, जिसमें भारत का स्थान 115वां था.
इसका
सीधा अर्थ हुआ कि भारत में सरकारी स्तर पर नीतियां बनाते समय केंद्र और राज्यों की सरकारों
ने महिला सशक्तिकरण
के दावे चाहे जितने किये हों, पर
वास्तविकता में न तो उतने क़दम उठाये गए और न ही बनाई गयी योजनाओं का अमलीकरण धरातल
पर ठोस रूप ले पाया. देश के निजी कारपोरेट सेक्टर भी कभी महिला सशक्तिकरण के लिए इच्हुक नहीं दिखा है.
जब
महिलाओं के लिए समानता की बात की जाती है और विशेषकर ट्रेड यूनियनों में, कामगार महिलाओं के अन्दर, तो अधिकांश बहस और जोर वेतन में भेदभाव और कार्यस्थल पर
महिलाओं की कार्य करने की दशाओं के खराब होने, लैंगिक भेदभाव तथा यौन प्रताड़नाओं तक और वह भी संगठित क्षेत्र की कामगार
महिलाओं के विषय में सीमित होकर रह जाता है.
इसमें
कोई दो मत नहीं कि उपरोक्त सभी मुद्दे संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों की कामगार
महिलाओं से सबंधित महत्वपूर्ण मुद्दे हैं और इनकी किसी भी कीमत पर उपेक्षा नहीं की जा सकती है. पर, वेतन में भेदभाव से लेकर यौन प्रताड़ना तक की
उपरोक्त सभी व्याधियां कार्यस्थल की उपज नहीं हैं. पुरुष और महिला दोनों
कामगार इन सारी व्याधियों को समाज से ही लेकर कार्यस्थल पर पहुँचते हैं. इसलिए इन सारी व्याधियों को कार्यस्थल
से ही संबद्ध कर देखना, आज तक
किसी निदान पर नहीं पहुँचा पाया है.
महिलाओं
को संरक्षण प्रदान करने के लिए बने कानूनों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के
बावजूद यदि कार्यस्थल
पर महिलाओं के साथ भेदभाव और लैंगिक शोषण में कमी नहीं आ रही है तो इसके पीछे वही
माईंडसेट है, जिसे समाज से लेकर
कामगार कार्यस्थल पर पहुँचते हैं.
सर्वोच्च
न्यायालय के जज से लेकर तेजपाल और राजनीतिज्ञों से लेकर आशाराम तक के सभी सेक्स
स्कंडलों में यही माईंडसेट कार्य कर रहा है. भारत की कट्टरपंथी ताकतें इसका निदान
महिलाओं को घर-गृहस्थी
तक ही सीमित रहने की सलाह देने में देखती हैं.
सुनने
में यह सलाह कितनी भी आकर्षक क्यों न लगे, पर,
बाजार के निरंतर बढ़ते शोषण और दबाव और
कट्टरपंथी ताकतों की सलाह के बीच बहुत बड़ा विरोधाभास है, जो महिलाओं को अपना श्रम बेचने के लिए घर से बाहर निकलने को लगातार
मजबूर करता रहता है और ऐसी कोई भी सलाह सिर्फ व्यर्थ का प्रलाप साबित होती रहती है.
दुर्भाग्यजनक
यह है कि सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू में महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं
देने की प्रवृति हाल के दशकों में बढ़ी है. एक बच्ची के जन्म के साथ शुरू होने
वाला यह भेदभाव उसकी शिक्षा, रोजगार, वेतन, सामाजिक और आर्थिक जीवन से लेकर उसके बारे में राजनीतिक सोच तक लगातार कुत्सित तरीके से
मज़बूत हो रहा है.
आज जब
मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, मेरे सामने छत्तीसगढ़ की नई
राजधानी के उपरवारा गाँव की दुलारी बाई की ह्त्या का समाचार है. उसकी हत्या उसके सगे भतीजे ने ही
टोनही होने के आरोप में कर डाली. दुलारी बाई के तीनों बेटे और बेटी ह्त्या के समय
घर में ही थे. ये सभी घटना के बाद घर से बाहर आये.
लगभग 20
दिनों पूर्व छत्तीसगढ़ के ही कोरबा जिले के विकासखंड पोड़ी
उपरोड़ा के घुमनीडांड गाँव में बेटे ने ही 65 वर्षीय माँ को चुड़ैल मानकर उसके बाल काटे और उसके साथ बैगा के
चक्कर में आकर मार-पीट की. सम्मान के नाम पर हर साल एक हजार से ज्यादा महिलाओं को मार दिया जाता है.
2013 में
नेशनल क्राईम रिकार्ड के द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार दशकों में
बलात्कार के मामले में 900 फीसदी बढे हैं. 2010 में तकरीबन 600 मामले प्रतिदिन महिलाओं के खिलाफ
अपराधों के दर्ज हुए. महिलाओं के
प्रति सोच का यह रवैय्या समाज से लेकर शासन तक सभी स्तरों पर मौजूद है. यदि, यही सोच एक लड़की को शिक्षा से वंचित रखती है तो यही सोच
विधायिका में महिलाओं के लिए आरक्षण का बिल लोकसभा में पास नहीं होने देती है. यही सोच सरकार को
आरक्षण के सवाल पर गंभीरता से प्रयास करने से रोकती भी है.
जब तक
समाज में स्त्रियों को पुरुषों से दोयम समझने की यह सोच मौजूद रहेगी, महिला सशक्तिकरण शासन से समाज तक ज़ुबानी जमा-खर्च ही बना रहेगा.
परिवार, समाज और देश तीनों को
सशक्त बनाने का काम घर-परिवार में महिलाओं को सशक्त बनाये बिना नहीं हो सकता है, इस शिक्षा को देने और फैलाने का काम समाज की प्राथमिक इकाई
परिवार से ही शुरू करना होगा ताकि स्त्रियों के प्रति हीन सोच उद्गम स्थल से ही बदल
सके. क्योंकि, स्वतंत्रता पश्चात
के इतने वर्षों में ऐसी सदिच्छा सरकार, प्रशासन, राजनीति और धर्म तथा संस्कृति
के प्रमुखों, किसी ने भी नहीं
दिखाई.
वे ऐसा
करेंगे भी नहीं, क्योंकि आधे
समाज का
दूसरे आधे हिस्से के प्रति बैरभाव और शोषणकारी रवैय्या, उन्हें उनकी व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होता है. आने
वाले समय में विश्व की कामगार दुनिया में एक अरब स्त्रियां प्रवेश करने वाली
हैं. भारत जनसंख्या के आधार पर विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है. पर, इसकी कामगार दुनिया में उस एक अरब महिलाओं का बहुत कम हिस्सा शामिल होगा.
कारण, स्त्रियों के प्रति सोचने का भारतीय समाज
का दकियानूसी ढंग, जिसे बदले
बिना न महिला सशक्तिकरण पूरा होगा और न देश सशक्त होगा.
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