बॉलीवुड जर्नल:
एसओएएस में, सुश्री ड्वेयर जो विषय पढ़ाती हैं उन में शामिल है: ‘दक्षिण एशिया में सिनेमा और समाज’, ‘दक्षिण एशियाई सिनेमा और अप्रवासी’ और ‘भारतीय सिनेमा: इतिहास और सामाजिक संदर्भ’। उनकी पुस्तकों के विषयों हैं; यश चोपड़ा की कृतियां, भारतीय सिनेमा में धर्म का प्रस्तुतिकरण और उसकी भूमिका, ब्रिटिश फिल्म संस्थान के लिए बॉलीवुड गाइड। उनकी कक्षाओं में अमिताभ बच्चन और करण जौहर बतौर मेहमान पढ़ा चुके हैं।
सुश्री ड्वेयर ने हाल ही में बॉलीवुड के अकादमिक दृष्टिकोण पर इंडिया रियल टाइम से बात की। साक्षात्कार के संपादित अंश:
डब्ल्यूएसजे: संस्कृत, भाषा-विज्ञान, दर्शनशास्त्र और ऐतिहासिक गुजराती कविता में डिग्रियां, कुछ लोगों को मसाला दुनिया से ये सब काफी इतर दिखाई देता है। भारतीय सिनेमा में आपकी दिलचस्पी कैसे जगी?
सुश्री ड्वेयर: मैंने सत्यजीत रे और फिल्म महोत्सवों से शुरुआत की। मैंने हिंदी सीखने के लिए हिंदी फिल्में देखना शुरू किया और मुझे उनका संगीत काफी पसंद आया। नसरीन कबीर की ‘मूवी महल’ और वो चैनल 4 की फिल्में जिन में उन्होंने उपशीर्षक दिए, से मेरी शुरुआत हुई। ये 1980 के दशक के उत्तरार्ध की बात है, जब घर पर कंप्यूटर या इंटरनेट नहीं हुआ करता था-केवल वीडियो और पान की दुकानों से घिसी वीएचएस टेप हुआ करती थीं, जिनमें कोई उपशीर्षक नहीं होते थे।
डब्ल्यूएसजे: आपको क्या रोमांचित करता है, फिल्में या उनसे जुड़े माध्यमिक स्त्रोत जैसे फिल्मी पत्रिकाएं, समीक्षाएं और संगतता? या ये प्रोजेक्ट पर निर्भर करता है?
सुश्री ड्वेयर: काश मेरे पास संगतता होती! कोई भी प्रलेखीकरण, जो ना के बराबर है, आकर्षक होता है। पुरानी सामग्री एक तरह का सामाजिक इतिहास होने के कारण काफी दिलचस्प होती है। मेरी तमन्ना है कि हर कोई संस्मरण लिखे। समीक्षाओं को गहरे से पढ़ने की आवश्यकता है, लेकिन इनसे काफी कुछ पता चलता है। फिलहाल मैं कुछ समीक्षकों को पढ़ रही हूं, जिससे मेरी फिल्मों की समझ में इज़ाफ़ा हुआ है।
डब्ल्यूएसजे: क्या ऐसी कोई फिल्में या संबंधित दस्तावेज़ हैं, जिन्हें आप किसी दिन अभिलेखागार में पाने के लिए व्याकुल हैं?
सुश्री ड्वेयर: निजी डायरियां और संस्मरण। कितना ही बुरा लेखन या कितने ही अहंकारी लेखक द्वारा लिखा हो, सूचनाओं के व्यापक स्त्रोत होते हैं। लोगों को क्या लगता है, वो क्या कर रहे हैं, काल्पनिक और वास्तविक जिंदगियों के बीच फिल्में कहां फिट होती हैं?
डब्ल्यूएसजे: बतौर फिल्मी अकादमिक क्या आप कोई अविस्मरणीय अनुभव हमारे साथ बांट सकती हैं?
सुश्री ड्वेयर: दिलिप कुमार, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान द्वारा पुस्तक का विमोचन, जिसके प्रमुख मेहमान बी.आर.चोपड़ा थे, कुछ अज़ीज मित्र बनाना और वो करना जिसे मैं प्यार करती हूं।
डब्ल्यूएसजे: मैं आपकी आने वाली पुस्तक “बॉलीवुड्स इंडिया: इंडियन सिनेमा एज़ ए गाइड टू मॉडर्न इंडिया” (बॉलीवुड का भारत: भारतीय सिनेमा आधुनिक भारत के लिए एक गाइड) को लेकर उत्साहित हूं। इसका शीर्षक मुझे सम्मोहित करता है! इस प्रोजेक्ट का ख्याल मन में कैसे आया?
सुश्री ड्वेयर: मैं समझती हूं कि बॉलीवुड फिल्मों को समझने के कई तरीके हैं और ये मेरा वाला तरीका है। मैं केवल इन्हें (हिंदी फिल्मों को) भड़कीला मनोरंजन कहने या फिर सौंदर्य विफलताओं के तौर पर खारिज किए जाने से थक चुकी हूं। फिल्मों के बारे में सोचने और लोग इन्हें क्यों पसंद करते हैं, को समझने के कई दिलचस्प तरीके हैं। एक ऐसे समय में जब जिंदगियां तेज़ी से बदल रही हैं, इतना व्यापक सांस्कृतिक उत्पादन इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता, जो सपनों और चिंताओं को अपने साथ समाहित करे। मनोरंजन क्या है और क्या वे (भारतीय) पलायनवादी हैं? लोग किससे दूर जाना चाहते हैं? और कहां? वो क्यों गैर-वास्तविक हैं? सितारे क्यों अवतरित होते हैं? सितारे भारत के अतीत, भविष्य और वर्तमान को कैसे देखते हैं? क्या सितारे एक नई पुराणविज्ञा रचते हैं? ये अचरज है कि पिछले 20 वर्षों के दौरान फिल्मों में कितना बदलाव आया है, इस दौर को मैं बॉलीवुड के उदय के रूप में स्वीकारती हूं।
डब्ल्यूएसजे: क्या आप महसूस करती हैं कि बॉलीवुड (और अन्य लोकप्रिय भारतीय सिनेमा) आम तौर पर अकादमिक हलकों में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं।
सुश्री ड्वेयर: मुझे लगता है कि मैं एक बड़े विश्वविद्यालय में बॉलीवुड की पहली प्रोफेसर बनी। गंभीरता से लिया जाना, अब भी एक संघर्ष हो सकता है और मैं इस बात पर ताज्जुब करती हूं कि अगर मेरी संस्कृत वाली गंभीर पृष्ठभूमि, एसओएएस और ऑक्सफोर्ड के बगैर यह यात्रा संभव नहीं होती। गैर-भारतीय होने से हमेशा राह आसान नहीं होती, लेकिन ये उन लोगों को परेशान नहीं करता, जो मेरे लिए मायने रखते हैं। ये निश्चित तौर पर उन दरवाज़ों को नहीं खोलता, जिनके बारे में लोग सोचते हैं कि ऐसा होता है। यश चोपड़ा केवल मेरे साथ काम करने को तभी तैयार हुए क्योंकि मैं आग्रही थी और उन्होंने मुझ पर दया की!
डब्ल्यूएसजे: आपके फिल्मी पाठ्यक्रम छात्रों में किस तरह की उत्सुकता या खोज संबंधी जिज्ञासा होती है?
सुश्री ड्वेयर: वो संक्षिप्त प्रयास करते हैं, शुरुआत में फिल्मों को समीक्षात्मक ढंग से पढ़ने के संदर्भ में प्रभावशून्य होते हैं, लेकिन अकसर बाद में वो उसे समझने लगते हैं और आकर्षक काम प्रस्तुत करते हैं, जिसे पढ़ना मुझे रोमांचित करता है। एमए के मेरे कुछ छात्रों ने अपने निबंध और शोध प्रकाशित किए। मेरे पीएचडी छात्रों ने व्यापक विषयों पर बेहतरीन शोध प्रस्तुत किए; जिसमें मुस्लिम आधुनिकता और हिंदी उद्योग में जर्मन जैसे हालिया शोध शामिल हैं।
डब्ल्यूएसजे: क्या भारतीय सिनेमा को लेकर ब्लॉग, ट्वीटर और फेसबुक औपचारिक या अन्यथा, संवाद बनाने में सहयोग दे पाते हैं?
सुश्री ड्वेयर: व्यापक तौर पर। मैंने उनसे काफी कुछ सीखा है। वो अकसर अकेला ऐसा ज़रिया हैं, जिनसे समसामयिक के साथ जुड़ा जा सकता है। अच्छे वाले बढ़िया लिखे होते हैं, जानकारी भरे, मज़ाकिया और सचित्र होते हैं।
डब्ल्यूएसजे: आप स्पष्ट रूप से एक अध्येता हैं, लेकिन आप एक प्रशंसक भी हैं, आपका ये पक्ष आसानी से ट्वीटर और फेसबुक पर देखा जा सकता है और इस तरह फिल्मी प्रशंसकों की विस्तारिक विविधता के लिए उपलब्ध भी है। आप किस स्टार की प्रशंसक हैं? क्या आप इस तरह की अभिव्यक्ति और अकादमिक पक्ष/सार्वजनिक चेहरे के बीच जानबूझकर संतुलन बनाने की कोशिश करती हैं?
सुश्री ड्वेयर: इस तथ्य को लेकर मैं हेनरी जेनकिंस की परिभाषा में ‘अका-फैन’ (आंशिक अकादमिक, आंशिक प्रशंसक) हूं। मैं स्क्रीन पर सबकी प्रशंसक हूं। मैं उनका घालमेल करने की कोशिश नहीं करती। अगर किसी सार्वजनिक समारोह में कलाकार, स्टार बनकर आ रहे हैं, तब मैं एक प्रशंसक ज्यादा महसूस करती हूं। मैं पिछले 20 वर्षों से शाहरुख की प्रशंसक हूं, लेकिन उन्हें हमेशा एक अलग शख्सियत के तौर पर देखती हूं। जहां तक नए कलाकारों की बात है, मैं रणबीर कपूर को काफी पसंद करती हूं। वो पूरी तरह से एक हिंदी फिल्म के हीरो हैं।
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