- 14 नवंबर 2014
दुनिया में कई देशों से बादशाहत ख़त्म हुई. मुग़ल सम्राट आए और चले गए. अंग्रेज़ों को भी गए हुए दशकों बीत गए.
लेकिन दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के शाही इमाम की 400 साल से भी पुरानी इमामत आज भी एक ही खानदान के हाथ में है.सऊदी अरब और दूसरे इस्लामी देशों में भी अनुवांशिक इमामत की मिसाल नहीं मिलती.
हैरानी की बात है कि ये परंपरा सदियों पुरानी परंपरा दिल्ली की जामा मस्जिद में आज भी जारी है.
जामा मस्जिद की निगरानी करने वाले दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड ने इसके ख़िलाफ़ कई बार आवाज़ उठाई, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.
जामा मस्जिद की इमामत पर टकराव क्यों
वक़्फ़ बोर्ड का तर्क है कि अहमद बुखारी उसके मुलाज़िम हैं. इसलिए इमाम की नियुक्ति का अधिकार केवल उसे है.वक़्फ़ का आरोप है कि अहमद बुखारी जामा मस्जिद को 'निजी जागीर' समझते हैं. वक़्फ़ ने अहमद बुखारी के ज़रिए अपना जानशीन चुनने की प्रक्रिया को चुनौती दी है.
वक़्फ़ ने साल 2000 में ख़ुद अहमद बुखारी की नियुक्ति के दौरान आपत्ति जताई थी. लेकिन मामला आज भी वहीं का वहीं है.
अब शाही इमाम अहमद बुखारी 22 नवंबर को अपने 19 वर्षीय बेटे शाहबान को अगले प्रमुख इमाम के तौर पर नियुक्त करेंगे.इस ऐलान के साथ ही एक बार फिर यह सवाल खड़ा हुआ है कि इमाम की नियुक्ति का अधिकार शाही इमाम को है या नहीं?
बेटे की ताजपोशी
अहमद बुखारी ने अपने बेटे की 'ताजपोशी' के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दावत नहीं दी है जिससे एक अलग विवाद खड़ा हो गया है.लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न ये है कि क्या उन्हें इस नियुक्ति का अधिकार है?
अगर जामा मस्जिद वक़्फ़ बोर्ड के अंतर्गत है तो समान्य तौर पर ये मानना होगा कि इमाम की नियुक्ति भी इसके अधिकारों में है.लेकिन ये मामला थोड़ा टेढ़ा है. जामा मस्जिद को ऐतिहासिक तौर से एक शाही रुतबा मिला हुआ था.
मुग़ल शहनशाह शाहजहाँ ने मस्जिद बनवाने के बाद बुखारा (अब ये उज़्बेकिस्तान में है) के बादशाह से दिल्ली की मस्जिद की इमामत के लिए एक ज्ञानी इमाम को भेजने की सिफारिश की थी.
बुखारा के शाह ने सैयद अब्दुल ग़फ़ूर शाह बुखारी को दिल्ली भेजा जिनका संबंध सीधे पैग़म्बर मुहम्मद के परिवार से बताया गया. उनकी नियुक्ति 24 जुलाई 1656 को हुई.
शाही इमाम
शाहजहाँ ने उन्हें शाही इमाम का ख़िताब दिया. इमामत एक ही परिवार में रही और ये सिलसिला आज तक नहीं टूटा है. अहमद बुखारी पहले इमाम के परिवार के ही हैं.अपने आप में ये इमामत भारत की सबसे पुरानी और अटूट संस्थाओं में से एक है.भारतीय मुसलमानों का इससे भावुक लगाव हो सकता है, लेकिन 21वीं शताब्दी के लोकतांत्रिक माहौल में भावनाओं को कितनी जगह दी जानी चाहिए ये सवाल भी अब उठने लगा है.
इसमें कोई शक नहीं कि जामा मस्जिद के इमामों ने सियासत में हमेशा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. वो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के करीब रहे हैं.
सिकुड़ती सल्तनत
उन्होंने भारतीय मुसलमानों के अधिकारों के लिए आवाज़ें उठाई हैं. एक समय ऐसा भी था जब उत्तर भारत के मुसलमानों पर उनका काफ़ी असर था.लेकिन आज उनका प्रभाव पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद के इर्द-गिर्द सीमित रह गया है.
मुग़ल बादशाह शाह आलम की सल्तनत सिकुड़ जाने पर एक शायर ने कहा था 'हुकूमत-ए-शाह आलम, अज दिल्ली ता पालम।' कुछ ऐसा ही हाल शाही इमाम अहमद बुखारी का भी लगता है.
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