रेटिंग: *** (तीन स्टार)
असली
ज़िंदगी की एक प्रेरणादायक कहानी और पांच बार वर्ल्ड चैंपियन रही एक
बॉक्सर के दिलचस्प जीवन पर 80 के दशक वाले अंदाज़ की घिसी-पिटी मसाला फिल्म
बनाने का काम सिर्फ़ बॉलीवुड में ही हो सकता है. आज दुनियाभर की फिल्मों
में स्पोर्ट्स पर आधारित शानदार बायोपिक बनने लगे हैं लेकिन हमारी फिल्म
इंडस्ट्री पुराने ढर्रों और फॉर्मूलों को छोड़ना ही नहीं चाहती. नज़र सिर्फ
100 करोड़ कमाने पर है और दर्शकों से उम्मीद सिर्फ़ इतनी कि वो अपना
दिमाग़ घर छोड़कर आएं.
कहानी
मणिपुर
के एक छोटे से गांव में जन्मी मैरी कॉम (प्रियंका चोपड़ा) को बचपन से
बॉक्सिंग का शौक है. उसके पिता (रॉबिन दास) को उसके इस शौक से नफ़रत है.
लेलिन ज़िद्दी मैरी कॉम अपने लिए एक गुरू (सुनील थापा) ढूंढ लेती है और फिर
बॉक्सिंग के सफ़र की शुरुआत होती है. उसके इस संघर्ष में उसका साथ देता है
ऑनलर (दर्शन कुमार). वर्ल्ड चैंपियन का ख़िताब हासिल करने के बाद मैरी और
ऑनलर शादी कर लेते हैं. इस बात से मैरी का गुरू बेहद नाराज़ होता है और
उससे बात तक करना छोड़ देता है.
मैरी जुड़वा बच्चों की मां बनती है और बॉक्सिंग
छोड़ देती है. मगर जल्दी ही उसे अपनी पहचान और बॉक्सिंग की कमी खलने लगती
है. सारे हालात उसके खिलाफ़ हैं. किस तरह वो मुश्किल हालात को पछाड़कर अंत
में फिर चैंपियन बनती है, यही है मैरी कॉम की कहानी.
मुश्किलों
पर विजय पाने की मैरी कॉम की ये कहानी बहुत कमाल की है. लेकिन यक़ीन कीजिए
ऐसे विषय के बावजूद फिल्म का पहला भाग बेहद बोर करता है. फ़्लैशबैक के
ज़रिए कहानी एक घटना से दूसरी घटना की तरफ़ जल्दी-जल्दी कूदती नज़र आती है.
हालांकि मैरी कॉमे की शादी के बाद की कहानी दिखाती हुई फिल्म दूसरे भाग
में संभल जाती है. फिल्म के सबसे बेहतरीन सीन इसी हिस्से में हैं.
परेशानी
ये है कि ऐसा महसूस होता कि हर सीन पहले किसी ना किसी फिल्म में देखा है.
कोई सीन चक दे इंडिया की कमज़ोर कॉपी लगता है तो कोई भाग मिल्खा भाग से
लिया हुआ. स्क्रीनप्ले में रोमांच की बेहद कमी है और कई जगह ये फिल्म नीरस
लगने लगती है.
अभिनय
अब
बात प्रिंयका चोपड़ा के एक्टिंग की करते हैं. प्रियंका पहले ही सीन से
मैरी कॉम कम, प्रियंका चोपड़ा ज़्यादा नज़र आती हैं. किसी भी बायोपिक के
लिए इससे कमज़ोर बात नहीं हो सकती. वो ज़्यादातर सीन्स में मणिपुर के लोगों
की तरह हिंदी बोलने की कोशिश करती हैं जो कि बेहद फिल्मी और नक़ली लगता
है. अगर आप उनके स्टारडम की वजह से इस कमी को नज़रअंदाज़ करने का फैसला
करते हैं तो ये फिल्म देखना आसान हो जाता है.
प्रियंका की मेहनत साफ़ दिखाई देती है. ख़ासतौर
पर शादी और बच्चों में उलझने के बाद, अपनी बॉक्सिंग की जिंदगी को याद करती
हुई और फिर सबसे बेहतरीन सीन जहां पर वो चयनकर्ताओं पर अपना गुस्सा दिखाती
हैं. इस सब सीन में वो बाज़ी मार ले गई हैं. ख़ासतौर पर दूसरे भाग में
उन्होंने दिखा दिया है कि क्यों उन्हें इस दौर की सबसे अच्छी अभिनेत्रियों
में गिना जाता है. प्रियंका के पति की भूमिका में दर्शन कुमार, कोच की
भूमिका वाले सुनील थापा ने अच्छा अभिनय किया है. फिल्म में ज़्यादातर
कलाकार ऐसे हैं जिन्हें दर्शक जानते नहीं, ये कलाकार फिल्म को स्वभाविक फील
देते हैं.
म्यूजिक
फिल्म
का गीत-संगीत भी बेहद साधारण हैं और स्पोर्ट्स फिल्म होने के बावजूद कोई
जोशीला गीत नहीं हैं. सिर्फ़ एक गीत दिल ये ज़िद्दी है ही थोड़ा बहुत याद
रह जाता है.
निर्देशन
निर्देशक
उमंग कुमार एक बेहतरीन कहानी के बावजूद नए अंदाज़ में कुछ नहीं कहते.
फिल्म के कई सीन स्वभाविक रूप से बेहद संवेदनशील है और महिला सशक्तिकरण से
जुड़े कई मुद्दे उठाने की कोशिश भी की गई है. लेकिन ये बहुत असर नहीं
छोड़ती.
क्यों देखें
ये
एक अच्छी टाइमपास फिल्म है जिसके कई हिस्से मनोरंजक भी हैं. मगर बेहद
संघर्ष करके पांच बार वर्ल्ड चैंपियन बनी मैरी कॉम पर सिर्फ़ टाइमपास फिल्म
बनाना शायद नाइंसाफ़ी ही है. फिर भी किन कठिन हालात में भारतीय खिलाड़ी
जीत हासिल कर लेते हैं, ये जानने के लिए ये फिल्म देख सकते हैं.
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