शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और हिंदी साहित्य



देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह
नरपति सिंह
वीर नारायण सिंह
नाहर सिंह
सआदत खाँ
सुरेन्द्र साय
जगत सेठ राम जी दास गुड वाला
ठाकुर रणमतसिंह
रंगो बापू जी
भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर
वासुदेव बलवंत फड़कें
मौलवी अहमदुल्ला
लाल जयदयाल
ठाकुर कुशाल सिंह
लाला मटोलचन्द
रिचर्ड विलियम्स
पीर अली
वलीदाद खाँ
वारिस अली
अमर सिंह
बंसुरिया बाबा
गौड़ राजा शंकर शाह
जौधारा सिंह
राणा बेनी माधोसिंह
राजस्थान के क्रांतिकारी
वृन्दावन तिवारी
महाराणा बख्तावर सिंह
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
क्रांतिकारी महिलाए
1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
रानी लक्ष्मी बाई
बेगम ह्जरत महल
रानी द्रोपदी बाई
रानी ईश्‍वरी कुमारी
चौहान रानी
अवंतिका बाई लोधो
महारानी तपस्विनी
ऊदा देवी
बालिका मैना
वीरांगना झलकारी देवी
तोपख़ाने की कमांडर जूही
पराक्रमी मुन्दर
रानी हिंडोरिया
रानी तेजबाई
जैतपुर की रानी
नर्तकी अजीजन
ईश्वरी पाण्डेय






रचनाकार : प्रो. लखन लाल सिंह 'आरोही'

संदर्भ : विचार दृष्टि (हिंदी पत्रिका)
दिनांक : 9 अक्टूबर-दिसंबर 2007
अंक : 33, पेज न. 26¸
इन दिनों संपूर्ण भारत में 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का डेढ़ सौवाँ राष्ट्रीय जयंती समारोह व्यापक रूप से मनाया जा रहा है आज से पचास वर्ष पूर्व उक्त राष्ट्रीय संग्राम का बड़े ही उत्साह से देशवासियों ने सौवाँ राष्ट्रीय जयंती समारोह मनाकर शहीदों को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि प्रदान की थी। यह अब स्पष्ट हो चुका है कि 1857 का संग्राम न तो सामंतों का विद्रोह था, और ना हि सिपाहियों का आक्रोश। यह संग्राम राष्ट्रीय स्तर पर आम जनता की भागीदारी के कारण ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति के लिए सामूहिक जन संग्राम था। कार्ल मार्क्स और फ्रेडिरक एंगेल्स पहले इतिहासकार थे जिन्होंने 1857 के संग्राम को जन विद्रोह कहा। सोवियत संघ स्थित मार्क्सवादी लेनिनवादी संस्थान और प्रोग्रेसिव पब्लिशर्स से छपे मार्क्स और एंगेल्स के निबंधों के संकलन का शीर्षक हैं कि फर्स्ट इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस। 1857-59 यह संकलन 1958 में आया। 1853-59 में ये लेख न्यूयार्क डेली ट्रिव्यून में प्रकाशित हुए थे और इनके प्रकाशन से उस समय पश्चिमी जगत में धूम मच गई थी। मार्क्स के अनुसार इस प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की धुरी थी- राष्ट्रीय एकता, एक मुद्दा और उस पर सारे देशवासियों का एक जुटान। आज़ादी के इस प्रथम महा संग्राम ने सारे भारत जन समुदाय को आंदोलित किया था, परंतु जैसा मार्क्स ने अपने निबंध में कहा है कि एक सबल केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में मुक्ति के लिए भारतीय जनता का यह पहला महासंग्राम विफल हो गया। मार्क्स 1857 के जन संग्राम को सामंतों का विद्रोह नहीं मानते। इस संदर्भ में उनका कहना है कि महज़ सामंतों का यह विद्रोह होता तो इसका फैलाव महाराष्ट्र और दूसरे अहिंदी भाषी क्षेत्रों तक व्यापक हिस्सेदारी के साथ क्यों हुआ? विदेशी शक्ति को मात देने के लिए किसी देश के सभी तबक़ों की भूमिका होती है। इसलिए 1857 का विद्रोह ने सामंतों का था, न धार्मिक शक्तियों का वह शुद्ध जन विद्रोह था- ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति की जनाकांक्षा का प्रथम महाविस्फोट!
साहित्य किसी भी देश के समग्र जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज़ होता है। रचनाकारों की संवेदना अपने परिवेश में स्वेदित होती है जिसकी परिणति साहित्यिक कृतियों में होती है। साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा गया है। अर्थात् देश में जो कुछ घटित होता है, वह साहित्य में प्रतिबिंबित होता है। संसार की सभी भाषाओं का साहित्य इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है। 1857 के जन विद्रोह का केंद्र उत्तर भारत का हिंदी भाषी क्षेत्र था। अपने आदि काल से ही हिंदी साहित्य अपने क्षेत्र के समग्र जीवन के स्पंदन का प्रामाणिक दस्तावेज़ रहा है। यह चिरंतनता हिंदी साहित्य में 1857 के पूर्व तक बनी हुई है, परंतु आश्चर्य है कि 1857 के इस आग्नेय का में हिंदी साहित्य में सन्नाटा पसरा हुआ है। कहीं भी 1857 की आग का एहसास नहीं। किसी भी विधा में 1857 पर कोई रचना नहीं। हिंदी साहित्य का यह समय आधुनिक काल है जिसके प्रमुख कवि और आधुनिकता एवं राष्ट्रीयता के प्ररोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द हैं जिसके स्वर के विलाप व्यंजित हो रहा है-
'आवहू मिलाकर रोवहू सब भारत आई,
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखन जाई;'
कवि का यह विलाप ब्रिटिश राज में भारत की दुर्दशा से उत्पन्न है, 1857 के जन विद्रोह की पराजय का परिणाम नहीं! आख़िर 1857 का जन विद्रोह हिंदी के साहित्यकारों की संवेदना के रेंज से अनुपस्थित क्यों है? यह अविश्वसनीय तथ्य क्यों प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा है? ऐसा नहीं हो सकता कि इस काल में 1857 के जन विद्रोह पर हिंदी साहित्य में कुछ लिखा ही नहीं गया। हिंदी साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है और जनपक्षधरता इसकी प्रतिबद्धता। अभिव्यक्ति की जोखिम यह सब दिन उठाता रहा है और सत्ता से टकराहट इसका स्वभाव है। कबीर और कुंजक करी परंपरा इसकी विरासत है। तब फिर हिंदी साहित्य में 1857 क्यों अनुपस्थित है? इसका उत्तर भी हमें मार्क्स के निबंधों में मिलता है। न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून (22 जुलाई, 1853) में मार्क्स के प्रकाशित लेख घ् दि फ्यूचर रिजल्टर ऑफ दि ब्रिटिश रूल इन इंडिया ' एवं अन्य निबंधों के अनुसार अँग्रेज़ों और अँग्रेज़ी सेना का विद्रोही जन समुदाय पर दमन चरम पर था। गाँव के गाँव और शहर जला दिए गए- लूटे गए। लाखों लोगों को कत्ल किया गया। सरकार विरोधी चाहे वह कोई दस्तावेज़ हो या साहित्य जला दिए गए। 1857 संबंधी सभी प्रकार के साक्ष्य राक्षसी हाथों से मिटा दिया गया। 1857 पर मार्क्स या और किसी ने जो कुछ लिखा हैं वह लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी में रखे ब्रिटिश दस्तावेज़ों के आधार पर। हिंदी साहित्य में 1857 की अनुपस्थिति का यही रहस्य है। परंतु हिंदी के शिष्ट साहित्य में अनुपस्थित 1857 का जन विद्रोह हिंदी की विभाषाओं-भोजपुरी, अवधी, मगधी, बुंदेलखंडी आदि के लोकगीतों में मुखर हैं। आज भी हिंदी प्रदेश का चौपाल, खेल-खलिहान 1857 के सेनानियों की वीरगाथाओ से स्पंदित लोकगीतों से आए दिन अनुगूँजित होता रहता है। लोकगीतों को कौन आँख दिखा सकता है?
1857 का स्वतंत्र्य संग्राम और चारण साहित्य
रचनाकार : डॉ. अंबादान रोहड़िया
प्रोफेसर, गुजराती विभाग
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी, राजकोट
भारतीय इतिहास विषयक ग्रंथों का अवलोकन करने से एक बात सुस्पष्ट होती है कि हम भारत का प्रमाणभूत एवं क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत करने में सफल नहीं रहे हैं। हमारे यहाँ इतिहास एवं पुरातत्व विषयक दस्तावेज़ों के जतन करने का कार्य यथोचित रूप से नहीं हुआ है। आज भी भारतीय साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति विषयक अनेक बातें अप्रकट ही रही हैं। अतः आज भी इस क्षेत्र में विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।
इतिहासकार अक्सर दस्तावेज़ों को प्राधान्य देते हैं। किंतु जब दस्तावेज़ उपलब्ध न हो तब इतिहास विषयक जानकारी देने वाले स्रोत भी देखने चाहिए। हमारे यहाँ अनेक कृतियाँ अनैतिहासिक मानकर नज़र अंदाज की गई हैं। निसंदेह इस प्रकार की कृतियों में अतिरंजना और कल्पना विलास अवश्य मिलता है किंतु उनमें सुरक्षित इतिहास को हम नहीं भूल सकते हैं। उसमें इतिहास साथ-साथ है। इस प्रकार के काव्यों का परीक्षण कर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि इनमें कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य प्रकट हुआ है। क्या वह इतिहास के पुनर्लेखन में अप्रस्तुत कड़ियों को जोड़ने में सहायक बन सकता है या नहीं?
भारत पर विदेशियों के आक्रमण की परंपरा सुदीर्घ नज़र आती है। अनेक विदेशी प्रजा यहाँ भारतीय प्रजा को परेशान करती रही है। इनमें ब्रितानियों ने समग्र भारतीय प्रजा और शासकों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। भारतीय प्रजा को जब अपनी ग़ुलामी का अहसास हुआ तो उन्होंने यथाशक्ति, यथामति विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस आंदोलन की शुरुआत थी 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के प्रभावी संघर्षों तथा उनकी विफलता के कारणों के बारे में विपुल मात्रा मे ं ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। किंतु फिर भी, बहुत सी जानकारी, घटनाएँ, प्रसंग या व्यक्तियों के संदर्भ में ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। 1857 के संग्राम विषयक इतिहास की अप्रस्तुत कड़ियों को श्रृंखलाबद्ध करने हेतु इतिहास, साहित्य और परंपरा का ज्ञान तथा संशोधन की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही सत्य के क़रीब पहुँचा जा सकता है। यहाँ 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में सहभागी चारण कवि कानदास महेडु की रचनाओं को प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है।
भारत में व्यापार करने के लिए आकर सत्ता हासिल करने वाले ब्रितानियों ने अपनी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा से यहाँ की प्रजा पर अत्याचार किया था। राजा और प्रजा को विभाजित करके शासन चलाने की कूटनीति उन्होंने अपनाई थी। मगर ब्रितानियों को चारणों की बलिष्ठ बानी का अच्छी तरह परिचय हो गया था क्योंकि ब्रितानियों की कुटिल नीति को यथार्थ रूप से समझने वाले चारण कवियों ने क्षत्रियों को सचेत करने के प्रयास किए थे। किंतु दुर्भाग्य से क्षत्रिय जिस तरह से मुस्लिमों के सामने संगठित न हो पाये उसी तरह ब्रितानियों की कूटनीति को भी समझ नहीं पाये। जोधपुर के राजकवि बांकीदास आशिया ने भारतेन्दु हरिशचंद्र से भी पूर्व सन् 1805 में अपनी राष्ट्रप्रीति और स्वतंत्रता प्रीति का परिचय कराते हुए कहा है कि
आयौं इंगरेज मूलक रै ऊपर, आहंस खेंची लीधां उरां
धणियां मरे न दीधी धरां, धणियां उभा गई धरा...!
(ब्रितानियों ने हमारे देश पर आक्रमण कर सभी के हृदय में से हिम्मत छिन ली है। पहले के क्षत्रियों ने वीरता से शहीद होकर भी धरती नहीं दी, किन्तु आज के इन पृथ्वीपतियों की उपस्थिति में ही धरती शत्रु के अधिकार में चली गई।)
कविराज बांकीदाजी ने क्षत्रियों को उनके कुल की परंपरा की याद दिलाई कि, मातृभूमि पर आक्रमण होता हो, या नारी की इज्जत लूटी जा रही हो उस समय आप वीरता से लड़ते क्यों नहीं? अरे...! वर्षों से यहाँ बसे हुए मुस्लिमों की भी यह मातृभूमि है। अतः आपसी मतभेद भूलकर सबको एकजुट होकर प्रतिकार करना चाहिए देखिए-
महि जातां चीचातां महिला, ये दुय मरण तथा अवसाण;
राखो रे केहिकं रजपूती, मरद हिंदू के मुसलमाण...!
(जब मातृभूमि पर आक्रमण होता या अबला की इज्जत लूटी जा रही हो - ये दोनों समय वीरता से लड़ने के अवसर हैं। इस समय हिन्दुओं या मुसलमानों में कोई तो अपनी वीरता-क्षात्रव्रत प्रदर्शित कर प्रतिकार कीजिए।)
अलबत, पराधीनता जैसे सहज हो चुकी हो - उस तरह जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जैसे बड़े-बड़े राजवीओं ने उदासीनता प्रदर्शित की। इतना ही नहीं ब्रितानियों की कूटनीति से प्रभावित राजवीओं ने सैन्य एवं शस्त्रों को भी छोड़ दिया और ब्रितानियों की शरण ली। इससे नारज कवि ने कहा कि,
पुर जोंधाण उदैपुर जैपुर, यह थाँरा खूटा परियाण;
औके गइ आबसी औके, बांके आसल किया बखाण...
(जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के राजवी आपका वंश ही नामशेष हो गया। यह पृथ्वी पराधीन हो गई है, और जब अच्छा भविष्य होगा तब ही वापस आयेगी (स्वतंत्र होगी) बांकीदास ने यह उचित वर्णन किया है।)
इस तरह, स्वतंत्रता के चाहक कवि के द्वारा स्पष्ट रूप से कटु सत्य सुनाने के बावजूद भी अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ने पर निराश हुए कवि ने अंत में कृष्ण की प्रार्थना की है कि पंचाली की विकटबेला पर सहाय करने वाले हे द्वारकाधीश! ब्रितानियों का मुँह काला कर कलकत्ता पुनः वापस दिलाइए। इन क्षत्रियों की धरती का रक्षण कीजिए। इन ब्रितानियों के दलों ने हाहाकार मचा रखा है तब आप सबका रक्षण कीजिए, और आगे कहते हैं-
"भारखंड सामो भाली जे, वछां सुरभिया दिन वालीजे,
पाध बधा दासा पाली जे, गोपीवर टोपी गालीजे...! "
(हे गोपीवर हे द्वारिकाधीश आप कृपा कर भारत खंड पर अभी दृष्टि करें। गायों और बछड़ों के सुख के दिन वापस कीजिए (अर्थात् आप पुनः गोकुल में आएं) हिन्दुओं का पगड़ी बांधने वाले दासों का जतन कीजिए, और इन टोपीवाले (ब्रितानियों) का विनाश करें।)
बूंदी के राजकवि सूर्यमल्लजी वीर रस के अनन्य उपासक थे। किन्तु उस समय उनकी काव्यधारा रूपी भागीरथी को झेलने वाले कोई शंकर रूपी राजसी नहीं मिला। अतः आगम की संज्ञा परख चुके कवि ने वीरसतसई की रचना की किन्तु, योग्य प्रतिसाद नहीं मिलने से उसे अधूरी ही छोड़ दी।
कवि ने अपने राष्ट्रप्रेमी मित्रों को निजी तौर से पत्र लिखकर ब्रितानियों के काले कारनामों से वाकिफ किया था और सबको संगठित होने के लिए प्रेरित किया था। उनके द्वारा रचित काव्य वीरसतसई का यह दोहा तो राजस्थान और गुजरात में अति प्रसिद्ध हुआ है।
'इला ने देणी आपणी, हालरिये हलुराय;
पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई माय,'
(क्षत्राणियाँ - माताएँ अपने पुत्रों को पालने में सुलाकर लोरी में ही वीरता का महत्व समझाती हैं और मातृभूमि कभी भी दुश्मनों को नहीं देने के लिए कहती हैं तथा वीर मृत्यु की महिमा दर्शाती हैं।)
अलबत, उस समय की विकट परिस्थिति में क्षत्रिय एक बनकर प्रतिकार नहीं कर सके, वीरता की बात सुनने, समझने और युद्ध भूमि में प्रतिकार करने की ताक़त खो बैठे हुए समाज को कवि ने उपालंभ रूपेण कटु जहर का पान तो करवाया लेकिन यह औषधि कामयाब न हुई। क्षत्राणी के मुख में रखी हुई इस उपालंभपूर्ण बानी में कवि की मनोवेदना प्रकट होती हुई नज़र आती है।
कंत धरै किम आविया, तेगां रो धण त्रास;
लहंगे मूझ लुकी जिए, बैरी रो न बिसास...!
(हे पतिदेव! आप दुश्मनों की तलवार के प्रहार के भय से डर कर घर आये हैं? यदि ऐसा है तो दुश्मनों का कोई भरोसा नहीं, आप मेरे वस्त्रों में छिप जाइए।)
ब्रिटिश जैसी विलक्षण प्रजा चारणों की कुल परंपरा और उनकी शबद शक्ति से वाफिक न हों यह संभव नहीं है। वे अच्छी तरह जानते थे कि क्षत्रियों को युद्धभूमि में केसरिया कराने वाले, अंतिमश्वास तक जीवन मूल्यों के जतन के लिए प्रयास करने वाले चारण ही हैं। अतः उन्होंने क्षत्रियों खासकर राजवीयों को चारणों से दूर करने की नीति अपनाई। उनको व्यभिचारी, विलासी और प्रजापीड़क बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा का जहर पिलाया। राजा को राजकवि तथा प्रजा से विमुख बना दिया।
कूटनीतिज्ञ ब्रितानियों ने राजा और प्रजा दोनों को लूटने की नीति अपनाई। अतः शंकरदान सामोर ने बहुस्पष्ट रूप से ब्रितानियों की नीति खुली कर दी है।
महल लूटण मोकला, चढया सुण्या चंगेझ;
लूटण झूंपा लालची, आया बस अंगरेज,
(भारतवर्ष पर चंगेजखान जैसे अनेक दुश्मन इसके पूर्व आये और उन्होंने राजमहलों में लूट चलाई है। किन्तु गरीबों को लूटने के लालची केवल ब्रिटिश ही है।)
1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में कविराज शंकरदान सामोर ने लोककवि बनकर पूरे राजस्थान का ध्यान आकर्षित किया। उस समय बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और जयपुर जैसे बड़े राज्यों ने हिम्मत प्रदर्शित नहीं की, किन्तु शंकरदानजी ने अपना चारणधर्म अदा करते हुए स्पष्ट रूप से सरेआम मशालजी का काम किया उन्होंने बीकानेर के सरदारसिंह राठौड़ को उपालंभ दिया कि,
"देख मरे हित देस रे, पेख सचो राजपूत;
सिरदरा तोनै सदा, कहसी जगत कपूत"
(जो मातृभूमि के मानार्थ शहीद होता है वही सच्चा राजपूत है, किन्तु हे देशद्रोही सरदारसिंह राठोड़ आपको तो सभी कपूत के रूप में ही पहचानेंगे।)
"लाज न करे चोडेह लड, देस बचावण दिन;
बलिदानां बिन बावला, राजवट कदी रहे न... "
(हे सरदारसिंह तुम अभी भी समय को पहचान कर नारी की तरह डरना, लजाना छोड़कर खुलेआम मैदान में आ जाओ। यह समय तो देश को बचाने का है। अरे मूर्ख राजवट क्षत्रियवट बलिदान के बिना कभी नहीं रहती है।)
भरतपुर के वीरों ने दर्शाये हुए अप्रतिम शौर्य की प्रशंसा करता हुआ यह काव्य तो लोकगीत बनकर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ था।
" फिरंगा तणी अणवा फजेत, करवानै कस कस करम;
जण जण बण जंगजीत, लडया ओ धरा लाडला"
(फिरंगीयो-ब्रितानियों की फजीहत, पराजित करने हेतु एक-एक शूरवीरों ने कमर कसी और युद्ध में कूद पडे। इस धरा के लाडले ऐसे एक-एक वीर संग्रामजीत योद्धा बन लड़े।)
भरतपुर की भव्य शहादत की तारीफ करते हुए कवि ने मानो ब्रितानियों को चेतावनी दी कि तुम्हारी सत्ता अब यहाँ नहीं चलेगी। अतः तुम वापस जाओ। कवि ने भरतपुर के राजवी को दशरथ नंदन कह कर देशप्रेम का लोक हृदय में कैसा स्थान होता है यह दर्शाया है, देखिए:
" गोरा हटजया भरतपुर गढ बांको,
नंहुं चालेलो किलै माथै बस थांको;
मत जांणिजे लडै रै छोरो जाटां को;
ओतो कुंवर लडै रे दसरथ जांको,"
(हे गोरे ब्रितानियों यहाँ से तुम वापस चले जाओ, क्योंकि भरतपुर का गढ़ किला अजेय है। उस पर भी तुम्हारा प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम यह मत मानना कि तुम्हारे विरूद्ध मात्र जाट योद्धा ही लड़ते है। वे तो दशरथनंदन ऐसे भगवान राम ही हैं।)
भरतपुर और अन्य राज्यों में व्याप्त क्रान्ति की ज्वाला शांत पड़ने लगी है। अतः कवि ने इस अवसर का स्वागत कर देश को आजादी दिलाने के लिए सबको उत्प्रेरित किया, फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा-ऐसा भी कहा। किन्तु भारतवर्ष की गुलामी की जंजीरें टूटी नहीं थी। इस बात पर समाज ने गौर नहीं किया था यथा-
" आयो अवसर आज, प्रजा पख पुराण पालग;
आयो अवसर आज, गरब गोरा रो गालण;
आयो अवसर आज, रीत राखण हिंदवांणी;
आयो अवसर आज, रण खाग बजाणी;
काल हिरण चूक्या कटक, पाछो काल न पावसी,
आजाद हिन्द करवा अवर, अवसर इस्यो न आवसी,"
(आज प्रजा का रक्षक बनकर उसका निर्वाह करने का अवसर आया है। आज तो इन गोरे ब्रितानियों के अपराजित होने के अभियान को दूर करने का अवसर आया है। आज तो हिन्दुओं के कुल की परंपरा और नीति-रीति बनाये रखने का समय आया है। आज तो युद्धभूमि में वीरता से तलवार घुमाने का अवसर आया है। आज इस पल का लाभ लेना सैनिक चूक जायेंगे तो फिर ऐसा समय नहीं आएगा। हिन्दुस्तान को आजाद करने के लिए ऐसा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा। इसीलिए सब वीरता से लड़ लीजिए।)
कविराज शंकरदान सामोर की काव्यबानी में लोगों को शस्त्र की ताकत का दर्शन हो यह बात स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेमियों के लिए शंकरदान सामोर के गीत कुसुमवत् कोमल थे मगर देशद्रोहियों के लिए तो वह बंदूक की गोली समान है। इसीलिए तो किसी ने कहा है कि -
' संकरिये सामोर रा, गोली हंदा गीत;
मितर सच्चा मुलक रा, रिपुवां उल्टी रीत'
(कविराज शंकरदान सामोर के गीत तो बंदूक की गोली जैसे हैं। वह देशप्रेमियों के लिए मित्रवत है। लेकिन देशद्रोहियों के वह कट्टर दुश्मन है।)
चारण कविश्री कानदास महेडु का 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान -
कानदास महेडु ने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य में गुजरात के राजवीओं को ब्रितानियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा फरमाई गई हों ऐसी संभावनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों के विरूद्ध शस्त्र उठाने वाले सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनका पाल गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रमणलाल धारैया ने यह उल्लेख किया है कि "खेडा जिले के डाकोर प्रदेश के ठाकोर सूरजमल्ल ने 15 जुलाई 1857 के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गांव की जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्रोह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड़ लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एडूजा ने पाला गांव का संपूर्ण नाश किया था।"
डॉ. आर. के. धारैया ने 1857 इन गुजरात नाम ब्रिटिश ग्रंथ में भी उपर्युक्त जानकारी दी है। और अपने समर्थन के लिए Political depertment volumes में से आधार प्रस्तुत कर यह जानकारी दी है। इससे श्रद्धेय जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान दिया था। अलबत्ता यहाँ Kands charan और Pala का अंग्रेजी विकृत नाम है।
ब्रितानियों ने हमारे अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से उल्लेखित किये हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि संदर्भों को उद्धृत किया जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कानदास महेडु अर्थात् कानदास चारण और Pala अर्थात् पाला एक ही है।
'चरोतर सर्वे संग्रहे' के लेखक पुरूषोत्तम शाह और चंद्रकांत कु. शाब भी यह उल्लेख करते है किं " कानदास महेडु सामरखा 1813 में संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुएं थे। 1857 के आंदोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों को मदद करने के कारण पकड़ लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा कर अपनी जंजीरें तोड़ डाली थीं। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ दिया था।"
1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में कानदास का गाँव जप्त कर लेने के दस्तावेजी आधार भी हैं। कवि ने कैद मुक्त होने के बाद अपना गांव वापस प्राप्त करने हेतु किया हुआ पत्राचार भी मिलता है। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के चारण साहित्य हस्तप्रत भंडार में कानदास महेडु के इस प्रकार के दस्तावेज संग्रहीत हैं। अपने आप को ब्रितानियों की कैद से मुक्त करने हेतु दरियापीर की स्तुति करते हुए रचे गए छंद भी मिलते हैं।
ब्रितानियों ने कानदास को कैद कर उनको गोधरा की जेल में रखा था और उनके हाथ-पाँव में लोहे की भारी जंजीरें डालकर अंधेरी कोठरी में रखा गया था। अतः कवि ने अपने आपको मुक्त करने के लिए दरियापीर की स्तुति के छंद रचे और ब्रितानियों के सामने ही उनके कदाचार तथा अनुचित कार्यों को प्रकट किया। इन छंदो में कुछेक उदाहरण उद्धृत हैं-
अचणंक माथे पडी आफत, राखत केदे सोंप्यो;
वलि हलण चलण अति त्रिपति थानक जपत थियो;
दुल्ला महंमद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...
(अचानक मुझ पर मुश्किल आई और कैद किया गया जहाँ बंधनों के कारण हवा में हलनचलन अति कष्टदायी बन गया और साथ ही मेरा गाँव (पाड़ला) भी जप्त किया गया। इस प्रकार मेरा मन घनघोर चिंताग्रस्त हुआ। इस परिस्थिति में ताकत कहां तक चल सकती थी। दरियापीर मेरी सहायता कर मेरी जंजीर तोड़ो।)
भूडंड कोप्यो भूरो, धार केहडो तिण घड़ी;
लोहा रा नूधी दियां लंगर, कियो कबजे कोटडी;
तिणे परे जडिया सखत ताला, उपर पैरो आवगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...
(धरती के खंभे जैसा दृष्ट ब्रिटिश अमलदार मुझ पर कोपायमान हुआ उस समय मेरी स्थिति कैसी हुई? हाथ-पाँव में लोहे की जंजीरें बाँधकर मुझे अंधेरी कोठरी में डाला गया और सख़्त ताला बंदी के उपरांत चौकीदार तैनात किया गया है। अतः हे दरियापीर मेरी मदद कीजिए।) ब्रितानियों के सामने ही उनकी भाषा, वेशभूषा अभक्ष्य खानपान आदि का उल्लेख करतें हुए कवि कहते हैं-
कलबली भाषा पेर कुरती, महेर नहीं दिल मांहिया;
तोफंग हाथ ने सीरे टोपी, सोइ न गणे सांइया;
हराम चीजां दीन हिंदु, लाल चेरो तण लगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...
(जो समझ में न आए ऐसी (कलबली) भाषा बोलते है और कुर्ता (पटलून) पहनते हैं वे निर्दयी और निष्ठुर हैं। हाथ में बंदूक और सिर पर टोपी रखते हैं, हिन्दू और मुसलमानों के लिए जो अग्राह्य है उस गाय और सुअर का मांस वे खाते हैं और लाल चहरे वाले हैं।)
शाखा न खत्री नहीं सौदर वैश ब्रम व कुल वहे;
हाले न मुसलमान हींदवी, कवण जाति तिण कहे,
असुध्य रहेवे खाय आमख, नाय जलमां होय नगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...
(जिसके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे कर्म नहीं है। हिन्दू या इस्लाम धर्म को मानते नहीं हैं, उसे किस जाति का मानना चाहिए। वे ब्रिटिश अपवित्र रहन-सहन, भ्रष्ट करने वाले और मांसाहारी है और निर्लज्जता से जल में नग्न स्नान करते हैं।)
इस तरह, कवि ने पाँच भियाखरी छंद, नौ गिया मालती छंद और एक छप्पय की रचना कर ब्रितानियों की उपस्थिति में दरियापीर की स्तुति की। लोक मान्यता के अनुसार इस छंद को बोलते समय तीन-तीन बार कानदासजी की जंजीर टूट गई। किन्तु लोक मान्यता को हम ज्यादा महत्व न दें फिर भी यह घटना ब्रितानियों के सम्मुख ही उनके कदाचार, अत्याचार और असंस्कारिता को खुले आम प्रकट करने की कवि की हिमम्मत, उनकी निडरता और सत्यप्रिय स्वभाव की प्रतीति कराती है।
ग्यारह मास की जेल के बाद कवि कानदासजी पर कानूनी कारवाई हुई, उनको प्राणदंड की सजा हुई, उनको तोप के सामने खड़ा रखा गया किन्तु तोप से विस्फोट नहीं हुआ। इससे या और कुछ कारण से कवि को ब्रितानियों ने मुक्त किया, उनका पाला गांव वापस नहीं किया।
सजा मुक्त हुए कानदासजी को वडोदरा के श्री खंडेराव गायकवाड़ ने अपने यहाँ राजकवि के रूप में रखा। उत्तरावस्था में उनका मान-सम्मान वृद्धि होने पर लूणावाड़ा के ठा. दलेलसिंह ने संदेश भेजा कि आपको पाला गांव वापस देना है, उसे स्वीकार करने हेतु पधारकर लूणावाड़ा की कचहरी पावन कीजिए। अलबत्ता दलेलसिंह ने 1857 में ब्रितानियों को मदद कर मातृभूमि के प्रति गद्दारी की थी, इसीलिए, कवि ने गांव वापस प्राप्त करने के बजाए उपालंभ युक्त दोहा लिखकर भेजा-
"रजपूतां सर रूठणो, कमहलां सूं केल;
तू उपर ठबका तणो, मारो दावो नथी दलेल"
इस तरह कवि ने व्यंजनापूर्ण बानी में दलेलसिंह को अक्षत्रिय घोषित किया, क्षत्रिय को डाँटने का चारण का अधिकार है।
कानदास महेडु ने सर्वस्व को दाव पर रखकर मातृभूमि को आजाद करनें के प्रयत्न किये हैं। इसी कारण से ही ब्रितानियों ने स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान कवि को कैद में रखकर उनको भारतीय प्रजा से अलग कर दिया गया ताकि वे काव्य सृजन द्वारा समाज में तद्नुरूप माहौल का निर्माण कर न सके।
ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। इनकी क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-
"मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;
गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत"
कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।
जिस तरह पंचमहाल को जगाने का काम कानदास चारण और अजित सिंह गेलवा ने किया। इसी तरह ओखा के वाघेरो को प्रेरित करने का काम बाराडी के नागाजी चारण ने किया। 1857 में ब्रितानियों के सामने हथियार उठाने वाले जोधा माणेक और मुलु माणेक को बहारवटिया घोषित करके ब्रितानियों ने बड़ा अन्याय किया है। सही मायने में वह स्वतंत्रता सेनानी थे। आठ-आठ साल तक ब्रितानियों का प्रतिकार करने वाले वाघेर वीरों को ओखा प्रदेश की आम-जनता का साथ था। इस क्रांति की ज्वाला में स्त्री-पुरुषों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। आख़िर जब वह एक छोटे से मकान में चारों ओर से घिर गए थे, तब उनको हथियार छोड़ शरण में आने के लिए कहा गया। सिर्फ़ पाँच लोग ही बचे थे। सब को पूछा गया कि क्या किया जाय? तो तीन लोगों ने शरणागति ही एक मात्र उपाय होने की बात कही। मगर नागजी चारण ने हथियार छोड़ के शरणागत होने के बजाय अंतिम श्वास तक लड़ने की सलाह दी। चारों ओर से गोलियाँ एवं तोप के गोलों की आवाज़ उठ रही थी। उसी क्षण नागजी ने जो गीत गाया, वह आज सौ साल के बाद भी लोगों के रोम-रोम में नई चेतना भरता है। जोधा माणेक और मुलु माणेक हिंदू वाघेर थे, इतना ही नहीं इस गीत को गाने वाला भी चारण था। इसीलिए ओखा जाबेली शब्द का प्रयोग हुआ था। आज उसका अपभ्रंश पंक्ति में 'अल्ला बेली' गाया जाता है। नागजी चारण ने हथियार छोड़ने के बजाय वीरता से मर मिटने की बात करते हुए गाया था कि...
ना छंडिया हथियार, ओखा जा बेली;
ना छंडिया हथियार, मरवुं हकडी वार,
मूलूभा बंकडा, ना छंडिया हथियार...
चारण कवियों कि यह विशिष्ट पंरपरा रही है कि मातृभूमि के लिए या जीवनमूल्यों के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले की यशगाथा उन्होंने गायी है, इनाम, या अन्य लालच की अपेक्षा से नहीं।
इस तरह चारण साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि विदेशी और विधर्मी शासकों के सामने चारण कवियों ने सबसे पहले क्रांति की मशाल प्रज्जवलित की है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से बावन वर्ष पूर्व 1805 में ही बांकीदास आशिया ने ब्रितानियों के कुकर्मो का पर्दाफाश किया था। जोधपुर के राजकवि का उत्तरदायित्व निभाते हुए भी बांकीदास ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना चारणधर्म-युगधर्म निभाया था। 1857 से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक शताधिक चारण कवियों ने अपनी सहस्त्राधिक रचनाओं द्वारा भारत के सांस्कृतिक एवं चारणों की स्वातंत्र्य प्रीति का परिचय दिया है।
1857 में स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब फडनवीस के साथ साथ हर प्रांत में से जिन लोगों ने अपने-अपने प्राणों की आहुती दी है, उनका इतिहास में उल्लेख हो इसीलिए भारतीय साहित्य से या अन्य क्षेत्र से प्राप्त कर विविध आधारों का उपयोग करके नया इतिहास सच्चा इतिहास आलेखित हो यही अभ्यर्थनासह....।
1857 का प्रथम मुक्ति संग्राम और गुजराती उपन्यास
डॉ. बिपिन आशर,
प्रॉफेसर, गुजराती भाषा-साहित्य भवन,
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी, राजकोट-5 (गुजरात)
आज जब राष्ट्रवाद के नाम से मामकावाद (निजी स्वार्थ) विकृत होता चला जा रहा है तब इस संकुचित राष्ट्रवाद से उच्च भावना - मानवतावाद के दर्शन कराने वाली और वसुधैव कुटुम्बकम् की विचारधारा प्रकटाने वाली भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप का सहज स्मरण होता है। भारतीय प्रजा ने छोटे-बड़े अनेक युद्ध किए हैं, किन्तु युद्धभूमि में भी वह अपना मानवधर्म भूली नहीं हैं। युद्धभूमि में भी जीवन मूल्यों- मानवधर्म की जान की बाजी लगाकर जतन करने वाली भारतीय प्रजा विश्व की प्रजा के लिए एक आश्चर्यजनक पहेली बन गई है। महात्मा गांधी भारत भूमि में ही जन्म ले सकते हैं अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो भारत भूमि ही ऐसे महात्मा को जन्म दे सकती है। महात्मा गांधी ने भारतीय जीवनमूल्यों को आत्मसात् कर निजी आत्मोद्धार करने में ही अपने अवतार कार्य की पूर्णाहूति नहीं समझी थी, किंतु ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति भारतीय संस्कृति को शोभित कर -ईस प्रकार से अहिंसक युद्ध कर समग्र विश्व में भारतीय मुक्ति संग्राम की एक अनोखी पहचान खड़ी कर दी थी। गांधीजी प्रेरित इस स्वातंत्र्य संग्राम के अनूठेपन ने भारतीय भाषा-साहित्य के सैकड़ों सर्जकों को आकर्षित किया था और इस संदर्भ में सहस्त्राधिक कृतियाँ भी सृजित हुई थीं। इस स्वातंत्र्य संग्राम का बीज तो 1857 में बोया गया था। 1857 में भारत देश को ब्रिटिशों की चंगुल से मुक्त कराने के प्रयास के रूप में जो विद्रोह हुआ वह हमारा प्रथम मुक्ति संग्राम था। यह मुक्ति संग्राम भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय बन कर रहा तब एक साहित्यकार के रूप में हमारा यह कर्तव्य है हम अपनी भाषा के साहित्य में भारत के इस प्रथम स्वातंत्र्य युद्ध का प्रतिबिंब कहाँ, किस तरह और किस रूप में नज़र आता है उसका सन्निष्ठ अवलोकन करें। यह सन्निष्ठ अवलोकन हमारी राष्ट्रप्रीति का द्योतक बना रहेगा और हमारा यह अवलोकन पाठक के हृदय में स्थित राष्ट्रप्रेम को सुदृढ़ करने में निमित्त बनेगा।
अन्य भारतीय भाषाओं की तरह गुजराती भाषा साहित्य में 1857 की समयावधि का आलेखन करती हुई जिन कृतियों की रचना हुई हैं उनमें गुजराती साहित्य के मूर्धन्य कथासर्जक, इतिहासज्ञ, चिंतक और शिक्षाविद् मनुभाई पंचोली- 'दर्शक' द्वारा रचित 'बंधन और मुक्ति' विशेष उल्लेखनीय है। दर्शक ने 1935 में '1857' शीर्षक के अंतर्गत नाटक लिखा था जिसे अंग्रेज सरकार ने ज़ब्त कर लिया था। इस ज़ब्ती के कारण में यह कहा गया कि- 'यह नाटक हिन्दुस्तान की एक कौम के प्रति द्वेष फैलाता है।' नाटक की ज़ब्ती के बाद सर्जक ने इस विद्रोही रूप को 1939 में 'बंधन और मुक्ति' उपन्यास के रूप में प्रकट किया। इस उपन्यास को हिंदी और तमिल भाषा में अनूदित किया गया। इस उपन्यास में ऐतिहासिक चरित्र के रूप में तो मात्र तात्या टोपे का एक ही चरित्र निरूपति हुआ है और वह भी गौण चरित्र के रूप में। प्रायः चरित्र एवं घटनाएँ काल्पनिक होने के बावजूद भी सर्जक ने अपनी इतिहासज्ञता और सर्जकता के ज़रिए 1857 की कालावधि को जीवंत कर दिया है। दर्शक इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास के बीच का भेद अच्छी तरह जानते हैं। उनकी इस सोच के बारे में मंतव्य उल्लेखनीय है कि-
"उपन्यासकार को युग चेतना को लक्ष्य में रखते हुए हक़ीकतों का संकलन या पसंद करने का स्वातंत्र्य तो सहज रूप से होता है, किन्तु अपने कथावस्तु या चरित्रलेखन की दृष्टि से युगचेतना के साथ तद्नुरूप नई घटनाओं का सर्जन करने, घटनाओं में परिवर्तन करने का स्वातंत्र्य भी होता है। ऐतिहासिक उपन्यासकार को जब किसी एक जमाने की चेतना को प्रत्यक्ष करनी हो तब उस चेतना को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करना ही चाहिए और तब अपने चरित्रों तथा उनके कार्यों के संबंध में छूट लेना अनिवार्य है।"
"इतिहासकार मिट्टी एकत्रित कर उसे रंगरूप देता है, किन्तु कहानीकार का कार्य उसे सुगठित कर प्राण संचार करना है।"
'बंधन और मुक्ति उपनन्यास' इन मंतव्यों के संदर्भ में मूल्यांकित करने योग्य है।
अंग्रेजों ने जिसे मात्र 'सिपाही का विद्रोह' ही कहा था वह वस्तुतः अंग्रेजों को भारत से निकाल देने का सुनियोजित, सुसंगठित और अनेक प्रदेशों तथा कौमों के प्रतिनिधियों वाला, भारतीय प्रजा की राष्ट्रीय भक्ति को प्रकट करने वाला एक स्वातंत्र्य युद्ध ही था। इस युद्ध के पूर्व देशभर की व्याकुलता की विपुल जानकारी तथा कागज़ात भी हैं। कंपनी सरकार के अन्यायों के प्रति कानूनी आंदोलनों के तथा ब्रितानियों के कितने प्रयास विफल हुए उसके प्रमाण भी मिलते हैं। इस घटना ने भारतीय प्रजा के हृदय में राष्ट्रीय भावना को जन्म दिया था। मनभाई पंचोली 'दर्शक' ने देश की व्याकुलता और भारतीय प्रजा के हृदय में आकार ले रही स्वतंत्रता की भावना के एक छोटे-से नमूने के रूप में नरसिंगपुर की रियासत को 'बंधन और मुक्ति' उपन्यास में निरूपित किया है। ऐसे अनेक नरसिंगपुरों के सर्जन के बाद विद्रोह की आग प्रकटाने के लिए वीर-व्यक्ति-राष्ट्रप्रेमी निकल पड़े थे। उनके प्रयासों ने तथा उनकी राष्ट्रभक्ति का अनादर कर इस मुक्तिसंग्राम को मात्र 'सिपाही का विद्रोह' कहकर उसका अवमूल्यांकन करना इतिहासज्ञ एवं चिंतक दर्शक को उचित नहीं लगा है। अतः उन्होंने 1857 की कालावधि को पसंद कर इस उपन्यास की रचना की है जो स्थूल इतिहास के गर्भ में बहते हुए बृहत् इतिहास का बोध कराता है। यहाँ गांधीयुग के इस सर्जक ने स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि पर स्थूल तथा सूक्ष्म संघर्षों का निर्माण कर सच्चे मानवधर्म को दर्शाने का जो प्रयास किया है वह इस उपन्यास का उत्तमांश है।
उपन्यास की संरचना का अवलोकन करते हैं तो उसमें मुख्यतः दो कथा प्रवाह नज़र आते है; एक तरफ 1857 के मुक्तिसंग्राम के साथ संलग्न प्रसंगादि तथा चरित्रों का आलेखन और दूसरी ओर राजशेखर और सुभगा के बीच अंकुरित प्रेम का आलेखन। इस दृष्टि से देखें तो उपन्यास में युद्ध कथा और प्रेम कथा - दोनों के ताने-बाने गूंथित हैं। उपन्यास में साद्यन्त मुक्तिसंग्राम का प्रवाह बहता हुआ नजर आता है।
उपन्यास का आरंभ फाँसी की सजा का हुक्म प्राप्ति किए हुए गुरूश्रेष्ठ वासुदेव और शिष्य अर्जुन को पशुपतिनाथ के मंदिर में मिलती महारानी देवकी की व्यथाभर स्थिति के आलेखन से होता है। बंदीवान अर्जुन देवकी को कहता है: 'भाभी, तमारे तो हजु शेखर ने पण धरवो पडशे।' (भाभी, आपको तो अभी शेखर को भी देना पड़ेगा)। अंत में नरसिंगपुर की नारायणी सेना के अध्यक्ष राजशेखर को मृत्युदंड की सजा फरमाई जाती है। उपन्यास के आरंभ में और अंत में मृत्युदंड के प्रसंग निरूपित हैं, किन्तु दोनों प्रसंगों के बीच स्थिति परिस्थितिगत भिन्नता सर्जक के हेतु के लक्ष्य को उद्घाटित कर देती है। वासुदेव और अर्जुन को फाँसी की सजा का हुक्म अंग्रेज कंपनी के शासन के विरूद्ध विद्रोह के आरोप से अंग्रेज प्रतिनिधियों के फैसले के रूप में आता है, जबकि राजशेखर को हुई मृत्युदंड की सजा देवकी के ही सहकार्यकर एवं विद्रोही-नेता बने हुए तात्या टोपे का फैसला है जो शेकर द्वारा किए गए विद्रोह के कारण दिया गया है।
सर्जक ने उपन्यास में वासुदेव और अर्जुन की कथा 'पूर्व कथा' के रूप में निरूपित की है। इस कथा से गतिमान हुई आनुषंगिक कथा तीन चरण में विकसित होती हुई नज़र आती है। (क) महाराजा श्रीवर्धन के अवसान के बाद नरसिंगपुर के राजमहल में घटित घटनाओं से आरंभ कर राजशेखर को नालदुर्ग की लश्करी छावनी में प्रशिक्षण हेतु भेजने की बात तय होती है वहाँ तक की घटनाओं को प्रथम चरण में रखी जा सकती है। (ख) राजशेखर के नालदुर्ग में प्रवेश से शुरू कर वह गुप्त तहख़ाना के ज़रिए नालदुर्ग से फरार हो जाता है वहाँ तक की घटनाए दूसरे चरण में रखी जा सकती है। (ग) नालदुर्ग से फरार हो कर आया हुआ राजशेखर नारायणी सेना का अध्यक्ष बनता है उस घटना से शुरू कर उसे जब विद्रोह करने के बदले में मृत्युदंड की सजा दी जाती है वहाँ तक की घटनाएँ तीसरे चरण में रखी जा सकती हैं। कथासर्जक ने तीन चरण में विभाजित कथा में 1857 की कालावधि को किस तरह जीवंत किया है उसे बंधन और मुक्ति के संदर्भ में आइए, एक नज़र देखते हैं:
आ फिरंगीराज न जोइए....आ देशनी छाती पर परदेशीनो पग न जोइए छ - (यह फिरंगी राज्य नहीं चाहिए...इस देश की छाती पर परदेशी का पैर नहीं चाहिए।) स्वतंत्रता के बारे में ऐसी सादी ज्ञ् सीधी समझ लेकर कंपनी सरकार की पराधीनता से देश को मुक्त कराने हेतु उपन्यास के चरित्र छोटे-बड़े युद्ध करते हैं। फिरंगी राज्य को दरियापार कराने का संकल्प करनेवाले, तीन वर्ष तक कंपनी सरकार का सामना कर भारतीय प्रजा के हृदय में मुक्ति की भावना का संचार करनेवाले और अंत में स्वस्थता से मृत्युदंड की सजा को स्वीकार कर लेनेवाले विद्रोह के मंत्रदृष्टा गुरूश्रेष्ठ वासुदेव और उसके शिष्य अर्जुन मुक्तिसंग्राम के उद्भावक और प्रेरक बल हैं। फाँसी पर लटके हु े अर्जुन के समक्ष ही जिन्हों ने देशमुक्ति के लिए जंग की प्रतिज्ञा की है ऐसी नरसिंगपुर की महारानी देवकी और वासुदेव के साथ रही हुई उसकी पालक पुत्री सुभगा भी युद्ध में सम्मिलित हुई है। देवकी का पुत्र राजशेखर, ऐतिहासिक चरित्र तात्या टोपे, वर्षां से कंपनी सरकार में नौकरी करने वाले शिख अफसर सोहनसिंह, सोहनसिंह का पुत्र करतारसिंह और अर्दली रहमान जैसे चरित्र भी युद्ध में सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। कथासर्जक ने इन चरित्रों के वार्तालापों एवं प्रवृत्तियों के आलेखन द्वारा 1857 की कालावधि में प्राण संचारित किए हैं।
उपन्यास के ये मुख्य चरित्र एक-दूसरे के हृदय में राष्ट्रभावना जागृत कर प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम की भूमिका का निर्माण करते हैं और देशभर में राष्ट्रभावना का प्रवाह बहाते हैं। वासुदेव और अर्जुन के जीवन और शहादत ने अनेक भारतीय लोगों को तो झकझोर दिया था। देवकी में भी राष्ट्रीय मुक्ति की भावना जगाई थी। देवकी ने अंग्रेज कंपनी सरकार के वफादर शिख अफसर सोहनसिंह को जागृत किया था और शेखर-सुभगा को उचित रूप से प्रशिक्षित किया था। शेखर ने नारायणी सेना में प्राण-संचार किए थे। इस तरह राष्ट्रभावना की ज्योति दूसरी ज्योति को प्रकटा रही थी। इन भारतीय चरित्रों के अतिरिक्त भी जनरल डेनियल, जनरल ज्होनसन, मूरहेड, एमीली, पोर्लाक जैसे चरित्र भी निरूपित हुए हैं जो विभिन्न प्रकार की भावना - प्रकृति वाले ब्रिटिशरों के प्रतिनिधि स्वरूप चरित्र बने रहे हैं। उपन्यास में आलेखित कथा और चरित्र 1857 के मुक्तिसंग्राम के माहौल - निर्माण में और उसे तादृश्य करने में भी कैसी भूमिका निभाती हैं - आइए, इसे भी सविस्तार देखते हैं-
कथासर्जक ने तत्कालीन रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में नरसिंगपुर के महाराज श्रीवर्धन के चरित्र को निरूपित किया है। ऐश-आरामप्रिय और निर्माल्य जैसे श्रीवर्धन का राज्य कारोबार कंपनी सरकार ने हस्तगत किया था। उसके राज्य में दो अंग्रेजों के खून होने से उसका राज्य खालसा कर दिया गया और उसके सात तालुके की ठकुरात जब्त कर ली गई थी। इसके बावजूद भी, बलवो करी सरकारनो गुनेगार नहीं थाउं। (विद्रोह कर सरकार का गुनहगार नहीं बनूंगा।) ऐसा मन ही मन तय कर उन्होंने कंपनी सरकार की सत्ता स्वीकार कर ली थी। वासुदेव और अर्जुन ने इस अन्याय का विरोध किया और वहाँ से फरार हो गए। इसके बाद तीन साल तक वे कंपनी सरकार का सामना करते रहे। अंत में वे पकड़ लिए गए और मृत्युदंड स्वीकार किया।
वासुदेव तीन वर्ष तक घूमते रहे। उनके पास नेपाल के महामंत्री राजनीतिज्ञ जंगबहादुर, महाराष्ट्रीयन रंगो बापुजी, शिख महारानी जिंदल, युद्धकुशल तात्या टोपे, महारानी लक्ष्मीबाई इत्यादि मार्गदर्शन लेने आते थे और उनके मार्गदर्शन से सोई हुई भारतीय प्रजा को जागृत करने के प्रयास किए जाते थे। विद्रोह के इस मंत्रदृष्टा ने स्वाधीनता का मंत्र समझाया। परदेश में एक इटालियन देशभक्त ने वासुदेव को व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा था,
"आवडा छ फूट उंचा करोड़ो माणसोने आटला थोड़ा अंग्रेजोए केम पराधीन कर्या हशे? ने हजु की रीते पराधीन राख्या हशे? केवल अशक्य।"
(इतने छः फूट ऊँचाईवाले करोड़ों मनुष्यों को इतने क्म अंग्रेजों ने किस तरह पराधीन किया होगा? और आज भी किस तरह पराधीन रखा होगा? केवल असंभव)
"मानवीना आत्मानुं आवुं भयंकर अपमान सांखी रहीने तमे मने तमारी आध्यात्मिक संस्कृतिनी ओलखाण कराववा आव्या छो?...जाओ पहेलां ए अपमान धोई नाखो...घूंटणे नहीं पडीने जीववानी आध्यात्मिकता एकवार शीखी आवो." (पृ. 15)
("मनुष्य की आत्मा का ऐसा भयंकर अपमान सहन कर आप मुझे आपकी आध्यात्मिक संस्कृति का परिचय कराने आये हैं?....जाइए, पहले उस अपमान को धो डालिए...घूंटने नहीं पड़कर जीने की आध्यात्मिकता एक बार सीखकर आइए..." (पृ. 15))
इस मंत्र ने ही वासुदेव को जागृत किया, कंपनी सरकार को हिन्दुस्तान से निकाल देने का संकल्प करवाया, मुक्ति के लिए युद्ध करवाया, कंपनी सरकार को थका कर डेनियल को सात-सात बार पराजित किया और अंत में पकड़े गये। गिरफ्तार हुए वासुदेव अदालत के समक्ष जिन विचारों को व्यक्त करते हैं उनमें अंग्रेज शासन ने किए हुए अन्याय और अंग्रेजों के आगमन पूर्व स्वाधीन भारत का एक सरस शब्द-चित्र उभर आया है। जनरल डेनियल के साथ दीर्घ वार्तालाप में भी उनका देश के प्रति उत्कट प्रेम और स्वाधीनता की तमन्न व्यक्त हुई है। अपने देशवासियों की कमज़ोरी वे अच्छी तरह जानते हैं।
"एमने तो हुं एटलुं ज कहीश के ईश्वरनी अदालतमां जे जुल्मो करे छे एज गुनेगार नथी. पण जे कायाभये आत्मानुं ए अपमान वेठी ले छे ए पण गुनेगार छे. " (पृ. 24)
(उनको तो मैं इतना ही कहूँगा कि ईश्वर की अदालत में जो जुल्म करते हैं वे ही गुनहगार नहीं है। किन्तु जो काया के भय से आत्मा के उन अपमान को सह लेते हैं वे भी गुनहगार हैं। पृ. 24)
वासुदेव को तो ऐसा राष्ट्रधर्म अभिप्रेत है जो समानता के पैरों पर खड़ा हो। दर्शक ने वासुदेव के चरित्र के द्वारा राष्ट्रधर्म की सच्ची परिभाषा समझाने का प्रयास किया है। वासुदेव जेल की कोठरी में ही पद्मासन धारण कर महासमाधि को प्राप्त करते है। समाधि पूर्व वे महारानी देवकी के हाथ में पालक पुत्री सुभगा को सोंप कर बिदा लेते हैं।
वासुदेव के साथ फाँसी की सजा प्राप्त कर चुके अर्जुन के स्वाभिमान, राष्ट्रभक्ति और निडरता को व्यक्त करने वाली घटनाएँ भी यहाँ सरस तरीके से उपन्यासस्थ हुई है। महाराजा श्रीवर्धन का भाई अर्जुन अदालत के समक्ष निर्भयता से कहते है-
" ज्यां सुधी एक पण फिरंगी तुमाखीभेर अमारा आ निरूपद्रवीने आतिथ्यशील देश पर राज्य चलावानो दावो करशे त्यां सुधी हुं फरी-फरीने एने गोलीथी वींधवानो ज... " (पृ. 20)
(जब तक एक भी फिरंगी मिज़ाजी होकर हमारे इस निरूपद्रवी एवं आतिथ्यशील देश पर राज्य करने का दावा करेगा तब तक में बार-बार उसे गोली से छलनी करूँगा ही। पृ.20)
महाराजा श्रीवर्धन अर्जुन को कंपनी सरकार की माफी माँग कर मृत्युदंड से छुड़ाने का प्रयास करता है तब माफी माँगने का स्पष्ट इन्कार कर अर्जुन खुमारी भरी जबान में कहता है,
"गाय पण वाछरडाने कोई अडवा जशे तो पूछडुं फंगोली मारवा दोड़शे...तो अम अमारी शस्यश्यामला धरती, अमारी विपुलवाहिनी नदियाँ, फूलोंथी महेकता पर्वतो, फलों थी लची रहेता वनो...बहुजन सुखाय थी रचायेली अमारी संस्कृति - एनो अमे माथु उंचक्या सिवाय शा माटे लोप थवा दइए? अमे तो मावनी छीए " (पृ. 16)
(गाय भी यदि बछड़े को कोई स्पर्श करने जाएगा तो पूंछ घूमाकर धप्पा लगाने के लिए दौड़ेगी...तो हम हमारी शस्यश्यामल धरती, हमारी विपुलवाहिनी नदियाँ, फूलों से महकतें पर्वत, फलों से लदी हुई वादियाँ...बहुजन सुखाय रचित हमारी संस्कृति का सर उठाये बिना लोप कैसे होने दें? हम तो मानवी हैं।...पृ. 16)
फाँसी ए नहीं तोपना मोंए बांधे (फाँसी पर नहीं तोप के मुँह पर बाँध दिजिए।) ऐसा कहते हुए अर्जुन राजमहल की सीढ़ी चढ़ते हों उसी तरह फाँसी के मचान पर चढ़ता है। चांडाल को दूर कर अपने हाथों से गले में रस्सी डालकर पटरी को लात मार कर गिरा देता है। उसकी शहादत देवकी को जगा देती है। भाऊनो मार्ग ए ज मारो अने राजशेखरनो थशे (भाऊ का मार्ग वही मेरा और राजशेखर का होगा।) ऐसी प्रतिज्ञा कर देवकी 1857 के प्रथम मुक्तिसंग्राम में महत्त्व के चरित्र के रूप में भूमिका अदा करती है।
देवकी में जागृत हुई राष्ट्रभक्ति और निर्भयता महाराजा की मृत्यु के बाद घटित घटनाओं में प्रत्यक्ष होती है। वे कंपनी सरकार के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ उग्र दलीलें करने लगती हैं। जब्त होते अपनी घ् हार ' के लिए वह सोहनसिंह के साथ उग्र आवाज़ में बातचीत करती है और उसे जागृत करती है। सोहनसिंह की अंग्रेजों के प्रति निष्ठा के संदर्भ में उसे समझाते हुए देवकी कहती है कि यह अनाज अंग्रेजों ने पैदा किया है किन्तु बरसात अंग्रेज बरसाते नहीं है। यह शरीर कंपनी सरकार ने नहीं दिया है, शरीर का निर्वाह कंपनी सरकार करती नहीं है। इस जमीन को कंपनी सरकार ने नहीं बनाई है तो फिर उसका नमक खाते हैं ऐसी भावना अनुभव करना उचित नहीं है। यह बात सोहनसिंह के हृदय में स्वदेश के प्रति भक्तिभाव पैदा करती है। इसके साथ ही अंग्रेज अधिकारी द्वारा उसका अपमान किया जाता है तब देश की पराधीनता का भाव और अधिक सुदृढ़ बनता है। सिपाहियों में कंपनी सरकार की भेदभावपूर्ण दृष्टि और अन्याय के कारण जिस असंतोष को जगाया था वह असंतोष को सोहनसिंह के चरित्र द्वारा तादृश्य करने के सर्जक के प्रयासों में ऐतिहासिक सत्य का निरूपण नज़र आता है। देवकी और सोहनसिंह काल्पनिक चरित्र होते हुए भी तत्कालीन युग के वातावरण के अनुरूप चरित्र बने हैं। यह सोहनसिंह शेखर और सुभगा को घुड़सवारी, लक्कड़पट्टी दाँव सिखाते हैं और नारायणी सेना में भी सक्रिय भूमिका अदा कर अपनी देशभक्ति की प्रतीति कराते है।
महाराजा श्रीवर्धन की मृत्यु के बाद देवकी के बार में और मुक्तिसंग्राम के साथ संलग्न प्रवृत्तियों के बारे में लेखक ने यह उल्लेख किया है कि,
"अमे वासुदेवना विखरायेला अनुयायीओने एकठा करी ए बधाने आखा हिन्दुस्तानमां पाथरी दीधा हतां. पोते नरसिंगपुरनी बहार नीकली नहोती पण बिठुर, बनारस, मेरठ, कोल्हापुर, हैदराबाद सर्व स्थलोथी दूतो जुदा-जुदा वेशे आव-जा करता हता. दारुगोला थी समस्त राष्ट्र सज्ज थइ गयो हतो, मेला, तीर्थक्षेत्रो, छावणीओ, उत्सव, समारंभो, यज्ञो, शरीरोपासनाना, अखाड़ाओ, विद्याधामो, स्वस्थले घ् बेठा थाओ, हथियार लो ' नो संदेश फरी वल्यो हतो. बंदीजनो, कविओ, गायको आवनार विप्लवना गीतो जोड़ता हता. हिन्दु-मुसलमान, राजा और रैयत, उत्तरने दक्षिण सौ आजे एक थया हतां." (पृ. 76)
(हमने वासुदेव के बिखरे हुए अनुचरों को एकत्रित कर उनको पूरे हिन्दुस्तान में फैला दिया था। स्वयं नरसिंगपुर से बाहर निकली नहीं थी किन्तु बिठुर, बनारस, मेरठ, कोल्हापुर, हैदराबाद सभी स्थानों से भिन्न-भिन्न वेश में दूत आ जाया करते थे। मेला, तीर्थक्षेत्रों, छावनियाँ, उत्सव समारोह, यज्ञों, शरीरोपासना के अखाड़े, विद्याधाम, निजधाम पर' उठिये, हथियार लीजिए' का संदेश फैल चुका था। बंदीजनों, कवियों, गायकों आनेवाले विद्रोह के गीत जोड़ रहे थे। हिन्दू-मुसलमान, राजा और प्रजा, उत्तर और दक्षिण हर कोई एक हो गए थे। पृ. 76)
देवकी और तात्या साहब इस विद्रोह के केन्द्र में थे। तात्या साहब ने देवकी के पास राजशेखर की मांग की, किन्तु कंपनी सरकार को इसके बारे में कुछ भनक लगने से उन्होंने राजशेखर को नालदुर्ग की लश्करी छावनी में प्रशिक्षणार्थ भेजने के लिये तय किया। इस तरह शेखर को नालदुर्ग भेजने के संबंध में लिए गए निर्णय कथा का प्रथम अध्याय पूर्ण होता है। इस अध्याय में घटित छोटी-छोटी घटनाएँ वासुदेव, अर्जुन, देवकी, सोहनसिंह, शेखर, सुभगा जैसे चरित्रों एवं उनकी प्रवृत्तियों तथा उनमें आते मानसिक परिवर्तन 1857 की कालावधि को जीवंत करते हैं।
उपन्यास की कथा के दूसरे अध्याय में राजशेखर का चरित्र केन्द्र में है। शेखर जब नालदुर्ग की लश्करी छावनी में प्रवेश करता है तब उसी समय अंग्रेज अफ्सर मुरहेड के साथ संघर्ष में उतरता है। इस एकांतवास के दौरान करतारसिंह और रहेमान का परिचय होता है। जनरल डेनियल और उसकी पुत्री एमीली का भी परिचय होता है और इस दुर्ग में तात्या टोपे के साथ भी संपर्क होता है। यहाँ ही वह विद्रोहकारों के कब्जे में आ फँसी डेनियल की पुत्री एमीली को जान की बाजी लगाकर बहादुरी से छुड़ाता है और डेनियल तथा एमीली का प्रेम अर्जित करता है। लेखक ने वर्णंनात्मक शैली में 1857 के विद्रोह के पूर्व दिवसों की स्थिति के बारे में और कारणों का ब्यौरा दिया है और समीक्षा भी इस तरह की है:
1857 ए शुं छे? ए नथी विप्लव तेम नथी बंड, ए छे स्वातंत्र्य युद्ध. रचना ना विनाशनी फिलसुफी 1857 ए नथी आपी, त्यां रणपंडित तात्या, भवानी लक्ष्मीबाई अने जोशपुरनो युवान राजवी जेवा मृत्यजीतो छे...त्यां आवेशथी बंदूक लइने चजाली निकलेका मात्र सिपाहीओ ज छे एम पण नथी. स्वातंत्र्य युद् माटेनी सादी समजण एक वाक्यमां सौनी पासे छे; आ फिरंगी राज न जोइए. एमनी पासे आ छे, पण एनुं विशाल दर्शन, एनी आंतरिक विरोधोनो ख्याल नथी एटलेज ए विप्लव नथी पण स्वातंत्र्य युद्ध छे. एनी सामूहिक प्रेरणा पण ज्यां सुधी भारतवर्ष राष्ट्रीय स्वातंत्र्य नथी मेलव्युं त्यां सुधीनी छे. ए स्वातंत्र्य युद्धमां पडेला शहीदोनी भारतवर्षने सनातन याद रहेशे.(पृ. 178)
(1857 क्या है? वह न तो विद्रोह है, न ही बगावत। वह है स्वातंत्र्य युद्ध। रचना के विनाश की फिलॉसोफी 1857 ने नहीं दी है, वहाँ युद्ध पारंगत तात्या, भवानी लक्ष्मीबाई औैर जोरापुर के युवा राजवी जैसी मृत्युजीत हैं...वहाँ आवेश में आकर बंदूक लेकर निकल पड़े मात्र सिपाही ही हैं ऐसा भी नहीं। स्वातंत्र्य युद्ध के लिए सादी समझ एक ही वाक्य में हर किसी के पास है: यह फिरंगी राज्य नहीं चाहिए उनके पास यह है, किन्तु उसका विशाल दर्शन, उसकी गूत्थियाँ और आंतरिक विरोधों का ख्याल नहीं है, इसीलिए यह विद्रोह नहीं है किन्तु स्वातंत्र्य युद्ध है। उसकी सामूहिक प्रेरणा भी जहाँ तक भारतवर्ष राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त नहीं कर लेता है वहाँ तक ही है। उस स्वातंत्र्य युद्ध के शहीदों की भारतवर्ष को सनातन याद बनी रहेगी। पृ. 178)
"...1857 छे पहेलो राजकीय संग्राम, जेमां हिन्दुस्तानना बधा लोको परराज्यचक्रमांथी मुक्त थवाना स्पष्ट उद्देश्यथी भल्या...एमां मलेलो पराजय आ संकल्पने झांखो पाड़ी शकतो नथी।" (पृ. 174)
(...1857 है पहला राजकीय संग्राम, जिसमें हिन्दुस्तान के सभी लोग परराज्यचक्र से मुक्त होने के उद्देश्य से मिले...उसमें प्राप्त पराजय इस संकल्प को मलीन नहीं कर सकता। पृ. 174)
कथासर्जक उपन्यास के बहते हुए कथा प्रवाह में बीच में आकर भी इस तरह के विचारों को व्यक्त कर देते हैं अथवा चरित्रों के मायम से व्यकत करते हैं। उसके तुरंत बाद कथा प्रवाह बहाते हैं। कंपनी सरकार को विद्रोह में सम्मिलित महारानी देवकी और उनकी प्रवॉत्तियों का पता लगते ही वह शेखर को समझाकर अपने पक्ष में रखना चाहती है। उसका राज्य देने के लिए कहती है, किन्तु शेखर उसका स्पष्ट शब्दों में इन्कार करता है और इसीलिए उसे एकांतवास की सजा फरमाई जाती है। एकांतवास के दौरान शेखर करतारसिंह के बताए हुए गुप्त मार्ग से भाग निकलता है और नारायणी सेना तक पहुँचता है। वहाँ तक की छोटी-बड़ी घनाएँ और चरित्रों की प्रवृत्तियाँ 1857 के माहौल को तादृश्य की भूमिका अदा करती है।
शेखर नारायण सेना का अयक्ष बनता है। नरसिंगपुर को फिरंगियों के शिकंजे से मुक्त करने के लिए आक्रमण करता है। इस आक्रमण में नरसिंगपुर की प्रजा भी सक्रिय सहयोग देती है। इस दौरान जनरल डेनियल और उसकी पल्टन देवकी और सुभगा को गिरफ्तार करते हैं। शेखर के आक्रमण से नरसिंगपुर से फिरंगी भाग निकलते हैं। शेखर सही मायने में विद्रोह किसे कहा जा सकता है उसकी चर्चा करता है:
"विप्लवनुं जन्मस्थान ज बीजा प्रत्येनी करूणा ने समवेदना छे"
(विद्रोह का जन्मस्थान ही दूसरे के प्रति करूणा एवं समवेदना है।)
"मारे फिरंगीने काढवा छे, पण मारे फिरंगीओथी पण बुरूं एवुं शासन अहीं नथी शरू कराववुं...जो फिरंगीओ करतां पण वाारे शांत ने स्वतंत्रवाली राज्य व्यवस्था आपणे अभी न करवाना होइए तो एने हांकी काढवानो - एने पदच्युत, करवानो आपणने शुं अाकिार छे. " (पृ. 211)
(मुझे फिरंगियों को निकाल देना है, लेकिन मुझे फिरंगियों से भी बुरा शासन यहाँ शुरू कराना नहीं है...यदि फिरंगियों से भी अाकि शांति और स्वतंत्रतापूर्ण राज्य व्यवस्था हम उपलब नहीं करानेवाले हैं तो उनको निकालने - उनको पदच्युत करने का हमें क्या अाकिार है? पृ. 211)
शेखर इस आदर्श के साथ एवं मानवार्म का विचार लेकर विद्रोह में सम्मिलित हुए है और इसीलिए नालदुर्ग में आक्रमण के समय देवकी और सुभगा को आग से बचाने वाले डेनियल को तात्या टोपे गिरफ्तार करते हैं और दूसरे दिन उसे फाँसी की सजा दी जाएगी ऐसा मानकर वह डेनियल को भगा देते है। इस विद्रोह के गुनाह के कारण वह अपने आपको विद्रोह के नेता के समक्ष सोंपकर गिरफ्तारी स्वीकार कर लेते है। विद्रोहियो की अदालत उसके लिए मृत्युदंड घोषित करती है तब भी वह मृत्युदंड को सहर्ष स्वीकार कर लेते है। इस तरह शेखर को दिए जा रहे मृत्युदंड और देवकी ने की हुई आत्महत्या के साथ उपन्यास का अंत होता है।
कथासर्जक ने 1857 की कालावाि को जीवंत करने हेतु जिन चरित्रों-प्रसंगों को लिया है वे काल्पनिक होने के बावजूद भी तत्कालीन समय के माहौल - युग चेतना को यथोचित रूप से उभारते है। इस स्वातंत्र्य युद्ध की कथा के आलेखन में सर्जक ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता से भी शिखरस्थ मानवता को उजागर करती हुई कुछेक घटनाओं को निरूपति किया है। यहाँ वासुदेव जनरल डेनियल को सात-सात बार पराजित करते है किन्तु उनका वा नहीं करते है। शेखर डेनियल की पुत्र एमीली को बचाते है और कानपुर में घटित हत्याकांड में मारे गए अंग्रेज स्त्री-पुरूषों और बच्चों के लिये व्यथा अनुभव करते है। वह जनरल पोलार्क को भी जिंदा जाने देते है। जनरल डेनियल भी देवसी और सुभगा को आग से बचाकर मानवार्म अदा करता है। उपन्यास के अंत में शेखर मानवतावादी डेनियल को भगा कर स्वंय गिरफ्तारी स्वीकार कर मृत्युदंड की सजा प्राप्त करते है। कथासर्जक द्वारा रखी गई घटनाएं भारतीय जीवन मूल्यों और भारतीय दर्शन की द्योतक बनकर रहती है। यहाँ शेखर और सुभगा की प्रेमकथा का बहाव अत्यंत मंद गति से चलता हुआ - अनुभव होता है। सुभगा भी स्वातंत्र्य संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण चरित्र बनकर विहरता दिखाई देता है। इस तरह कथासर्जक ने बंान और मुक्ति में मात्र राजकीय बंानों की ही नहीं, परंतु हमारी संकुचितता, अहम् इत्यादि बंानों से भी किस तरह मुक्ति मिल सकती है उसका भी सूक्ष्म आलेखन किया है।
इस तरह बंान और मुक्ति उपन्यास के आलेखन द्वारा मनुभाई पंचोली ने हम सबको देढ़-सौ वर्ष पूर्व के 1857 की कालावाि में विहार करवाया है। उस प्रथम मुक्तिसंग्राम से लेकर स्वााीनता दिन तक के 1857 से 1947 - नब्बे वर्ष भारत के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बनकर रहे हैं। उस दिनों को नज़र समक्ष रखते हैं तब आज की हमारी राजकीय स्वतंत्रता का मूल्य ठीक से समझ में आता है। साम्प्रत राजकीय परिस्थिति देखने से शेखर के उन शब्दों -
"मारे फिरंगीओथी पण बुरूं एवुं शासन अहीं नथी शरू कराववुं" (मुझे फिरंगियों से भी बुरा शासन यहाँ शुरू नहीं कराना है।) - की गुंज मन में व्याप्त हो जाती है। 1857 के बाद इन देढ़-सौ वर्ष का स्मरण हमारी राष्ट्रीय भावना को और अाकि दृढ़ बनायेगा ऐसी आशा है।

1857 का प्रथम मुक्ति संग्राम और "भारेलो अग्नि"

विषय वैविय की दृष्टि से गुजराती का कथा-साहित्य समुद्ध है। कथासर्जक साम्प्रत मानव-जीवन की समस्याओं को तथा मानव-समाज में हो रही सुखद-दुःखद घटनाओं को कथास्थ करने के साथ पौराणिक, प्रागैतिहासिक या ऐतिहासिक घटनाओं को भी सृजनात्मक स्वरूप प्रदान करते रहे हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक ही विषयवस्तु, घटना को केन्द्र में रखकर भिन्न-भिन्न कथा-सर्जक साहित्यकृति की सर्जना करते हैं। गुजराती भाषा में ' करण- घेलो ' (नंदशंकर मेहता), ' भग्न पादुका ' (क. मा. मुंशी), ' रा ' करणघेलो ' (ाूमकेतु) जैसी तीन कृतियाँ करण वाघेला के चरित्र को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। ' जय सोमनाथ ' (क. मा. मुंशी), ' चौलादेवी ' (ाूमकेतु), ' कुमकुम अने आशका ' (चुनीलाल मडिया) भी इस प्रकार के एक ही विषयवस्तु को निरूपित करनेवाला उपन्यास है। इसी तरह 1857 के प्रथम मुक्ति संग्राम की एक ही घटना को केन्द्र में रखकर रमणलला व. देसाई ने ' भारेलो अग्नि ' , मनुभाई पंचोली ' दर्शक ' ने ' बंान और मुक्ति ' , हरीन्द्र दवे ने ' लोहीनो रंग लाल ' जैसे उपन्यास लिखे हैं। इस समान विषयवस्तु वाले उपन्यासों में सर्जक का दृष्टिकोण, सर्जक-हेतु, सर्जक-समय, आलेखन-रीति, भाषा शैली इत्यादि दृष्टि से तो एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। इस भिन्नता को खोजना वस्तुतः तुलनात्मक अययन का विषय है। यहाँ तो एक ही विषयवस्तु पर लिखे गण रमणलला व. देसाई कृत 'भारेलो अग्नि' उपन्यास में राष्ट्रीयता- भारतीयता के तत्त्व कहाँ और किस रूप से नजर आते हैं उसका अवलोकन करने का प्रयास किया गया है।
'भारेलो अग्नि' 1935 में लिखा हुआ उपन्यास है। इस कृति पर गांाीजी की विचाराारा का प्रभाव होना स्वाभाविक है। इस विचाराारा के अतिरिक्त तत्कालीन स्वातंत्र्य के लिए चलाए जा रहे आंदोलन का भी प्रभाव पड़ा है। 1857 की घटना को लेकर लिखे गए उपन्यास में गांाीजी की सत्य और अहिंसा की भावना तथा समग्र हिन्दुस्तान में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के वातावरण का प्रभाव पड़ता है, उसमें हमारे आलोचकों ने काल-व्युत्क्रम का दोष देखा है। इस तरह सहज रूप से प्रविष्ट दोष को एक तरफ-रख हम इस कृति को राष्ट्रीयता-भारतीयता के अभिगम से देखते हैं तो इस कृति को हम न्याय कर सकेंगे। इस अभिगम से देखने से पहले हमें इन दोनों संज्ञाओं के अर्थ को स्पष्ट कर लेना चाहिए। यह दोनों संज्ञाए एक अर्थ में भावात्मक संज्ञाएं हैं। राष्ट्रीयता- भारतीयता का ही अंश है। भारतीयता लहु का संस्कार है। राष्ट्रीयता में राष्ट्र की सीमा है, जबकि, भारतीयता राष्ट्र की सीमा का अतिक्रमण करके भी जीवंत रहती है। संविाान की दृष्टि से राष्ट्रीयता अर्थात् किसी भी देश की सदस्यता। देश बदलने से राष्ट्रीयता बदली जा सकती है, भारतीयता बदल नहीं सकते। इस राष्ट्रीयता और भारतीयता के बीच का भेद ' भारेलो अग्नि ' उपन्यास के प्रसंगालेखन, पात्रालेखन, वातावरण और दृष्टिकोण विचाराारा में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
नाटक और रंगमंच के आइने में 1857
रचनाकार : देवेन्द्र राज अंकुर
संदर्भ : विचार दृष्टि (हिंदी पत्रिका)
दिनांक : 9 अक्टूबर-दिसंबर 2007
अंक : 33, पेज न. 46
खुशी की बात है 2007 का साल 1857 की क्रांति की 150वीं जयंती के रूप में मनाया जाता रहा है और इस अवसर पर साहित्य भी सभी विधाओं में इस घटना ने किस तरह से हस्तक्षेप किया इसका आकलन करने की दिशा में एक शरूआत हुई है यदि सच्चाई को ध्यान में रखा जाय तो आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी घटना को लेकर हिंदी साहित्य की किसी भी विधा में आज तक सीधे-सीधे कहीं उल्लेख नहीं हुआ है। अपवाद स्वरूप मंगल पांडे की जीवनी या कि 20वीं शताब्दी में वृंदावनलाल वर्मा द्वारा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर एक उपन्यास उल्लेख किया जा सकता हैं। जबकि इसके समानांतर ऊर्दू और अँग्रेज़ी साहित्य से जुड़े तत्कालीन संस्मरणों, अनुभवों, जीवनियों और दूसरे विवरणों में इस घटना का बार-बार ज़िक्र आता है हमारे अपने लोकगीतों और लोकभाषाओं में भी मौखिक रूप में ही सही इस घटना से जुड़ी बहुत सी सामग्री अनायास ही उपलब्ध हो जाती है। लेकिन जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है हमारी हिंदी भाषा के लिखित साहित्य में इस घटना का कहीं कोई नामोनिशान नहीं मिलता।
आख़िर इस अनुपस्थिति के क्या कारण हो सकते हैं? सबसे पहला कारण तो इसी तथ्य में खोजा जा सकता है कि हमारी परंपरा में कभी भी इतिहास को इतिहास के रूप में लिपिबद्ध करने का चलन नहीं रहा है। यदि आरंभ से ही ऐसा हुआ होता तो फिर अलग से इस पर विचार करने की ज़रूरत न पड़ती। यह कारण कि आजतक हम लोग भरतमुनि, भास, शूद्रक और यहां तक कि कालिदास जैसे रचनाकारों के विषय में भी समय को लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। और यदि किसी हद तक इतिहास साहित्य रचना की दुनिया में आया भी है तो तो ज़्यादा से ज़्यादा एक मिथक, अतिश्योक्ति अथवा फ़ंतासी के रूप में ही। यह तथ्य सुदूर अतीत की ऐतिहासिक घटनाओं के लिए तो किसी हद तक सार्थक जान पड़ता है लेकिन महज़ 150 बरस पहले की घटना को लेकर साहित्य और वह भी विशेष रूप से नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में इतनी उदासी क्यों? इसका एक दूसरा कारण भी दिखाई पड़ता है और उसे इस तरह से व्याख्यायित किया जा सकता है कि जब-जब नाटककारों, रचनाकारों ने तात्कालिक इतिहास को अपने लेखन का विषय बनाना चाहा तब-तब उन्होंने अपने समकालीन समय से संगति बिठाने के लिए अपनी स्रोत सामग्री भी सुदूर अतीत की मिलती जुलती घटनाओं के माध्यम से व्यंजित करने की कोशिश की, अथवा ऐसी कथाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया जो अपनी अपील में सार्वजनिक, सार्वकालिक और शाश्वत हो। इस दृष्टि से भारतेंदु के नाटकों में भारत दुर्दशा, नील देवी और अंधेरी नगरी का नाम लिखा जा सकता है। ठीक ऐसा ही विचार जयशंकर प्रसाद के नाटकों-चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी इत्यादि के बारे में व्यक्त किया जा सकता है, जिनमें उन्होंने अँग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ देशवासियों को अपने अतीत की गौरवमयी गाथा के माध्यम से उन्हें स्वयं अपनी अस्मिता की पहचान करायी। यह काम बहुत से परवर्ती नाटककारों यथा जगदीश चंद्र माथुर, मोहन राकेश, सुरेंद्र वर्मा तथा भीष्म साहनी जैसे लोगों ने अपने अलग-अलग नाटकों के माध्यम से किया।
लेकिन सवाल फिर भी अपनी जगह वैसे ही बना रहा है कि 1857 से लेकर 19वीं शताब्दी के अंत तक नाटक और रंगमंच के रचनात्मक संसार में इस घटना की विशेष रूप से, इसी घटना के रूप में, कहीं कोई प्रतिछाया दिखायी क्यों नहीं पड़ती जबकि इसके विपरीत लोकगीतों अथवा लोकभाषाओं में 1857 की राजनैतिक क्रांति की झलक बार-बार दिखायी पड़ती है। जैसा कि हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं इसका सीधा-सीधा कारण यही है कि ये सारी आशु अथवा मौखिक रचनाएँ हैं जो उस जनमानस के भीतर से पैदा हुईं जिसने स्वयं उस क्रांति में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तथ्य है कि ऐसे सभी लोग समाज के निचले वर्ग से जुड़े हुए थे और उन्होंने उस क्रांति के अच्छे बुरे जो भी परिणाम रहे हों उन्हें स्वयं अपने अनुभव के स्तर पर भुगता था। अतः यह स्वाभाविक ही था कि गीतों-बोलियों और लोकनाट्यों में उस क्रांति से जुड़े वीर नायकों की गाथाओं का अपने आप जन्म होता चला गया। चाहे वह कुंवर वीरपाल सिंह, चंद्राल सिंह हों, रानी लक्ष्मी बाई हों, बिरसा मुंडा हों और यहाँ तक कि मंगल पांडे हों। स्वतः स्फूर्त रचनाशीलता के मौखिक होने के कारण ऐसे साहित्य को ब्रिटिश शासन द्वारा किसी तरह की सेंसरशिप का भी ख़तरा नहीं था क्योंकि उसकी रचना प्रक्रिया व्यक्तिगत स्तर पर न होकर सामूहिक अभियान के रूप में होती थी और वो सदा वाचिक ही रही। इसके विरोध में हम जिस साहित्य के आईने में इन 1857 की छवियों को देखने की आशा कर रहे हैं। उनके रचनाकार समाज के संभ्रांत वर्ग से अथवा ज़्यादा से ज़्यादा मध्यम वर्ग से संबद्ध थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता गोपालदास, स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, शिव प्रसाद सितारे हिंदु अर्थात् तत्कालीन किसी भी जाने पहचाने रचनाकार, साहित्याकर का नाम लें वे लोग समाज के उसी वर्ग का हिस्सा थे जिसने कहीं न कहीं उस क्रांति में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अँग्रेज़ों का साथ दिया। इसलिए सीधे-सीधे वे लोग उन घटनाओं का उल्लेख अँग्रेज़ों के विरोध में तो कर ही नहीं सकते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि उन दिनों में अंग्रेज़ों ने अपने हथियार असबाब आदि रखने के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र परिवार की कोठील का भी इस्तेमाल किया था। ऐसा नहीं कि इस दौड़ में अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ नाटक लिखे ही नहीं गये। 1876 में ड्रामेटिक परफ़ॉमेंस एक्ट लागू कर दिया जो आज तक अपने उसी मूल रूप में लागू हैं इसी के साथ अलग-अलग भाषाओं में प्रह्वाद नाटक, कीचक वध, कुछ पारसी नाटकों के नाम भी सुनायी पड़ते हैं। लेकिन सच्चाइ अंततः यही है कि इनमें से किसी भी नाटक की कहानी का 1857 की घटनाओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस सच्चाई को हिंदी साहित्य में तो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन अगर हम उर्दू, अरबी और फ़ारसी के तत्कालीन साहित्य को उलट-पलट के बेशुमार उल्लेख दिखायी पड़ते हैं। कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि अंग्रेज़ों के शासन से पहले जिन शासकों की सत्ता यहां मौजूद थी उन्हीं को सीधे सीधे तौर पर अँग्रेज़ों से जूझना पड़ा और वह लोग उसके भुक्तभोगी भी बनें इसलिए उस बेचैनी, अपने हक के छिन जाने, तमाम तरह के बर्बर अत्याचार की पृष्ठभूमि में गोरे लोगों को फिरंगी के रूप में देखने और मुल्क की आज़ादी के लिए तड़प में से यदि उस वक्त की घटनाओं के इर्दगिर्द रचनात्मक साहित्य का जन्म हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी उतना ही सच है कि जब सचमुच की आज़ादी के वक्त देश का विभाजन हुआ तो यह जहां साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया, वहां हिंदी साहित्य उससे अछूता न रहा। बहुत साल पहले सिक्का बदल गया शीर्ष से एक संकलन विभाजन से संबंधित कहानियों का आया था। यहां तक कि 1984 के दंगों को लेकर भी काला नवंबर नाम से हिंदी कहानियों का एक संकलन प्रकाशित हुआ है। लेकिन जहां तक नाटक और रंगमंच की बात है तो पिछली शताब्दी के आख़री दशक में पहली बार जिस लाहौर नहीं देख्या औ जन्मया ही नहीं जैसा नाटक हमारे सामने आया और सही माइनों में यही अकेली नाट्य रचना है जो हिंदी नाटक और रंगमंच के इतिहास में किसी सचमुच की ऐतिहासिक घटना का पुरावलोकन करती है। क्या नाटक जैसी विधा में ऐतिहासिक घटनाओं की अनुपस्थिति का यही कारण है कि एक जीवंत विधा के रूप में सचमुच में उन घटनाओं को दिखा पाना बहुत जोखिम और साहस का काम होता है? इधर हाल ही में रिलीझ हुई परजानिया और ब्लैक फ्राइडे जैसी फ़िल्मों से भी यह बात काफ़ी हद तक सच साबित होती है। अतः अगर नाटक जैसा माध्यम भी अपने समय के इतिहास से परहेज़ करता है तो कोई आश्चर्य नहीं।
सन्‌् सत्तावन की क्रांति में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका

रचनाकार: डॉ. धर्मंद्रनाथ 'अमन'
संदर्भ: विचार दृष्टि (हिंदी पत्रिका)
दिनांक: 9 अक्टूबर-दिसंबर 2007
अंक: 33, पेज न.55
देशी अख़बार ख़बरें पहुँचाने की आड़ में देशी लोगों में विद्रोह की भावनाएँ भड़का रहे हैं। यह कार्य अत्यंत तत्परता और चालाकी के साथ किया गया है। कभी-कभी अँग्रेज़ी अख़बार के जो समाचार अहानिकारक दिखाई देते हैं जब उनका अनुवाद देशी पत्रों में छापा जाता है वह खतरनाक क़िस्म का होता है।

--लार्ड कैनिंग
पत्र-पत्रिकाएँ सामाजिक चेतना के अग्रदूत होते हैं। उनसे जन साधारण का मानसिक पोषण होता है। यह ग़लत बातों के आलोचक और सही बातों के प्रशंसक होते हैं। यह किसी व्यक्ति, समूह, वर्ग अथवा सरकार के अनुचित कार्यों की कड़ी निंदा करते हैं तथा पीड़ितों के वृत्तांत समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। ये प्रहरी भी है और प्रवक्ता भी। प्रगति की दिशा निर्धारक के रूप में यह जन चेतना को दिशा-बोध कराते हैं। समय की नाड़ी पहचानने वाले अख़बार पत्रिकाएँ समाज की भावनाओं और माँगों की अभिव्यक्ति करते हैं। क्रांति की पृष्ठ-भूमि तैयार करने में इनकी विशेष भूमिका होती है।
सन् 1857 ई. में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जो जन-क्रांति हुई उस संघर्ष के लिए वातावरण तैयार करने में भारतीय प्रेस की विशेष भूमिका रही। इस बात को ब्रिटिश शासकों ने भी स्वीकारा है। आर. जे. लौग ने सन् 1859 ई. में ब्रिटिश हाउस ऑफ कामन्स में जो रिपोर्ट प्रस्तुत की थी उसमें स्पष्ट शब्दों में कहा है देशी प्रेस को साधारणतया 'सुरक्षा प्रणाली' (Safety Valve) कहा जा सकता है जो ख़तरे की चेतावनी देता है। यदि युरोपीय शासकों ने जनवरी 1857 में दिल्ली के देशी अख़बारों की ओर ध्यान दिया होता तो उन्हें यह भली-भांति ज्ञात हो जाता कि भारतवासी किस हद तक विद्रोह के लिए कमर कस चुके थे और उन्हें इरान तथा रूस से सहायता मिलने की भी आशा थी।
आज जो जानकारी मौजूद है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने अपने पाठकों को न केवल सामाजिक घटनाओं के बारे में ही नक़ाब हटाकर उसका असली और धृणित रूप पाठकों को दिखलाया उस समय पत्र-पत्रिकाओं के ग्राहक कम होते थे, पंरतु प्रभाव क्षेत्र बहुत विस्तृत होता था। एक ख़रीदता था, इसे पढ़ते थे, बीस सुनते थे और सैंकड़ों में फैल जाती थी। घरो, बाज़ारों, धर्मस्थानों, राजदरबारों तक ख़बर पहुँच जाती थी।
युरोपियन शासकों के साथ ठापा ख़ाना भारत में पहुँचा। सन् 1550 में पुर्तगालियों (पादरियों ने धर्म प्रचार के उद्देश्य से) ने गोवा में दो छापा ख़ाने स्थापित किए। एक पुर्तगाली ने तमिल और मलियाली लिपिका टाइप तैयार किया। भारत में सन् 1557 में पहली पुस्तक मलियाली में छापी गई। हिंदुओं ने भी अपनी पुस्तकें छापने का निश्चय किया। सन् 1762 में काठियाबाड़ निवासी भीमजी पारिख ने इंग्लैंड से मुद्रण विशेषज्ञ हेननरी बोल्स को बुलाकर मुद्रण कार्य आरंभ किया। सन् 1772 में मद्रास में और सन् 1779 ई. कलकत्ता में सरकारी प्रेस स्थापित हुआ। दक्षिण भारत के कई नगरों में छापख़ाने स्थापित हो चुके थे। ये मुद्रणालय देशी भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे। धीरे-धीरे मुद्रण की तकनीक उत्तरी भारत में फिर फैलने लगी। कलकत्ता सरकारी प्रेस के अधिकारी विलकिन्स ने जो टाइप ढालने में दक्ष थे फ़ारसी लिपि कर टाइप बनाया तथा यह कार्य उन्होंने पंचानन को सिखाया जिसने नागरी टाइप बनाया। इस फ़ासी और नागरी टाइप का प्रयोग 18वीं शताब्दी के अंतिम शताब्दी के अंतिम दशक और 19वीं सदी के प्रारंभिक दशक में हुआ था।
अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार भारत में अँग्रेज़ी पत्रकारिता का आरंभ 29 जनवरी 1780 में हुआ जब जेन्स आगस्ट हिकी नेे 'हिकनीज़ बंगाल गज़ट ऑफ जनरल एडवर्टाइज़र्स' प्रकाशित करना शुरू किया। भारत में पत्रकारिता के इस जनक ने घोषणा की थी। मेरे इस साप्ताहिक पत्र के स्तंभ यद्यपि समस्त राजनीतिक और व्यावसायिक वर्गों और मत-मतांतरों के लिए खुले रहेंगे, तथापि वे किसी के भी प्रभाव और दबाव से मुक्त रहेंगे। लेकिन उसे सरकार के विरूद्ध आवाज़ उठाने की सज़ा भुगतनी पड़ी। पत्र के प्रकाश के दो वर्ष पश्चात् ही उसे बंदी बनाया गया उसके अख़बार को ज़ब्त कर लिया गया। सन् 1785 में 'दि एश्यिटिक भिस्लेनी' त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ लगभग उसी समय साप्ताहिक समाचार पत्र 'दि कलकत्ता गज़ट' भी जारी हुआ 1815 में 'गवर्नमेंट गज़र' बना गया लेकिन 7 वर्ष बाद ही इसका अख़बारी रूप समाप्त हो गया। सन् 1780 में मद्रास और 1789 में बंबई से अँग्रेज़ी समाचार पत्र छपने शुरू हुए। बंगाल का प्रथम उदारवादी पत्र था 'बंगाल गज़ट' जिसका प्रकाशन सन् 1816 में राजा राम मोहन राय की 'आत्मीय सभा' के कुछ उत्साही सदस्यों ने किया था। देशी भाषा में छपने वाला प्रथम पत्र 'दिग्दर्शन' था जिसका प्रकाशन 23 मई 1818 को हुआ था यह ऐसे समाचार पत्र था जिसे प्रथम देशी भाषा पत्र बंगला में हरूचन्द्र राय ने निकाला रामपुर के ईसाई पादरियों ने धर्म प्रचार के लिए निकाला था। क्रिश्चियन मिशन ने अँग्रेज़ी में 'फ्रेड आफ़ इण्डिया' नामक एक पत्र जारी किया। इसी वर्ष गंगाधर भट्टाचार्य ने 'बंगाल समाचार' का प्रकाशन शुरू किया। बंगाल में एक उदारवादी पत्र 'केलकटा जर्नल' जेम्स सिल्क बकिंधम ने अक्टूबर सन् 1818 में शुरू किया। सन् 1821 में ताराचंद्र दंत और भवानी चरण बंधोपाध्याय ने बंगाल भाषा में साप्ताहिक पत्र 'संवाद कौमुदी' निकाला लेकिन दिसंबर 1821 में भवानी चरण ने संपादक पद से त्याग पत्र दे दिया तो उसका भार राजा राम मोहन राय ने संभाला। अप्रैल 1822 में राजा राममोहन राय ने फ़ारसी में एक साप्ताहिक अख़बार 'मिरात-उल-अख़बार' नाम से शुरू किया जो भारत में पहला फ़ारसी अख़बार था। साम्राज्यवपादी ब्रिटिश सरकार को राजा राममोहन राय के धार्मिक वाचिर और इंग्लैड की आयलैंड विरोधी निति को आलोचना पसंद नहीं आई। परिणाम स्वरूप सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अध्यादेश जारी किया गया जिसके विरोध में राजा राममोहन राय ने मिरात-उल-अख़बार का प्रकाशन बंद कर दिया।
पत्रकारिता का यह मानसुन जो बंगाल की खाड़ी से शुरू हुई उसने केवल बंगाल को ही नहीं, भारत के अन्य भागों में वर्षा की। सन् 1822 में फ़र्टूं जी मर्ज़बान ने 'बांबे समाचार' शुरू किया। सन् 1823 में कलकत्ते से समाचार अँग्रेज़ी, व बंगाली, ओर एक फ़ारसी अख़बार छपता था। कलकत्ते से ही हिंदी का प्रथम समाचार पत्र 'उदंत मार्तण्ड' 30 मई 1826 में आरंभ हुआ यद्यपि यह पत्र केवल 1 वर्ष 7 महीने ही चल सका (अंतिम अंक 11-12-1827 को निकला) लेकिन यह हिंदी पत्रकारिता में मील का पत्थर है। सन् 1813 में कलकत्ते से ही हरिदत्त के प्रार्थना पत्र पर इजाज़तनामा मिला। मुंशी सदासुख और मनीराम ठाकुर के संपादन में जाते-जहाँ नुमा अख़बार निकला। इसी वर्ष (जामे-जहाँ नुमा के प्रकाश के 15 दिन पश्चात् राजा राम मोहन राय, द्वारका नाथ टैगोर ने बंगदूत (अख़बार शुरू किया जिसके संपादक ये नील रतन हलधर) 30-7-1829 को राजा राम मोहन राय इस पत्र से अलग हो गए।
सन् 1833 में आकाश से वाजिद अली खाँ का अख़बार 'जुब्दातुल अख़बार' प्रकाशित हुआ जो न केवल अँग्रेज़ी शासन, बल्कि पाश्चात्य जीवन शैली के ख़िलाफ था और सरकार की आलोचना करता था। जून 1833 में 'माहे-आलम अफ़रोज़' जारी हुआ। यह भी सरकार का विरोधी था 1834 में प्रजा मित्र नामक अख़बार निकला कलकत्ते से ही 2 अगस्त को 'सुलतान-उल-अख़बार' जारी हुआ। इसके संपादक रजब अली हुसैनी लखनवी थे जिनकी बेलगा-लपेट के खरी और निर्भीक आलोचना लोगों में राष्ट्रीय गौरव की भावना और सरकार के प्रति विरोध का अहसास फैला रही थी। यह पत्र अँग्रेज़ी अख़बारों की घटिया रिर्पोटिंग और गिरी हुई भाषा का कड़ा जवाब देता था। इसके पहले ही अंक में बंगाल में एक अँग्रेज़ व्यापारी द्वारा एक हिंदू लड़की के बलात्कार और अदालत में पक्षापातपूर्ण रवैए को ख़बरों में प्रस्तुत किया गया था। नवाब रांसउद्दी खाँ (लुहारू के नवाब) की फांसी का समाचार इस पत्र के अक्टूबर 1835 के अंक में बहुत प्रमुख ठग और कड़ी टिप्पणी के साथ दिया गया। उन गवाहों और जासूसों को पुरस्कार और सम्मान दिये जाने का पर्दाफ़ाश किया था तथा कटु आलोचना भी की थी।
1826 से 1856 तक हिंदी पत्रकारिता के प्रयोग-काल में समाजन्मुखी पत्रकारिता का आरंभ हुआ था। सन् 1857 की आज़ादी की लड़ाई की पृष्ठभूमि में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है। इस विस्फोट ने सदियों से सोई भारतीय चेतना में नव जागरण का संचार किया। सन् 1857 से पहले अँग्रेज़ों द्वारा संचालित अँग्रेज़ी पत्र और भारतीयों के ब्रितानियों तथा देशी पत्रों में दूरी बहुत कम थी लेकिन इस घटना के पश्चात् भारतीयों के पत्र सरकार के विरूद्ध बोले तथा आंदलोनकारियों के प्रति सहानुभूति दिखाने लगे जबकि अँग्रेज़ों के पत्र सरकार से मिलकर सरकार की दमन नीति का समर्थन करने लगे। दिल्ली भारत की परंपरागत राजधानी ही नहीं थी, अपति ऊर्दू भाषा का केंद्र थी। यहाँ सैयद औलाद अली के संपादन में 'सिराज-उल-अख़बार' प्रकाशित हुआ जो बहादुरशाह 'जफ़र' के दरबार का रोज़नामचा था इसमें दिल्ली के मुग़लिया दरबार और लाल किले संबंधी समाचार छपते थे। यह पत्र शुरू में उर्दू और फ़ारसी में प्रकाशित होना था, परंतु 1857 की जंग शुरू होने के पश्चात् इसका उर्दू प्रकाशन बंद कर दिया गया। इसके अतिरिक्त, दिल्लीसे 'सादिक-उल-अख़बार', करीय-उल-अख़बार वहीद-अल-अख़बार, जिया-उल-अख़बार अख़बारे-देहील, खुलासा-तुल-अतराफ़ तथा भिज़ाई, मोहंम जी, किरान उस-साज़देन, पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थी।
जिन देशी और क़लमी अख़बारों ने विद्रोह की आग को भड़काने में सहायता की उनमें फ़ारसी के अख़बार दरबारे-मुअल्ला, अख़बारे-दारूल खिलाफ़ा शाहजहानाबाद, अख़बार लश्कर हैदरी खाँ, अख़बार गुलाम क़ादिर खाँ, अख़बार डयोढ़ी सआदत अली खाँ और अख़बार लखवा जी उल्लेखनीय हैं। लखनऊ ने मुद्रण और पत्रकारिता के क्षेत्र महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। नसीर उद्दीन हैदर बादशाह ने लखनऊ में पहला प्रेस लगवाया था। सन् 1850 में यहाँ 13 छापख़ाने में थे।
देहली से ही सन् 1844 से 1856 तक साहिद-अल-अख़बार के नाम से कई अख़बार निकले जिसमें सैयद जमील-उद्दीन खाँ 'हिज्र' द्वारा संपादित तथा 1856 में गौरव खुदा बख़्श संपादित यह अख़बार बहुत मशहूर थे।
25 जुलाई 1856 को लखनऊ के याकूब अन्सारी फिरंगी महली ने तिलिस्में-सामरी अख़बार निकाला यह बहादुर शाह जफ़र के समर्थक थे। अँग्रेज़ी शासन का विरोध करने वाले अन्य अख़बार थे 'अहसन-उल-अख़बार' 'सिराज-उल-अख़बार', 'आईना-ए-सिकन्दर', 'दूरबीन' आदि। गुलराने नौबहा इनमें सबसे आगे था इसके सम्पादक अब्दुल क़दीर की निडर लेखनी से जो व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ प्रकाशति हुईं उसको आफार बनाकर गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने इस पत्र का इजाज़तनामा रद्द कर दिया और प्रेस का सब सामान भी ज़ब्त कर लिया गया था। 'गुल्राने-नौबहार' की तरह अन्य फ़ारस और देशी भाषाई पत्रों के साथ सरकार कड़ाई से पेश आई।
सन् 1850 में लाहौर से 'कोहे-नूर' समाचार पत्र प्रकाशित हुआ। इसी वर्ज़ गुजराँवाला से 'गुलज़ारे-पंजाब' और सियालकोट से खुशींद-आलम जारी हुए। पंजाब में समाचारपत्रों पर सेंसर लागू कर दिया गया। मुल्तान के देशी समाचारपत्रों का प्रकाशन रोक दिया गया। सियालकोट के पत्र 'चश्मा-ए-फैजद्व' के संपादक को आज्ञा दी गई कि वह अपने पत्र को लाहौर स्थानांतरति करे जबकि लाहौर में दो पत्र पहले ही छपते थे। इस पत्र पर सरकार की कड़ी नज़र थी। पेशावर के अख़बार मुर्तज़ाई के संपादक को कैद करके उनका अख़बार बंद कर दिया गया।
अज़ीम उल्लाह ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। उन्होंने 'पयामे-आज़ादी' नामक पत्र निकाला जिसके संपादक बहादुरशाह ज़फ़र के धेवते प्रिंस बेदार बख़्त थे। यह पत्र साप्ताहिक था इसका प्रकाशन उर्दू, हिन्दी में दिल्ली और मराठी में झांसी से होता था। ब्रितानी इस अख़बार से इतने नाराज़ थे कि दिल्ली के पतन के साथ ही जो नगर में कत्ले आम हुआ उसमें मिर्ज़ा बेदारख़्त की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने के लिए इनके शरीर पर सूअर की चर्बी मली गई फिर गोली मार दी गई थी। जिस परिवार में इस समाचार पत्र की एक थी प्रति मिल जाती थी उसे गोली मार दी जाती थी।
सन् 1837 से मिर्ज़ापुर (बनारस) से ख़ैर ख्वाहे-हिन्द और देहली से सैयद-उल-अख़बार तथा नूर मश्रिक़ी प्रकाशित हो रहे थे। दिल्ली के यूरोपीय वासियों का मनपसंद अख़बार था 'दिल्ली गज़ट' दिल्ली से उस समय एक दर्जन से भी अधिक अख़बार छपते थे जिनमें सब से अधिक लोकप्रिय अख़बार था मौलवी मोहम्मद बाक़िर हुसैन का 'देहली ऊर्दू अख़बार' जो नवाब शम्स-उद्दीन खाँ (लुहास राज्य के शासक) की फांसी के पश्चात् प्रतिक्रिया स्वरूप अन्य स्थानीय अख़बारों के साथ शुरू हुआ। दिल्ली में लिथोग्राफ़ी प्रेस 1837 में स्थापित हुआ उसके बाद से ही उर्दू समाचार पत्रों का जन्म हुआ। इनकी भाषा जनता की समझ में आती थी इसीलिए जन आक्रोश की आग और तेज़ी से भड़की।
यह अख़बार 28 फरवरी 1837 को देहली अख़बार के नाम से शुरू हुआ और 3 मई 1840 तक उसी नाम से प्रकाशित हुआ तत्पश्चात् नाम में थोड़ा परिवर्तन करके इसका नाम 'देहली उर्दू अख़बार' रख दिया गया। इस पत्र में दो दुनियाओं की फलक थी एक डूबती हुई दूसरि उभरती हुई जुलाई 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र की इच्छानुसार 'अक्षबार-उल-जफ़र' रख दिया गया। 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर अँग्रेजों का पुनःकब्जा हो जाने के बाद मौलाना बाक़िर को गोली मार दी गई और उनके पुत्र-मौलाना मोहम्मद हुसे 'आज़ाद' के नाम गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया गया। इस प्रकार अख़बार-उल-जफ़र पराजय की गर्द में स्मृति का हिस्सा बन गया। मौलाना बाक़िर ने ही एक और अख़बार मज़हरूल-हक़ निकाला था जो मुसलमान धर्म के शिया संप्रदाय की भावनाओं और विचारों को व्यक्त करता था। यह अख़बार 1848 में बंद हो गया था।
भारत में पत्रकारिता का उदय ब्रिटिश शासन की 'प्रशंसा' या 'समर्थन' के लिए नहीं हुआ था, न ये जनता को सरकार का ख़ैरख्वाह बनाने के लिए हर उचित या अनुचित सरकारी कार्य की हाँ में हाँ मिलायें। वास्तव में भारत में पत्रकारिता का स्वरूप ही विद्रोहात्मक था। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले पहले पत्र 'हेकीज़ बंगाल गजट़' को दो वर्ष बाद इसकी प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया और संपादक जेम्स ऑगस्टस हेकनीज़ को कैद कर लिया गया। अठ्ठारहवी सदी में सब पत्र अँग्रेजी भाषा में छपते थे, लेकिन इन समाचार पत्रों के अंग्रेज़ संपादक ईस्ट इण्डिया कंपनी की नीति और कार्यों के जबर्दस्त आलोचक थे। 1794 में सर जॉन शोर ने तो कह ही दिया था कलकत्ता के अख़बारों ने जो रवैया अख़्तियार कर रखा है उसका जारी रहना बहुत ख़तरनाक होगा। पाँच वर्ष बाद वेल्जली ने भी घोषणा की कि मैं बहुत जल्द संपादकों के पूरे वर्ग के लिए एक कानून बनाने वाला हूँ। वेल्ज़ली के बनाये कानून के अनुसार जब तक कोई अफ़सर पत्र का मुआईना न करे उस समय तक देश के एक भी समाचार पत्र का प्रकाशन नहीं हो सकता। इस कानून तोड़ने वाले अँग्रेज़ संपादक को इंग्लैंड भेज दिया जाता था। इस कानून के साथ ही कलकत्ते में एक सेंसर विभाग स्थापित कर दिया गया। कंपनी के वित्तीय मामलों संबंधी समाचारों को प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसी प्रकार जहाज़ों के आने-जाने, कंपनी की राजनीतिक गतिविधियों और अधिकारियों के प्रशासन संबंधी मामलों की ख़बरें छापना कानून के विरूद्ध घोषित कर दिया गया। सन् 1801 में कलकत्ते से 'गवन्मेंट गज़ट' जारी करने का उद्देश्य उन अख़बारों के प्रभाव को कम करना था जो कानून और सेंसर की पाबंदियों को नहीं मानते। सन् 1811 में अख़बारों पर और अधिक पाबंदियाँ लगा दी गईं। लार्ड हेस्टिंगज़ के समय में अखबारों को कुछ श्वांस लेने का अवसर मिला सेंसर का विभाग समाप्त कर दिया गया। 1823 में जो प्रेस कानून बनाया गया उसके तहत सरकार से लाइसेंस प्राप्त किये बिना कोई व्यक्ति अख़बार, किताब, इश्तिहार नहीं छाप सकता। छापाखाना लगाने के लिए भी सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना आवश्यक था। राजा राम मोहन राय ने उच्च न्यायलय में अपील की। लेकिन फ़ैसला उनके विरूद्ध हुआ तो उन्होंने अपना अख़बार बंद कर दिया। सन् 1825 में एक नये कानून के अनुसार सरकारी कर्मचारियों को समाचार पत्रों के सम्पादन और स्वामित्व से अलग रहने को कहा गया। सर चार्ल्स मटकाफ़ गवर्नर जनरल को अपने पद से हटना पड़ा क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता उसका अक्षम्य अपराध था सरकारी कर्मचारियों को अख़बार के संपादक या स्वामित्व की ज़िम्मेदारी उठाने की इजाज़त मिल गई। 1857 में अख़बारों पर पाबंदियाँ लगा दी गई। 1857 की जंगे-आजादी शुरू होने से पहले ही ब्रितानियों को इसकी आहट सुनाई देने लगी थी। ब्रिटिश इतिहासकार मारग्रीय बार्न्स ने अपनी कृति दि इण्ड़ियन प्रेस-विद्रोह और उसके पश्चात् में स्पष्ट शब्दों मे लिखा है कि कल्मी अख़बार बहुत उत्तेजना भड़का रहे है इनका क्षेत्र बहुत विस्तृत है लेकिन यह अख़बार तब तक सरकार के नियंत्रण से बाहर रहे जब तक इन पर पाबंदी लगाने के लिए प्रेस एक्ट लागू नहीं हुआ।
सेना के कुछ अफ़सरों द्वारा एक भारतीय स्त्री का खून हो गया। वध करने वाले ने बयान दिया यह 'बे इरादा' हुआ है और मजिस्ट्रेट ने अपराधी को इसी आधार पर छोड़ दिया।
सन् सत्तावन की जंगे-आज़ादी शुरू होने के पश्चात् भी इन पत्रकारों ने मशाल जलाए रखी और क्रांतिकारियों की स्वतंत्रता युद्ध में योगदान की भरपूर प्रशंसा की। क्रांतिकारियों की पराजय के उपरान्त इन लोगों के साथ सरकार ने क्या-क्या किया सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आज इन लोगों की दास्तानें अभिलेखागारों के बस्तों में दबी पड़ी हैं। स्वतंत्र भारत में इन जियाले सरस्वती-पुत्रों के कारनामों को विस्तृत नहीं होने देना चाहिये। इन्होंने आंधियों में स्वतंत्रता के चिराग़ को जलाए रखा।

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