“
कई-कई
बार सोचा कि चली जाउंगी यहां से. लेकिन नहीं गई. कहां जाती. अब तो कहीं जा भी नहीं
सकती.”
लगभग साठ साल की किटी मेम साहब जब बातें करती हैं तो लगता है जैसे उनके जीवन की सारी इच्छाएं अधूरी रह गईं. सारे सपने...सारी आकांक्षाएं... लेकिन इन सबसे कहीं बड़ा है इनका अधूरापन !
सिवाय इसके कि वे मैक्लुस्कीगंज में ही रहें.
मैक्लुस्कीगंज यानी दुनिया में एंग्लो इंडियन समुदाय की पहली बस्ती.
लगभग साठ साल की किटी मेम साहब जब बातें करती हैं तो लगता है जैसे उनके जीवन की सारी इच्छाएं अधूरी रह गईं. सारे सपने...सारी आकांक्षाएं... लेकिन इन सबसे कहीं बड़ा है इनका अधूरापन !
सिवाय इसके कि वे मैक्लुस्कीगंज में ही रहें.
मैक्लुस्कीगंज यानी दुनिया में एंग्लो इंडियन समुदाय की पहली बस्ती.
किटी
मेम साहब के पास अब केवल यादें
शेष हैं.
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कलकत्ता
के व्यापारी अर्नेस्ट टिमथी मैक्लुस्की ने 1932 के
आसपास जब बिहार के एक घने जंगलों वाले पठारी इलाके में एंग्लो इंडियन
समुदाय की एक नई दुनिया बसाने की शुरुवात की तो मैक्लुस्की की
आंखों में भी एक सपना था.
भारतीय समुदाय में एंग्लो इंडियन ‘भारतीय’ की तरह स्वीकार्य नहीं थे और उनके साथ अंग्रेज़ों जैसा बर्ताव होता था. उनकी जीवन शैली भी भारतीयों की तरह नहीं थी. मैक्लुस्की ने इस अंतर को समझा और कोशिश की कि भारत में उनके लिए एक ऐसी जगह बसाई जाए जो उनका अपना हो, अपना घर, अपनी दुनिया...!
मैक्लुस्कीगंज भाया लपरा
रांची-लातेहार रेलखंड पर मैक्लुस्की ने रातु के महाराजा से लपरा गांव की 10 हजार एकड़ जमीन खरीदी और देश के अलग-अलग हिस्सों में बसे एंग्लो इंडियन लोगों को बुलाना शुरु किया.
पहाड़ी आबोहवा वाले लपरा गांव में लगभग 400 एंग्लो इंडियन परिवार आ कर बसे. 1935 में मैक्लुस्की के निधन के बाद लपरा गांव का नाम बदला गया. नया नाम हुआ- मैक्लुस्कीगंज.
मैक्लुस्कीगंज में सुंदर बंगले बने, सामुहिक खेती की शुरुवात हुई, पशुपालन किया जाने लगा. शानदार बगीचे बने और वहां से फलों का निर्यात शुरु हुआ. स्कूल, अस्पताल, क्लब....!
लेकिन भारत को आज़ादी मिलने के बाद शुरु हुआ नई पीढ़ी के सामने अपने को बचाए और बनाए रखने का संकट.
मैक्लुस्कीगंज में रोजगार के साधन नहीं थे और नई पीढ़ी को लगा कि इन फलों और खेती की दुनिया से बाहर भी संभावनाएं हैं. नई पीढ़ी का पलायन शुरु हुआ. पहले पढ़ाई के नाम पर और फिर रोजगार के नाम पर. लोग जाने लगे और मैक्लुस्कीगंज के विक्टोरियन शैली के बंगले विरान होने लगे. एकाध अपवादों को छोड़ दें तो जो एक बार मैक्लुस्कीगंज से गए, वे लौट कर नहीं आए. कभी नहीं.
एक समय तो ऐसा आया जब मैक्लुस्कीगंज बुजुर्ग एंग्लो इंडियन लोगों की बस्ती बन कर रह गया. कुछ लोग ऐसे भी थे, जो इसलिए रुक गए क्योंकि उन्हें मैक्लुस्कीगंज से प्यार था. जिस मैक्लुस्कीगंज में कभी 400 के आसपास एंग्लो इंडियन परिवार थे वहां 40 परिवार भी नहीं बचे.
अधूरेपन का विस्तार
एंग्लो इंडियन समुदाय की अपनी दुनिया बसाने का मैक्लुस्की का सपना अधुरा रह गया.
आप चाहें तो कह सकते हैं कि किटी मेम साहब, अर्नेस्ट टिमथी मैक्लुस्की के अधूरेपन का विस्तार हैं.
किटी से बात करना मैक्लुस्कीगंज से बतियाने की तरह है.
भारतीय समुदाय में एंग्लो इंडियन ‘भारतीय’ की तरह स्वीकार्य नहीं थे और उनके साथ अंग्रेज़ों जैसा बर्ताव होता था. उनकी जीवन शैली भी भारतीयों की तरह नहीं थी. मैक्लुस्की ने इस अंतर को समझा और कोशिश की कि भारत में उनके लिए एक ऐसी जगह बसाई जाए जो उनका अपना हो, अपना घर, अपनी दुनिया...!
मैक्लुस्कीगंज भाया लपरा
रांची-लातेहार रेलखंड पर मैक्लुस्की ने रातु के महाराजा से लपरा गांव की 10 हजार एकड़ जमीन खरीदी और देश के अलग-अलग हिस्सों में बसे एंग्लो इंडियन लोगों को बुलाना शुरु किया.
पहाड़ी आबोहवा वाले लपरा गांव में लगभग 400 एंग्लो इंडियन परिवार आ कर बसे. 1935 में मैक्लुस्की के निधन के बाद लपरा गांव का नाम बदला गया. नया नाम हुआ- मैक्लुस्कीगंज.
मैक्लुस्कीगंज में सुंदर बंगले बने, सामुहिक खेती की शुरुवात हुई, पशुपालन किया जाने लगा. शानदार बगीचे बने और वहां से फलों का निर्यात शुरु हुआ. स्कूल, अस्पताल, क्लब....!
लेकिन भारत को आज़ादी मिलने के बाद शुरु हुआ नई पीढ़ी के सामने अपने को बचाए और बनाए रखने का संकट.
मैक्लुस्कीगंज में रोजगार के साधन नहीं थे और नई पीढ़ी को लगा कि इन फलों और खेती की दुनिया से बाहर भी संभावनाएं हैं. नई पीढ़ी का पलायन शुरु हुआ. पहले पढ़ाई के नाम पर और फिर रोजगार के नाम पर. लोग जाने लगे और मैक्लुस्कीगंज के विक्टोरियन शैली के बंगले विरान होने लगे. एकाध अपवादों को छोड़ दें तो जो एक बार मैक्लुस्कीगंज से गए, वे लौट कर नहीं आए. कभी नहीं.
एक समय तो ऐसा आया जब मैक्लुस्कीगंज बुजुर्ग एंग्लो इंडियन लोगों की बस्ती बन कर रह गया. कुछ लोग ऐसे भी थे, जो इसलिए रुक गए क्योंकि उन्हें मैक्लुस्कीगंज से प्यार था. जिस मैक्लुस्कीगंज में कभी 400 के आसपास एंग्लो इंडियन परिवार थे वहां 40 परिवार भी नहीं बचे.
अधूरेपन का विस्तार
एंग्लो इंडियन समुदाय की अपनी दुनिया बसाने का मैक्लुस्की का सपना अधुरा रह गया.
आप चाहें तो कह सकते हैं कि किटी मेम साहब, अर्नेस्ट टिमथी मैक्लुस्की के अधूरेपन का विस्तार हैं.
किटी से बात करना मैक्लुस्कीगंज से बतियाने की तरह है.
एक स्थानीय आदिवासी रमेश मुंडा से विवाह करने वाली किटी ने घर चलाने के लिए
मैक्लुस्कीगंज से गुजरने वाली गाड़ियों में फल बेचना शुरु किया और यह सिलसिला आज भी जारी है.
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मैक्लुस्कीगंज
में ही पैदा हुई कैथलिन टेक्सरा यानी किटी मेम साहब के दादा असम में बड़े
अधिकारी थे. किटी की मां ने रहने के लिए यह जगह चुनी. और...?
अपने किसी खेत को पुटुश की झाड़ियों से घेर कर अभी-अभी लौटी किटी पुटुश के कांटों से जख्मी हुई अपनी उंगलियों को सहलाती हुई कहती हैं- “ क्या करेंगे जान कर ? अब कुछ बचा ही नहीं. अब सब खतम...!”
अपने घर की ओर इशारा करती हुई किटी कहती हैं- “ ये मेरी मां का घर है. मेरी मां ने बहुत इच्छा से इसे बनवाया था. इसे देखती हूं तो सबकी याद आती है. ”
किटी मेम साहब को बहुत सारी बातें याद हैं लेकिन वे पुराने दिनों को याद नहीं करना चाहतीं. बहुत मुश्किल से बताती हैं कि 1967 में उनके पिता और भाई नहीं रहे. एक स्थानीय आदिवासी रमेश मुंडा से विवाह करने वाली किटी ने घर चलाने के लिए मैक्लुस्कीगंज से गुजरने वाली गाड़ियों में फल बेचना शुरु किया और यह सिलसिला आज भी जारी है.
ये कौन-सा दयार है
मैक्लुस्कीगंज में जो एंग्लो इंडियन बचे हुए हैं, उनके पास अब इसी तरह के रोजगार हैं. कुछ ने स्कूल खोल लिए तो कुछ होस्टल चलाते हैं, कुछ ने इस पहाड़ी इलाके में अपने घरों को रेस्ट हाऊस में तब्दील कर दिया.
मैक्लुस्कीगंज में कई पुराने घर अब ऐसे हैं, जिनमें कुछ जाने-पहचाने लोग रहते हैं. कुछ स्थायी तौर पर और कुछ अस्थायी तौर पर. अपर्णा सेन, बुद्धदेव गुहा, कैप्टन माया दास जैसे लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है.
अपने किसी खेत को पुटुश की झाड़ियों से घेर कर अभी-अभी लौटी किटी पुटुश के कांटों से जख्मी हुई अपनी उंगलियों को सहलाती हुई कहती हैं- “ क्या करेंगे जान कर ? अब कुछ बचा ही नहीं. अब सब खतम...!”
अपने घर की ओर इशारा करती हुई किटी कहती हैं- “ ये मेरी मां का घर है. मेरी मां ने बहुत इच्छा से इसे बनवाया था. इसे देखती हूं तो सबकी याद आती है. ”
किटी मेम साहब को बहुत सारी बातें याद हैं लेकिन वे पुराने दिनों को याद नहीं करना चाहतीं. बहुत मुश्किल से बताती हैं कि 1967 में उनके पिता और भाई नहीं रहे. एक स्थानीय आदिवासी रमेश मुंडा से विवाह करने वाली किटी ने घर चलाने के लिए मैक्लुस्कीगंज से गुजरने वाली गाड़ियों में फल बेचना शुरु किया और यह सिलसिला आज भी जारी है.
ये कौन-सा दयार है
मैक्लुस्कीगंज में जो एंग्लो इंडियन बचे हुए हैं, उनके पास अब इसी तरह के रोजगार हैं. कुछ ने स्कूल खोल लिए तो कुछ होस्टल चलाते हैं, कुछ ने इस पहाड़ी इलाके में अपने घरों को रेस्ट हाऊस में तब्दील कर दिया.
मैक्लुस्कीगंज में कई पुराने घर अब ऐसे हैं, जिनमें कुछ जाने-पहचाने लोग रहते हैं. कुछ स्थायी तौर पर और कुछ अस्थायी तौर पर. अपर्णा सेन, बुद्धदेव गुहा, कैप्टन माया दास जैसे लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है.
बोनेर
भवन की दीवारों पर टंगी तस्वीरें
मैक्लुस्कीगंज का अतीत हैं.
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कुछ घर ऐसे
भी हैं,
जिनमें
कोई नहीं रहता. कुछ में दूसरों का कब्जा है, ऐसे
लोगों का,
जिन्हें
घर के वास्तविक मालिक के बारे में कुछ भी नहीं पता.
मैक्लुस्कीगंज का एक प्रसिद्ध घर है- बोनेर भवन. अब इस घर में आदिवासी परिवार रहता है. घर की वर्तमान मालकिन मरियम लकड़ा कहती हैं- इस घर की मालकिन मेरी आंटी मिस डॉरथी ग्रेसपीस थीं. 1990 के आसपास उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद इस घर में कोई और नहीं आया.
मैक्लुस्कीगंज का एक प्रसिद्ध घर है- बोनेर भवन. अब इस घर में आदिवासी परिवार रहता है. घर की वर्तमान मालकिन मरियम लकड़ा कहती हैं- इस घर की मालकिन मेरी आंटी मिस डॉरथी ग्रेसपीस थीं. 1990 के आसपास उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद इस घर में कोई और नहीं आया.
घर की दीवारों पर पुरानी तस्वीरें टंगी हुई हैं. एक छोटी बच्ची की तस्वीर, डॉरथी के बचपन की तस्वीर, उनके प्रौढ़ावस्था की तस्वीर. सबमें एक समृद्ध अतीत नजर आता है.
तस्वीरों को देखते हुए मन में बार-बार ख्याल आते हैं- क्या डॉरथी के रिश्तेदार नहीं रहे होंगे ? कोई भाई, बहन, भतीजे....कहां होंगे ? उनके पास निशानी के बतौर ही इन इन तस्वीरों की कोई कॉपी होगी भी या नहीं ? क्या संवेदना के इसी धरातल पर वे भी सोचते होंगे ? ....
तस्वीरों
को देख कर पीछे पलटने पर मरियम का चेहरा दिखता है.
डॉरथी कल के मैक्लुस्कीगंज की तस्वीर भर है और मरियम मैक्लुस्कीगंज का वर्तमान.
वही मैक्लुस्कीगंज, जिसे कभी अर्नेस्ट टिमथी मैक्लुस्की ने उन एंग्लो इंडियन लोगों की बस्ती बनाने की कोशिश की थी, जिनकी दुनिया में कोई बस्ती नहीं थी.
डॉरथी कल के मैक्लुस्कीगंज की तस्वीर भर है और मरियम मैक्लुस्कीगंज का वर्तमान.
वही मैक्लुस्कीगंज, जिसे कभी अर्नेस्ट टिमथी मैक्लुस्की ने उन एंग्लो इंडियन लोगों की बस्ती बनाने की कोशिश की थी, जिनकी दुनिया में कोई बस्ती नहीं थी.
13.07.2008, 08.42 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ
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Partha
Ghosh (ghoshpp@yahoo.com) Kolkata
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एक बहुत ही प्रभावी और खूबसूरत लेख. मैंने इस जगह के
बारे में बचपन में तब सुना
था जब मैं रांची के एक स्कूल में पड़ता था. करीब २० सालों के बाद पिछले वर्ष फरवरी में अपने एक मित्र के साथ वहां
जाने और तीन दिन बिताने का अवसर
मिला. उस अनुभव को हम दोनों भुला नहीं पाएंगे. वहां जाने के इच्छुक लोग,
श्री बी एन गांगुली से 06512560027
पर
संपर्क कर सकते हैं. श्री गांगुली
रांची के निवासी हैं और Ushanjali Guest House के
मालिक हैं.
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sanjay
patyhak (kumar_sanjay7177@ymail.com) mccluskieganj
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very good place... I only request
everyone to at least visit this place once.
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Bipin
Patel (bipinindira11@yahoo.co.uk) Surrey U K
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Having read so much about
Macluskie Gunj,i have decided to visit in early january 2010.Please someone
tell me how to reach gunj from Baroda.Will it be easy from Jabalpur? Will it
be safe to spend three or four days there because of Naxalites.Reading about
Macluskie Gunj and sufferings of ANGLO INDIANS there have very often brought
tears in my eyes.My heart goes to Catherine Teixeire who have been selling
bananas to support her young family.I think she and other angloindians need
help.
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Saffiuddin
(jefferson22@rediffmail.com) Noida , U.P.
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This is really very unfortunate to
know that people of McCluskiegang are suffering to this extent that they find
it very hard to feed themselves. Government should come forward to develope
this beautiful place and generate employment for the people of McCluskiegang.
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Ravi
Tiwari (ravitiwari@rediffmail.com) Mumbai
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खूबसूरत
रिपोर्टिंग. एक दर्द के साथ इतिहास बताना सच में मुश्किल है..... एक हकीकत को
काव्य में बताने के लिए धन्यवाद.
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sunil
raaj (srajpatna@gmail.com) patna
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ye kahani nahi hai. yeh us
parampara ko yaad karna hai jise aaj ke youa perri bhoolti ja rahi hai.
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Harish
Chander Sansi Delhi
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is lekh ue to hridaya ko chhoo hi
liya hai.
Hindi men likhne ke liye kaun si option kaise len iske bare men nidesh bhi hauna chahie. |
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Sanjeet
Tripathi (ved.sanju@gmail.com) Raipur
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प्रभावी
रपट!
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आशीष (ashishg86123@gmail.com) चित्रकूट
उ.प्र.
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अब तक कई बार मैक्लुस्कीगंज के बारे में पढ़ा है,तस्वीरें देखी हैं,
एक सभ्यता के तिल-तिल कर मरने की कहानी पढ़कर दुख
होता है, मन
करता है कि एक बार
जाकर देख लूं,कहीं
कुछ दिनों में ऐसा न हो कि पढ़ने को भी न मिले...
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Rajendra
das CHIRIMIRI (C.G.)
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This is very good reporting.
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anand
kumar upadhyay (anandup82@gmail.com) raipur cg
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this story touch to my heart
this is the very storng life i pray to god for kitty mam |
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पंकज शुक्ल (pankajshuklaa@gmail.com) मुंबई
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मैक्लुस्कीगंज आने की बहुत दिनों से तमन्ना है. इस लेख ने जैसे
फिर से उस इच्छा को मन के किसी
कोने से बाहर निकालकर मेरे सामने रख दिया. मैक्लुस्कीगंज...मैं आ रहा हूं. कृपया इस लेख के संवाददाता अगर मुझसे संपर्क
कर सकें तो आभारी रहूंगा.
पंकज शुक्ल +919987307136 |
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MANSI
BHUI (mansi.bhui@gmail.com) BHOPAL
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the story touched me a lot as i
have spent my childood at khalari. So i visited mackuciganj quite often. By
reading your story i felt i am in maclucigang at present.
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Himanshu
Sinha (patrakarhimanshu@gmail.com) New Delhi
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किटी मेम साहब,
आपकी
कहानी ने रुला दिया. अपनी जमीन का नहीं होना कितना दुखद है औऱ उससे भी दुखद है,
उस
जमीन से उखड़ जाना. एंग्लो इंडियन समुदाय के साथ यही हुआ. जबकि उनके लिए जड़ों का होना जरुरी था.
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