गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

दीपावली में होती है दो गांवों की लडाई





प्रस्तुति- अमन कुमार 


बदायूं।  उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में दो गांव ऐसे हैं, जहां के निवासियों के लिए दीपावली सिर्फ पटाखों, रोशनी और मिठाइयों तक ही सीमित नहीं है। वे एक-दूसरे पर पत्थर फेंक कर इस त्योहार का लुत्फ भी उठाते हैं। गांववासी इसे पत्थरमार दीपावली कहते हैं। यहां के दो गांव फैजगंज और बेहता में यह एक परंपरा है, जिसे लोग कई  
गांववासी इसे पत्थरमार दिवाली कहते हैं और उत्साह से मनाते हैं।
गांववालों का कहना है कि पत्थरमार दिवाली एक खेल की तरह है। हम दूसरे गांव के अपने प्रतिद्वंद्वी पर निशाना साधते हैं और उन पर पत्थर फेंकते हैं।
स्थानीय लोगों के अनुसार पत्थरमार दिवाली, दिवाली के एक दिन पहले सुबह तड़के से शुरू होती है और अगले दिन अपराह्न समाप्त हो जाती है।
बेहता गांव के एक किसान मिशिरिख चौरसिया (31) ने कहा, "इस दौरान हम रात को अवकाश लेते हैं। दोनों गांवों के नागरिक खासतौर से पुरुष पत्थरमार दिवाली मनाने के लिए दोनों गांवों को अलग करने वाले खेतों में बड़ी संख्या में जमा हो जाते हैं।"
चौरसिया ने कहा, "हमारे हाथों में लाठियां होती हैं, जो कभी-कभी पत्थर फेंकने के दौरान बहुत करीब आ गए प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबले के काम आती हैं।"
ग्रामीणों का कहना है कि दोनों गांवों में पत्थरमार दिवाली पिछले 110 सालों से मनाई जा रही है। ग्रामीणों के अनुसार इस परंपरा की शुरुआत उनके पुरखों के बीच वर्चस्व की लड़ाई को लेकर हुई थी।

यहां तो मन गयी दीपावली


यहां एक हफ्ते पहले ही मना ली दिवाली

By khaskhabar, 06 Nov 2015 12:08 AM
(6 Nov) धमतरी। जहां देश में अगले बुधवार को दीपावली मनाई जाएगी, वहीं एक गांव ऎसा भी है जहां आज यानी एक हफ्ते पहले ही लोगौं ने दिवाली मना ली है। यह गांव छत्तीसगढ के धमतरी जिले में है। धमतरी जिले के सेमरा गांव में लोगों ने पूरे हर्षो उल्लास के साथ आज गुरूवार को दिवाली का जश्न मनाया। इस त्यौहार में गांव वालों के रिश्तेदार भी शामिल हुए। गांव के लोग ऎसा अपने देवता को प्रसन्न करने के लिए करते हैं। इस गांव के लोग सिर्फ दिवाली ही नहीं बल्कि चार बडे त्यौहार एक हफ्ते पहले ही मना लेते हैं। सेमरा गांव में आज दिवाली मनाई गई और कल गोवर्धन का त्यौहार मनाया जाएगा। सभी ग्रामवासी ग्राम देवता सिरदार देव के मंदिर के समीप एकत्र हुए और परंपरा के अनुसार लक्ष्मी पूजा की। मंदिर में पूजा के बाद सभी ने अपने-अपने घर में माता लक्ष्मी की पूजा की और घर में दीप प्र”वलित किए। इसके बाद रात को सभी सिरदार देवचौरा के पास एकत्र हुए। यहां प्रतिवर्ष दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यRम का आयोजन किया जाता है। कल 6 नवंबर को गांव में गोर्वधन पूजा होगी। गोवर्धन पूजा के बाद ग्राम देवता के मंदिर के पास स्थित चौरा में गौरी

दीपावली के अद्‍भुत टोने-टोटके

नरक चतुर्दशी पर आजमाएं टोटके
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बदलते समय के साथ-साथ दीपावली पर होने वाले टोने-टोटके और ‍तांत्रिक गतिविधियों में अब कई तरह के बदलाव आ गए हैं। माना जाता है‍ कि दीपावली के पांच दिनों में खास करके धनतेरस, रूप चौदस और दीपावली के दिन कई तांत्रिक अनेक प्रकार की तंत्र साधनाएं करते हैं। वे कई प्रकार के तंत्र-मंत्र अपना कर शत्रुओं पर विजय पाने, गृह शांति बढ़ाने, लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने तथा जीवन में आ रही कई तरह की बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए विचित्र टोने-टोटके अपनाते है।

* नरक चतुर्दशी को काली चौदस भी माना जाता है। इस रात कई तांत्रिक काली रात को चिरागों की रोशनी तले रोशन करके कई सफल तंत्र साधनाएं करने में कामयाब होते है। घरेलू मान्यताओं के अनुसार नरक चतुर्दशी के दिन के साथ नरक शब्द के जुड़ने से वह स्वच्छता का प्रतीक बन गया है, क्योंकि उस दिन घर के कूड़ा-कचरा, गंदगी का नरक साफ किया जाता है।

* घर में मां, दादी जो कोई बड़ी होती हैं वे रात्रि के अंतिम प्रहर में देवी लक्ष्मी का आह्वान करती हैं और दरिद्रा को बाहर करती हैं। इसके लिए कहीं-कहीं सूप को सरकंडे से पीटा जाता है तो कहीं पुराने छाज में कूड़े आदि भर कर घर से बाहर कहीं फेंका जाता है।

* कुबेर के संबंध में लोकमानस में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पूर्वजन्म में कुबेर चोर थे- चोर भी ऐसे कि देव मंदिरों में चोरी करने से भी बाज न आते थे। एक बार चोरी करने के लिए एक शिव मंदिर में घुसे। तब मंदिरों में बहुत माल-खजाना रहता था। उसे ढूंढने-पाने के लिए कुबेर ने दीपक जलाया लेकिन हवा के झोंके से दीपक बुझ गया।

कुबेर ने फिर दीपक जलाया, फिर वह बुझ गया। जब यह क्रम कई बार चला, तो भोले-भाले और औघड़दानी शंकर ने इसे अपनी दीपाराधना समझ लिया और प्रसन्न होकर अगले जन्म में कुबेरको धनपति होने का आशीष दे डाला।

* देवी लक्ष्मी इस रात अपनी बहन दरिद्रा के साथ भू-लोक की सैर पर आती हैं। जिस घर में साफ-सफाई और स्वच्छता रहती है, वहां मां लक्ष्मी अपने कदम रखती हैं और जिस घर में ऐसा नहीं होता वहां दरिद्रा अपना डेरा जमा लेती है।
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* ऐसा माना जाता है माता लक्ष्मी के वाहन उल्लू को दीपावली की रात‍ पान खिलाने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर आपको संपूर्ण सुखों का आशीर्वाद देती है।

* सिर्फ इतना ही नहीं चोर-डाकुओं के लिए भी दीपावली के दिन बहुत मायने रखता है। खास तौर पर यह लोग चौदस और दीपावली की रात को कई तांत्रिक नुस्‍खे अपनाते हुए अपने चोरी के औजारों को पहले सिद्ध करते है, फिर उनका विधिवत पूजन करके कई तांत्रिकों से चोरी-डकैती का मुहूर्त निकालते हैं और फिर उसी के अनुसार अपनी चोरी और डकैती की वारदात को अंजाम देते है। माना जाता है कि दीपावली की रात सिद्ध मंत्रों का प्रयोग मुहूर्तानुसार करके उनका चोरी-डकैती करने पर इन साल भर यह काम अच्छा चलता है और वे अगली दीपावली तक काफी धन इकट्‍ठा करने में कामयाब हो जाते है।

कई लोग दीपावली पर लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए निम्न मंत्र का जाप करते हैं :-

ऊं पहिनी पक्षनेत्री पक्षमना लक्ष्मी दाहिनी वाच्छा
भूत-प्रेत सर्वशत्रु हारिणी दर्जन मोहिनी रिद्धि सिद्धि कुरु-कुरु-स्वाहा

इस मंत्र को 108 बार पढ़कर गुगल गोरोचन छाल-छबीला कपूर काचरी, चंदन चूरा आदि सामग्री मिलाकर लक्ष्मी को प्रसन्न करने का टोटका आजमाते है।

अगर दीपावली पर यह टोटके सिद्ध नहीं हो पाए तो फिर अष्टमी या शनिवार को लाल फल के साथ इन मंत्रों का पुन: जाप किया जाता है।


धन तेरस पर क्यों होता है हाथी का पूजन, अवश्य पढ़ें

धन तेरस पर पर हाथी की पूजा करने का भी विधान है। कथा आती है कि एक राजा की दो रानियां थीं। बड़ी रानी के अनेक पुत्र थे, लेकिन छोटी रानी को एक ही पु‍त्र था। एक दिन बड़ी रानी ने मिट्टी का हाथी बनाकर पूजन किया, पर छोटी रानी पूजन से वंचित हो गई। इससे वह उदास हो गई। उसके पुत्र से अपनी माता का दु:ख देखा नहीं गया। वह इंद्र से ऐरावत हाथी ले आया। उसने माता से कहा कि तुम इसकी पूजा करो। रानी ने उसकी पूजा की, बाद में उसका पुत्र बहुत यशस्वी हुआ। तभी से इस दिन सजे-धजे सोने, चांदी, तांबेपीतलकांसे या मिट्टी  के हाथी को पूजने की परंपरा आरंभ हुई।

अगले पेज पर पढ़ें क्या करें इस दिन 


दिवाली पर सुख-समृद्धि के लिए घर लाएं पवन घंटी

प्रीति सोनी 
दिवाली पर हर साल आप घर की साज-सज्जा अलग तरीकों से करते हैं, ताकि‍ घर भी खूबसूरत लगे और आपको ताजगी व सकारात्मकता का एहसास भी हो। सकारात्मता की खनक तो पवन घंटी की भी कुछ कम नहीं है जिसे आम भाषा में विंड चाइम्स कहा जाता है। इस बार अपने घर की खि‍ड़कियों और बरामदों को पवन घंटियों से सजाएं, ताकि मधुर आवाज से शांति और सुकून महसूस हो। लेकिन जब भी अपने घर के लिए पवन घंटी चुनें, तो इन 10 बातों का रखें ध्यान- 

कई तरह की भारी, हल्की, बड़ी, छोटी और रंगीन पवन घंटियां बाजार में उपलब्ध है। लेकिन आप जब पवन घंटी चुनें तब खोखली व पतली नली वाली को ही चुनें। यह हवा में आसानी से लहराकर मधुर आवाज करती है। साथ ही अगर 6 या 7 रॉड वाली पवन घंटी लगाएंगे तो घर में संपन्नता आती है।

सेहत, आयु, यश और वैभव का पर्व है धनतेरस

दिवाली के पांच पर्वों की श्रृंखला का पहला पर्व है धनतेरस। धार्मिक आधार पर स्वास्थ्य का ऐसा महापर्व शायद ही कहीं होता है? धनतेरस इस कारण से अनोखा पर्व है। धन-धान्य के साथ अच्‍छे आरोग्य की कामना का पर्व। लक्ष्मीजी का आगमन इस संदेश के साथ शुरू होता है- सर्वे संतु निरामया। शास्त्र और व्यवहार में लक्ष्मीजी के अनेक रूप मिलते हैं।


दिवाली लक्ष्मीजी का पर्व है। लक्ष्मीजी का स्वभाव, चंचल है। वह किसी एक स्थान पर अधिक समय नहीं रहता है। लेकिन धनतेरस पर लक्ष्मीजी के स्थायी भाव की पूजार्चना होती है। धन क्या है? इसकी महत्ता बताने के लिए ही महालक्ष्मी धनत्रयोदशी, धनतेरस और धन्वंतरि के रूप में हमारे सामने आती हैं।

लक्ष्मीजी के स्वागत व सत्कार की बेला है और पंच पर्वों की श्रृंखला का पहला पर्व सामान्य भाव से हम रुपए-पैसे को ही यह धन मान लेते हैं। व्यवहार में भले ही ऐसा हो, लेकिन लक्ष्मीजी को यह नहीं भाता। वह चंचल है, स्‍निग्ध है और ज्योतिर्मयी है, वह भवानी है, वह कल्याणी है, वह योगमाया है, वह योगमायी है। 

भगवान विष्णु जहां सारे संसार का पालन करते हैं, तो लक्ष्मीजी उसे पालन के हेतु है, माध्यम है, धन बिना कुछ नहीं? सेहत ही नहीं तो धन कहां? चरित्र ही नहीं, तो धन कहां? धर्म दस लक्षणों की नि‍धि है। शास्‍त्रों ने लक्ष्मीजी के आठ स्वरूप बताए हैं।



दीपावली के पांच शुभ दिन

Diwali दीवाली हिंदुओं में मनाया जाने वाला एक बड़ा धर्मिक पर्व है जिसे कार्तिंक महिने में मनाया जाता है। क्‍या आप जानते हैं दीपावली का शब्‍दिक अर्थ क्‍या है, दीपावली दो शब्‍द दीप और आवली को मिलाकर बना है। दीप मतलब दिया और आवली मतलब पंक्ति इसीलिए दीपावली को दीपों का त्‍योहार कहा जाता हैं। दीवाली को अंधेरे से उजाले में जाने का प्रतीक है। इसे पूरे पांच दिनों तक बड़े हर्ष और उल्‍लास के साथ मनाया जाता है। आइए जानते है विस्‍तार पूर्वक दीपावली के इन पांच शुभ दिनों के बारे में पहला दिन धनतेरस दीपावली का पहला दिन धनतेरस के रूप में पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है । इस दिन चांदी खरीदने की प्रथा है इसके पीछे एक बड़ा कारण माना जाता है। कहा जाता है चांदी चन्‍द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन को संतोष रूपी धन देता है और जिसके पास संतोष है वहीं सबसे सुखी व्‍यक्ति है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा के लिए मूर्ति भी खरीदते हें। क्‍या करें- धनतेरस के दिन दीप जलाकर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं। दूसरा दिन छोटी दीवाली दीपावली के दूसरे दिन नरक चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक कथा है कि इसी दिन कृष्ण ने एक दैत्य नरकासुर का संहार किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त किया था। इस दिन को छोटी दीपावली के रूप में भी मनाते हैं। क्‍या करें- इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर तेल लगाएं और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करें और विष्णु मंदिर या कृष्ण मंदिर में जाकर भगवान का दर्शन करने से सभी पाप खत्‍म होंते हैं। तीसरा दिन लक्ष्मी पूजा दीवाली के तीसरे दिन भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी के तीन रूपों की पूजा की जाती है वैसे भी किसी शुभ कार्य का शुभारंभ करने से पहले भगवान गणेश पहले पूजे जाते ह‍ैं। कहा जाता है जब तक भगवान गणेश और मां लक्ष्‍मी की पूजा न की जाएं दीवाली की पूजा अधूरी रहती है। इस दिन सभी अंधकार पर विजय मिलने की खुशी में भगवान से अपनी सुख समृद्धि का आशीर्वाद माँगते हैं, इस दिन लोग अपने व्‍यापार को फलने और फूलने के लिए भगवान को प्रसाद चढ़ाते है। क्‍या करें- दीवाली के दिन की विशेषता मां लक्ष्मी के पूजन से संबन्धित है इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी की पूजा करके उनका स्वागत किया जाता है। दीवाली के दिन जहां गृहस्थ और कारोबारी धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और धन की कामना करते हैं, वहीं साधु और संत कुछ विशेष सिद्धियां प्राप्‍त करने के लिए रात में अपने तांत्रिक पूजा पाठ करते हैं। चौथा दिन पड़वा व गोवर्धन पूजा दीपावली के दौरान चौथा दिन गोवर्धन पूजा के रूप के रूप में मनाया है। कुछ लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। हिंदू धर्म में गाय को पूज्‍यनीय माना गया है। शास्‍त्रों के अनुसार गाय गंगा नदी के समान पवित्र होती है यहां तक गाय को मां लक्ष्‍मी का रूप भी माना जाता है। कहा जाता है भगवान श्री कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा था जिसके नीचे सभी गोपी और गोपीकाओ ने आश्रय लिया था। इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी। क्‍या करें- इस दिन बृजवासी गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं। भारत में लोग अपनी गायों और बैलों को स्नान कराकर उन्हें रंग लगते हैं और उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल भी खिलाया जाता है। इस दिन एक मुखी रूद्राक्ष को धारण करने से जीवन में सफलता, सम्मान और सुख की प्राप्ति होती है। पांचवा दिन भाई दूज दीवाली का आखिरी दिन भाई दूज के रूप में मनाया जाता है। यह दिन भाई और बहनो के लिए समर्पित होता है। भाई दूज कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाने वाला हिन्दू पर्व है। इस दिन बहन रोली एवं अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके अच्‍छे भविष्य की कामना करती है। कहा जाता है इस दिन जब यमराज यमी के पास पहुंचे तो यमी ने अपने भाई यमराज की खूब सेवा की इससे खुश होकर यमराज ने अपनी बहन को ढेर सारा आशीष दिया। इसके अलावा कायस्‍थ समाज में भाईदूज के दिन भगवान चित्रगुप्‍त की पूजा भी की जाती है। कायस्‍थ समाज में लोग अपने बहीखातों की पूजा भी करते हैं। मान्‍यता है कि इस दिन अगर कोई भयंकर पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। क्‍या करें- इस दिन हर ब‍हन अपने भाई को तिलक लगाकर भाई की सुख समृद्धि की मंगल कामना करती हैं और उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीष देती हैं और भाई अपनी बहन को भेंट स्‍वरूप कुछ उपहार या दक्षिणा देता है भारत में कोई भी त्‍यौहार क्‍यों न हो उससे कई लोकमान्यताएं और कथाएं जुड़ी रहती हैं। शायद इसीलिए भारत को सर्वधर्मों का देश कहा जाता है। हम कामना करते है कि यह दीपावली आपके लिए ढेर सारी खुशियों के साथ आपके घर में सुख और समृद्धि लाए।



मोहाली। सभी शहरों की तरह इस गांव में भी दिवाली के कुछ दिन पहले लोग लाइटों से अपने घरों को सजा देते हैं, लेकिन दिवाली के पर्व को लेकर इस गांव की कुछ अलग ही रीति- रिवाज है। अन्य शहरों व इलाकों के लोग दिवाली का त्योहार उसी दिन मनाते हैं जिस दिन कलेंडर पर तारीख लिखी होती है। मोहाली के साथ सटे यह गांव चील्ला के लोग दिवाली का त्योहार एक दिन बाद मनाते हैं। इस गांव के लोग दिवाली के दिन कुछ नहीं करते हैं जबकि एक दिन बाद अपने घरों में दिवाली पूजन करते हैं और पटाखे चलाते हैं।
100 साल पहले गायों के गुम हो जाने से बना रिवाज
गांव के बुजुर्ग व पूर्व सरपंच गुरदीप सिंह ने बताया कि गांव चील्ला में पिछले करीब 100 से ज्यादा साल से दिवाली अगले दिन ही मनाई जीत है। उन्होंने बताया कि पिछले करीब 100 से ज्यादा साल पहले दिवाली के दिन गांव की सभी गाये गांव से एकदम गायब हो गई थी। गायों के उन जत्थों में गांव के लगभग सभी लोगों की एक या दो गायें व भैंसे थी। पूूरा दिन लोग अपने पशुओं को ढूंढते रहे, लेकिन रात तक पशु नहीं मिले। उस दिन पूरे गांव ने दिवाली नहीं मनाई। अगले दिन सभी पुश मिल गए। उनके मिलने के बाद ही लोगों ने दीपावली की पूजा की। तब से अब तक गांव में एक दिन बाद ही दीपावली का त्योहार मनाया जाता है।
शुक्रवार को गांव के लोगों ने मनाई दिवाली
गांव के मौजूदा सरपंच कुलदीप सिंह ने बताया कि दीवाली के अगले दिन गांव के सभी लोग नगर खेड़ा के पास एकत्रित होते हैं आैर अपने-अपने धर्मों की पूजा करते है। उन्होंने बताया कि गांव का एक भी निवासी ऐसा नहीं है, जो दिवाली के दिन त्योहार मनाता है।

बुंदेलखंड में जमघट से शुरू होती है गोवर्धन पूजा

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बांदा। उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में हर तीज-त्योहार मनाने के कुछ अलग ही रिवाज हैं। प्रकाश पर्व दीपावली के दूसरे दिन जमघट से दो अलग-अलग मान्यताओं के साथ गोवर्धन पूजा की शुरूआत होती है, अपने को भगवान श्रीकृष्ण का वंशज बताने वाले ग्वालवंशी "गोवर्धन पर्वत" और किसान वर्ग "गोबर धन" के रूप में एक पखव़ाडे तक पशुओं के गोबर से बने टीले की पूजा करते हैं।
 वैसे, उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में हर तीज-त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं, लेकिन रीति-रिवाज और मान्यताएं कुछ अलग हैं। अब आप प्रकाश पर्व दीपावली के दूसरे दिन जमघट से एक पखव़ाडा तक चलने वाली गोवर्धन पूजा को ही ले लीजिए। इस पूजा में भी दो अलग-अलग मान्यताएं जु़डी हुई हैं। अपने को भगवान श्रीकृष्ण का वंशज बताने वाले ग्वालवंशी (यादव) पशुओं के गोबर से बने टीले को गोवर्धन पर्वत और किसान वर्ग इस टीले की पूजा गोबर-धन के रूप में करते हैं।
 गांव-देहातों में इसे गोधन दाई के नाम से पुकारते हैं। बुंदेलखंड में गोवर्धन पूजा को लेकर दो अलग-अलग मान्यताएं हैं, पहली मान्यता के बारे में बांदा जिले के पनगरा में रहने वाले ग्वालवंशी लाला यादव का कहना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जमघट के दिन अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठा कर गोकुलवासियों की रक्षा की थी, तभी से पशुओं के गोबर का पर्वत (गोधन दाई) बनाकर इसकी एक पखव़ाडा तक पूजा की जाने लगी है। दूसरी मान्यता के बारे में ग़डाव गांव के बुजुर्ग किसान काशी प्रसाद तिवारी का कहना है कि पशुओं का गोबर किसान का सबसे ब़डा धन है, इसलिए किसान गोबर-धन की पूजा करता है।
 सबसे खास बात यह है कि गोवर्धन पर्वत में इस्तेमाल किए गए गोबर को एक पखव़ाडा बाद हर किसान अपने खेत में फेंककर अच्छी फसल की मन्नत मांगते हैं। इस दौरान किसान अपने पशुओं का गोबर प़डोसियों को मुफ्त में नहीं देते।


एक महीने बाद मनाई जाती है दीपावली

एक अनोखी दीवाली
देहरादून (वार्ता),
पूरे देश में रोशनी का त्योहार दीपावली जहाँ कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती ह, वहीं उत्तराखंड में देहरादून जिले के जौनसार बावर और टिहरी, गढ़वाल एवं उत्तरकाशी जिले के रवांई क्षेत्र में एक महीने बाद मार्गशीष (अगहन) मास की अमावस्या को मनाई जाती है।

भारत भूमि की उत्तर दिशा में बसा उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए दुनियाभर में विख्यात है। यहाँ स्थित देश के सिरमौर पहाड़ों के राजा हिमालय की बर्फ से ढँकी चोटियाँ, ऊँचे पर्वत शिखर तथा उनके बीच मौजूद गहरी घाटियाँ, कल-कल बहती नदियाँ सदैव हर किसी को आकर्षित करती हैं साथ ही यहाँ के रीति-रिवाज, खान-पान, मेले, त्योहार, रहन-सहन एवं बोली-भाषा हमेशा ही संस्कृति प्रेमियों के लिए शोध का विषय रहे हैं।

देश के लोग जब कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीपावली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं वहीं टिहरी, गढ़वाल और उत्तरकाशी के रवांई एवं देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की भाँति अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं। उस दिन यहाँ कुछ भी नहीं होता है।

इसके ठीक एक महीने बाद मार्गशीष, अगहन, अमावस्या को यहाँ की दीपावली मनाई जाती है और यह चार-पाँच दिनों तक मनाई जाती है। इसे यहाँ पहाड़ी दीपावली देवलांग के नाम से जाना जाता है।

इन क्षेत्रों में दीपावली का त्योहार एक महीने बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है, लेकिन इसके कुछ कारण भी लोग बताते हैं। कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों और आँगन में बिखरी पड़ी रहती है, जिस कारण किसान अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक महीने बाद किसान सब कामों से फुरसत में होकर घर बैठता है। इसी कारण यहाँ दीपावली मनाई जाती है।

कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त कर रामचन्द्रजी कार्तिक महीने की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे और इस खुशी में वहाँ दीपावली मनाई गई थी, लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुँचा इसलिए अमावस्या को ही केंद्र बिंदु मानकर ठीक एक महीने बाद दीपोत्सव मनाया जाता है।

एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी आदमी ने वीर माधोसिंह भंडारी की झूठी शिकायत की थी, जिस पर भंडारी को तत्काल दरबार में हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी।

रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राज दरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक महीने बाद भंडारी के वापस लौटने पर अगहन के महीने में अमावस्या के दिन दीपावली मनाई गई।

ऐसा भी कहा जाता है किसी समय जौनसार-बावर क्षेत्र में सामूशाह नामक राक्षस का राज था जो बहुत निर्दयी तथा निरंकुश था। उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था। तब पूरे क्षेत्र की जनता ने अपने ईष्ट महासू देवता से उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। महासू देवता ने लोगों की करुण पुकार सुनकर सामूशाह का अंत किया। उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।

शिवपुराण एवं लिंग पुराण की एक कथानुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में द्वंद्व होने लगा और वे एक दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की।

शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तंभ) के रूप में दोनों के बीच खडे़ हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई की तुम दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा।

ब्रह्माजी ऊपर को उडे़ और विष्णुजी नीचे की ओर। कई सालों तक वे दोनों खोज करते रहे, लेकिन अंत में जहाँ से खोज में निकले थे वहीं पहुँच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई हमसे भी श्रेष्ठ (बड़ा) है। जिस कारण दोनों उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे।

यहाँ महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे, इस कारण वहाँ दीपावली नहीं मनाई गई। जब वे युद्ध जीतकर आए तो खुशी में ठीक एक महीने के बाद दीपावली मनाई गई और यही परंपरा बन गई।

कारण कुछ भी हो, लेकिन यह दीपावली जिसे यहाँ नई दीवाली भी कहा जाता है, जौनसार, बावर के चार-पाँच गाँवों में मनाई जाती है। वह भी महासू देवता के मूल हनोल व अटाल के आसपास।

यहाँ एक परंपरा और है कि महासू देवता जो हमेशा भ्रमण पर रहते हैं तथा अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों में 10-12 सालों के बाद ही पहुँच पाते हैं। जिस गाँव में महासू देवता विश्राम करेंगे वहाँ उस साल नई दीवाली मनाई जाएगी, बाकी संपूर्ण क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली ही मनाई जाएगी।

वैसे तो एक महीने बाद (मार्गशीष) अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में यहाँ से लगे टिहरी के जौनपुर ब्लॉक, थौलधार, प्रतापनगर, उत्तरकाशी के रवांई, चमियाला, रूद्रप्रयाग तथा कुमाऊँ के कई इलाकों में मनाई जाती है। अन्य जगहों में दीपावली मनाने के जो भी कारण हों यहाँ बिलकुल भिन्न हैं।

यहाँ की दीपावली में न पटाखों का शोर, न बिजली के बल्बों व लड़‍ियों की चकाचौंध, न ही मोमबत्तियों की जगमगाहट होती है, बल्कि बिलकुल सामान्य तरीके से यहाँ आज भी दीपावली मनाई जाती है।

यह त्योहार वैसे तो अमावस्या से जुड़ा है, पर इसकी शुरुआत चतुर्दशी की रात से ही हो जाती है। इस रात सारे गाँव के लोग एक निश्चित जगह पर इकट्ठे होते हैं, वहाँ पर (ब्याठे) भीमल की छाल उतरी डंडिया, जलाकर पारंपरिक गीत गाते हैं जिन्हें (हुलियत) कहा जाता है।

बाजगी, गाँव में ढोल बजाने वाला अपने घर में कई दिन पहले जौ बोकर हरियाली तैयार करता है जिसे स्थानीय लोग दूब कहते हैं।

अमावस्या की रात को गाँव के सभी नर-नारी, बच्चे, बूढ़े़, पंचों को आँगन में इकट्ठा कर अपना पारंपरिक लोक नृत्य करते हैं तथा लोकगीत के माध्यम से अपने ईष्ट महासू देवता की आराधना करते हैं।

चतुर्दशी की भोर से प्रत्येक दिन चार बजे प्रातः जागकर अपने घर से व्याठे जलाकर निश्चित स्थान पर पहुँचते हैं तथा उजाला होने तक नृत्य एवं गीतों का दौर चलता रहता है। दीपावली के अंतिम दिन हमेशा की भाँति सुबह चार बजे सभी एकत्र होते हैं और उजाला होने पर अपने-अपने घरों को जाते हैं।

स्नान आदि से निवृत होकर सभी लोग एक जगह इकट्ठे होकर पूरे गाँव में बधाई देने को निकलते हैं। पुरुष, महिला, बालक, बालिका सभी अलग-अलग समूहों में निकलते हैं। इसी दिन यहाँ भिरूडी भी मनाया जाता है इसमें हर परिवार से 108 दाने अखरोट के माँगे जाते हैं। ये सभी को देने होते हैं।

जिनके घर में उस वर्ष लड़के का जन्म हुआ हो वह 200 दाने देगा ऐसा नियम है तथा उसका पालन भी होता है। यही दिन सर्वाधिक महत्व का होता है। दोपहर तीन बजे से ही लोग पंचों के आँगन में घिरने लगते हैं।

इसमें व्‍यवस्थानुसार बच्चे अलग, औरतें अलग, बूढ़ी महिलाएँ अलग तथा मर्द अलग रहते हैं। बूढ़ी महिलाओं को पहले ही उनका हिस्सा दिया जाता है। फिर अखरोटों की बरसात होती है और सभी लूटने के लिए उन पर टूट पड़ते हैं। चारों तरफ ऊँचे स्थानों से अखरोट फेंके जाते हैं। यह बेहद रोमांचकारी दृश्य होता है।

भिरूड़ी कार्यक्रम के बाद उसी स्थान पर बाजगी सभी लोगों के सिर में दूब लगाता है। इस क्रिया को हरिपाडी कहा जाता है। उसके पश्चात नृत्य किया जाता है। बीच में दो तलवारबाज एक-दूसरे पर प्रहार व बचाव करते हैं। यह इस समाज में युद्धप्रेमी होने की भावना को उजागर करता है। नृत्य में भी संघर्ष और बचाव यह साबित करता है कि यहाँ के लोग अपनी सुरक्षा के लिए सदैव संवेदनशील रहते हैं।

अँधेरा होने के बाद सभी लोग ढोल के साथ नाचते हुए गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ते हैं। गाँव के चारों ओर होते हुए फिर उसी जगह पर पहुँचते हैं। इसे यहाँ मौव कहा जाता है। यहाँ पहुँचते ही सभी परिवारों के बडे़ भाई एक तरफ और छोटे भाई दूसरी तरफ खडे़ होते हैं और उनमें रस्साकशी होती है।

संघर्षपूर्ण वातावरण रहता है। फिर से नाच और गीतों का दौर चलता है। भोजन आदि के बाद फिर सभी एकत्र होते हैं और अब बारी आती है 20 फीट ऊँचे हाथी के नचाने की।

इस विशालकाय हाथी पर गाँव का मुखिया सवार रहता है जिसके दोनों हाथों में तलवारें होती हैं जिन्हें वह रणक्षेत्र की भाँति घुमाता रहता है। हाथी को गाँव के 10-12 हट्टे-कट्टे नौजवान कंधों पर उठाए इधर-उधर पूरे आँगन में नचाते रहते हैं।

इनके थकने पर बीच-बीच में गाँव के ही कलाकार हास्य नाटक पेश कर मनोरंजन करते हैं। पूरी रात नृत्य, गीतों तथा संगीत को समर्पित रहती है जिसमें मुख्यतः ईष्ट महासू देवता की आराधना वीर रस और श्रृंगार रस के गीत होते हैं। इनमें एक गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं: वरमे ना जाई विरैसु वरमे जाई रै, सोडा तामी बहणो देया तु विरस छेवे लाइया।

पारंपरिक गीत में विरसू नामक महासू देवता का भंडारी यमुना नदी को पार करते समय बह जाता है जिसे एक मछली निगल लेती है और वह मछली दिल्ली में एक मछुआरे द्वारा पकड़ी जाती है।

वह उस मछली को एक व्यापारी को बेचता है लेकिन वह व्यापारी भी महासू देवता का भक्त था। हनोल स्थित मंदिर के लिए वह अनाज तथा नमक आदि भेजता था। उसकी संतानें आज भी इस परंपरा को निभाती हैं।

रातभर नृत्य के बाद आठ दिनों से भिगोए धान से तैयार च्यूडा को प्रसाद के रूप में सभी एक-दूसरे को देते हैं। आधुनिक युग की फटाफट जिंदगी का असर यहाँ भी पड़ा है, लेकिन फिर भी यहाँ अभी तक यह संस्कृति बची हुई है। नौकरीपेशा लोग इस दीपावली में आज भी सपरिवार घर पहुँच जाते हैं।


कई त्योहार काफी लोकप्रिय हैं, जो पूरे देश में मनाया जाता है, जैसे कि होली, दिवाली, दशहरा, ईद आदि। लेकिन कई पर्व ऐसे भी हैं जो किसी विशेष समुदाय द्वारा ही मनाया जाता है। जिसमें सिर्फ स्थानीय लोग ही हिस्सा लेते हैं। लेकिन इन पर्व- त्योहारों का भी अलग जोश और उत्साह होता है। यहां हम आपको ऐसे ही त्योहारों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसकी जानकारी से शायद ही आप कभी रूबरू हुए होगें। तो फिर, बढ़ाइए स्लाइडर और देखिए ऐसे त्योहार जिनके बारे में आप शायद ही जानते होंगे: Auto Play 1/25 बूका भाओना पर्व बूका भाओना पर्व जोरहाट में बूका भाओना पर्व में मिट्टी में लोग लोट-लोट कर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

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