मंगलवार, 21 सितंबर 2021

भक्त का भगवान से मधुर मिलन

 (((( भक्त का भगवान से मधुर मिलन ))))

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दक्षिण-प्रदेश में कृष्णवीणा नदी के तट पर एक ग्राम में रामदास नामक एक भगवद्भक्त ब्राह्मण निवास करते थे उन्हीं के पुत्र का नाम बिल्वमङ्गल था। 

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पिता ने यथा साध्य पुत्र को धर्मशास्त्रों की शिक्षा दी थी। विल्वमङ्गल पिता की शिक्षा तथा उनके भक्तिभाव के प्रभाव से वाल्यकाल में ही अति शान्त, शिष्ट और श्रद्धावान् हो गया था। 

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परन्तु दैवयोग से पिता-माता के देहावसान होने पर जब से घर की सम्पत्ति पर उसका अधिकार हुआ तभी से उसके कुसङ्गी मित्र जुटने लगे। 

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कुसङ्गी मित्रों के संग से अविवेक ने भी आकर अड्डा जमा लिया। 

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धीरे-धीरे विल्वमङ्गल के अन्तःकरण में अनेक दोषों ने अपना घर कर लिया। 

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एक दिन गाँव में कहीं चिन्तामणि नामक वेश्या का नाच था, शौकीनों के दल-के-दल नाच में जा रहे थे। बिल्वमङ्गल भी अपने मित्रों के साथ वहाँ जा पहुँचा। 

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वेश्या को देखते ही बिल्वमङ्गल का मन चञ्चल हो उठा, विवेक शून्य बुद्धि ने सहारा दिया, बिल्वमङ्गल ऐसे डूबे कि उन्होंनें हाड़-मांस भरे चाम के कल्पित रूप पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

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तन, मन, धन, कुल, मान, मर्यादा और धर्म सबको उत्सर्ग कर दिया ! है। 

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जिस दिन उनके पिता का श्राद्ध था विद्वान् कुल पुरोहित विल्वमङ्गल से श्राद्ध के मन्त्रों की आवृत्ति करवा रहे हैं परन्तु उनका मन 'चिन्तामणि' की चिन्ता में निमग्न है। 

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उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। किसी प्रकार श्राद्ध समाप्त कर जैसे-तैसे ब्राह्मणों को झटपट भोजन करवा कर बिल्वमङ्गल चिन्तामणि के घर जाने को तैयार हुए। 

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सन्ध्या हो चुकी थी, लोगों ने समझाया कि 'भाई ! आज तुम्हारे पिता का श्राद्ध है, वेश्या के घर नहीं जाना चाहिये', परन्तु कौन सुनता था ! 

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उसका हृदय तो कभी का धर्म-कर्म से शून्य हो चुका था। वि्वबमङ्गल दौड़कर नदी के किनारे गये। 

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भगवान की माया अपार है, अकस्मात् प्रबल वेग से तूफान आया और उसी के साथ मूसलधार वर्षा होने लगी। 

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आकाश में अन्धकार छा गया, बादलों की भयानक गर्जना और बिजली की कड़कड़ाहट से जीव मात्र भयभीत हो गये। 

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रात-दिन नदी में रहने वाले केवटों ने भी नावों को किनारे बाँध कर वृक्षों का आश्रय लिया, परन्तु विल्वमङ्गल पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ा। 

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उन्होंने केवटों से उस पार ले चलने को कहा, बार-बार विनती की, उंतराईका भी गहरा लालच दिया, परन्तु मृत्यु का सामना करने को कौन तैयार होता ? सब ने इन्कार कर दिया। 

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ज्यों-ज्यों विलम्ब होता था, त्यों-ही-त्यों विल्वमङ्गल की व्याकुलता बढ़ती जाती थी। अन्त में वह अधीर हो उठे और कुछ भी आगा-पीछा न सोचकर तैरकर पार जाने के लिये सहसा नदी में कूद पड़े ! 

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संयोग वश नदी में एक मुर्दा बहा जा रहा या। बिल्वमंगल तो बेहोश थे, उन्होंनें उसे लकड़ी समझा और उसी के सहारे नदी के उस पार चले गये। 

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उन्हें कपड़ों की सुध नहीं है, बिल्कुल दिगम्बर हो चुके है, चारों ओर अन्धकार छाया हुआ है, 

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पशु भयानक शब्द कर रहे हैं, कहीं मनुष्य की गन्ध भी नहीं आती, परन्तु बिल्वमङ्गल उन्मत्त की भाँति अपनी धुन में चले जा रहे हैं। 

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कुछ ही दूरी पर चिन्तामणि का घर था। श्राद्धके कारण आज बिल्वमङ्गल के आने की बात नहीं थी अतएव चिन्तामणी घर के सब दरवाजों को बन्द करके निश्चिन्त होकर सो चुकी थी। 

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बिल्वमङ्गल ने बाहर से बहुत पुकारा परन्तु तूफ़ान के कारण अन्दर कुछ भी नहीं सुनायी पड़ा। 

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बिल्बमङ्गल ने इधर-उधर ताकते हुए बिजली के प्रकाश में दीवाल पर एक रस्सा-सा लटकता देखा, तुरन्त उसने उसे पकड़ा और उसी के सहारे दीवाल फाँद कर अन्दर चले गये। 

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चिन्तामणी को जगाया। वह तो इन्हें ऐसे देखते ही स्तम्भित-सी रह गयी ! नंगा बदन, सारा शरीर पानी से भीगा हुआ, भयानक दुर्गन्ध आ रही है। 

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उसने कहा- 'तुम इस भयावनी रात में नदी पार होकर बन्द घर में कैसे आये ? 

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बिल्वमङ्गल ने काठ पर चढ़ कर नदी पार होने और रस्से की सहायता से दीवाल पर चढ़ने की कथा सुनायी ! 

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वृष्टि थम चुकी थी। चिन्ता दीपक हाथमें लेकर बाहर आयी, देखती है तो दीवाल पर भयानक काला नाग लटक रहा है और नदी के तीर सड़ा मुर्दा पड़ा है। 

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बिल्वमङ्गळने भी देखा और देखते ही कांप उठे। चिन्तामणी ने भर्त्सना करके कहा कि 'तू ब्राह्मण है ? अरे ! आज तेरे पिता का श्राद्ध था, परन्तु एक हाड़-मांस की पुतली पर तू इतना आसक्त हो गया कि अपने सारे धर्म-कर्म को तिलाञ्जलि देकर इस डरावनी रात में मुर्दे और साँप की सहायता से यहाँ दौड़ा आया ! 

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तू आज जिसे परम सुन्दरी समझ कर इस तरह पागल हो रहा है, उसका भी एक दिन तो वही परिणाम होने वाला है जो तेरे आँखों के सामने इस सड़े मुर्देका है ! 

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धिक्कार है तेरी इस नीच वृत्ति को ! अरे, यदि तु इसी प्रकार उस मनमोहन श्याम सुन्दर पर आसक्त होता, यदि उससे मिलने के लिये यों छटपटाकर दौड़ता तो अब तक उसको पाकर तू अवश्य ही कृतार्थ हो चुका होता !

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वेश्या की वाणी ने बड़ा काम किया, बिल्वमङ्गल चुप होकर सोचने लगे। 

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वाल्यकाल की स्मृति उसके मन में जाग उठी। पिता जी की भक्ति और उनकी धर्मप्राणता के दृश्य उसकी आँखों के सामने मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। 

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बिल्वमङ्गल की हृदयतन्त्री नवीन सुरों से बज उठी, विवेक की अग्निका प्रादुर्भाव हुआ, भगवत् प्रेम का समुद्र उमड़ा और उसकी आँखों से अश्रुओं की अजस्र धारा बहने लगी। 

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विल्वमङ्गल ने चिन्तामणि के चरण पकड़ लिये और कहा कि 'माता ! तूने आज मुझ को दिव्यदृष्टि देकर कृतार्थ कर दिया।

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मन-ही-मन चिन्तामणि को गुरु मानकर प्रणाम किया और उसी क्षण जगच्चिन्तामणि की चारु-चिन्ता में निमन् होकर उन्मत्त की भांति चिन्तामणी के घर से निकल पड़ा। 

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विल्वमङ्गलके जीवन-नाटक की यवनिका का परिवर्तन हो गया।

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श्याम सुन्दर की प्रेममयो मनोहर मूर्ति का दर्शन करने के लिये विल्वमङ्गल पागल की तरह जगह-जगह भटकने लगे। 

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कई दिनों के बाद एक दिन अकस्मात् उनको रात में एक परम रूपवती युवती दीख पड़ी, पूर्व-संस्कार अभी सर्वथा नहीं मिटे थे। 

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युवती का सुन्दर रूप देखते ही नेत्र चंचल हो उठे और नेत्रों के साथ ही मन भी खिंचा। 

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श्री भगवान ने गीता में कहा है..

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यततो हापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (२।६०)

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'यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी ये प्रमथन खमाव वाली इन्द्रियाँ जबरदस्ती हरण कर लेती हैं।

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इसी के अनुसार विल्वमङ्गल को भी फिर मोह हुआ। भगवान को भूलकर वह पुनः पतंगा बन कर विषयाग्नि की ओर दौड़ा। 

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बिल्वमङ्गल युवती के पीछे-पीछे उसके मकान तक गया। युवती अपने घर के अन्दर चली गयी, बिल्वमङ्गल उदास होकर घर के दरवाजे पर बैठ गया। 

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घरके मालिक ने बाहर आकर देखा कि एक मलिनमुख अतिथि ब्राह्मण बाहर बैठा है। 

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उसने कारण पूछा। विल्वमङ्गल ने कपट छोड़कर सारी घटना सुना दी और कहा कि 'मैं एक बार फिर उस युवती को प्राण भरकर देख लेना चाहता हूँ, तुम उसे यहाँ बुलवा दो।' 

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युवती उसी सेठ की धर्मपत्नी थी, सेठ ने सोचा कि इसमें हानि ही क्या है, यदि उसके देखने से ही इसकी तृप्ति होती हो तो अच्छी बात है। 

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अतिथि वत्सल सेठ अपनी पत्नी को बुलाने के लिये अन्दर गया। इधर विल्वमङ्गल के मन समुद्र में तरह तरह की तरङ्गों का तूफान उठने लगा।

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जो एक बार अनन्यचित्त से उस अशरण-शरण की शरण में चला जाता है उसके योगक्षेम का सारा भार वह अपने ऊपर उठा लेता है। 

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आज विल्वमङ्गल को सँभालने की भी चिन्ता उसी को पड़ी। दीनवत्सल भगवान्ने अज्ञानान्ध विल्वमङ्गल को दिव्यचक्षु प्रदान किये; 

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उसको अपनी अवस्था का यथार्थ ज्ञान हुआ, हृदय शोक से भर गया और न मालूम क्या सोचकर उसने पास के बेल के पेड़ से दो काँटे तोड़ लिये। 

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इतने में ही सेठ की धर्मपत्नी वहाँ आ पहुँची, बिल्बमङ्गल ने उसे फिर देखा और मन-ही-मन, अपने को धिक्कार देकर कहने लगा कि.. 

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'अभागी आँखें ! यदि तुम न होती तो आज मेरा इतना पतन क्यों होता!' 

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इतना कह कर विच मङ्गटने, चाहे यह उसकी कमजोरी हो या और कुछ, उस समय उन चञ्चल नेत्रों को दण्ड देना ही उचित समझा और तत्काल उन दोनों काँटों को दोनों आँखोंमें भोंक लिया! 

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ऑम्बास रुधिर की अजन धारा बहने लगी ! बिल्वमङ्गल हंसता और नाचता हुआ तुमुल हर्षध्वनि से आकाश को गुँजाने लगा। 

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सेठ को और उनकी पत्नी को बड़ा दुःख हुआ, परन्तु थे बेचारे निरुपाय थे। 

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विल्वनङ्गल का बचा-खुचा चित्तमल भी आज सारा नष्ट हो गया और अब तो वे उस अनाथ के नाथ को अति शीघ्र पाने के लिये बड़ा ही व्याकुल हो उठे।

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उनके जीवन-नाटकका यह तीसरा पट-परिवर्तन हुआ!

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परम प्रियतम श्रीकृष्ण के वियोग की दारुण व्यथा से उनकी फूटी आँखों ने चौबीसों घण्टे आँसुओं की झड़ी लगा दी। 

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न भूख का पता है न प्यास का, न सोने का ज्ञान है और न जागनेका ! 'कृष्ण-कृष्ण की पुकारते दिशाओं को गुँजाता हुए विल्वमङ्गल जंगल जंगल और गाँव-गाँव में घूमने लगते हैं ! 

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जिस दीनबन्धु के लिये जान-बूझकर आँखें फोड़ी, जिस प्रियतम को पाने के लिये ऐश आराम पर लात मारी, वह मिलने में इतना विलम्ब करे, यह भला किसी से कैसे सहन हो ? 

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यदि आजकल का-मेरे जैसा कोई होता तो वह भगवान को कोसते-कोसते ही पिण्ड न छोड़ता,भक्ति का त्याग तो कभी का कर चुका होता !  

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परन्तु उन्हौनें दोषारोपण कदापि नहीं किया, उनको अपने प्रेमास्पद में कभी कोई दोष दीखा ही नहीं..

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मेघ जल न बरसा कर पत्थरों की वर्षा से चातक की एक-एक पाँख को तोड़ डाले तो भी क्या चातक उस पर नाराज होता है ? .

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जहाँ निर्मल प्रेम का अगाध समुद्र है वहाँ तो एक प्रेम के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व ही नहीं रहता ! ऐसे प्रेमी के लिये प्रेमास्पद को भी कभी चैन नहीं पड़ती। उसे दौड़कर आना ही पड़ता है। 

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आज अन्धे बिल्वमङ्गल कृष्ण प्रेम में मतवाला होकर जहाँ-तहाँ भटक रहा है। कहीं गिर पड़ता है, कहीं टकरा जाता है, अन्न-जल का तो कोई ठिकाना ही नहीं। 

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ऐसी दशा में प्रेममय श्रीकृष्ण कैसे निश्चिन्त रह सकते हैं! एक छोटे-से गोप-बालक के वेश में भगवान् विल्वमङ्गल के पास आकर अपनी मन-मोहिनी मधुर वाणी से बोले..

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'सूरदासजी ! आपको बड़ी भूख लगी होगी, मैं कुछ मिठाई लाया हूँ, जल भी लाया हूँ, आप इसे ग्रहण कीजिये। 

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बिल्वमङ्गल के प्राण तो बालक के उस मधुर स्वर से ही मोहे जा चुके थे, उसके हाथ का दुर्लभ प्रसाद पाकर तो उनका हृदय हर्ष के हिलोरों से उछल उठा ! 

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बिल्वमंगल ने बालक से कहा 'भैया ! तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या किया करते हो ?

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बालकने कहा, 'मेरा घर पास ही है, मेरा कोई खास नाम नहीं, जो मुझे जिस नाम से पुकारता है, मैं उसी से बोलता हूँ, गौएँ चराया करता हूँ, मुझ से जो प्रेम करते हैं मैं भी उनसे प्रेम करता हूँ ।' 

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विल्वमङ्गल बालक की वीणा-विनिन्दित वाणी सुन कर विमुग्ध हो गये। बालक जाते-जाते कह गया कि 'मैं रोज आकर आपको भोजन करवा जाया करूँगा।' 

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बिल्वमङ्गलने कहा, 'बड़ी अच्छी बात है तुम रोज आया करो। बालक चला गया और बिल्वमङ्गलका मन भी साथ लेता गया। 

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'मनचोर' तो उसका नाम ही ठहरा ! अनेक प्रकार की सामग्रियों से भोग लगाकर भी लोग जिनकी कृपा के लिये तरसा करते हैं वही कृपासिन्धु आज विल्वमङ्गल को अपने कर कमलों से भोजन करवाने आते हैं ? 

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धन्य है ! भक्तके लिये भगवान् क्या-क्या नहीं करते ?

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बिल्वमङ्गल अब तक यह तो नहीं समझे कि मैंने जिसके लिये मैनें फकीरी का बाना लिया और आँखों में काँटे चुभाये, वह बालक वही कृष्ण हैं, परन्तु उस गोप-बालक ने उनके हृदय पर इतना अधिकार अवश्य जमा लिया कि उनको दूसरी बात का सुनना भी असह हो उठा। 

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एक दिन बिल्वमङ्गल मन-ही- मन विचार करने लगे कि 'सारी आफतें छोड़कर यहां तक आया, यहाँ यह नयी आफत आ गयी। 

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संसार के मोह से छूटा तो इस बालक ने मोह में घेर लिया' यों सोच ही रहे था कि वह रसिक बालक उनके पास आ बैठा और अपनी दीवानी बना देने वाली वाणी से बोला.. 

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'बाबाजी ! चुपचाप क्या सोचते हो ! वृन्दावन चलोगे ! 

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वृन्दावनका नाम सुनते ही विल्वमङ्गल का हृदय हरा हो गया परन्तु अपनी असमर्थता प्रकट करते हुआ बोले कि 'भैया, मैं अन्धा वृन्दावन कैसे जाऊँ ? 

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बालक ने कहा, 'यह लो मेरी लाठी, मैं इसे पकड़े-पकड़े तुम्हारे साथ चलता हूँ.. 

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बिल्वमङ्गल का मुखड़ा खिल उठा, लाठी पकड़कर भगवान् भक्त के आगे-आगे चलने लगे। 

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धन्य दयालुता ! भक्त की लाठी पकड़ कर मार्ग दिखाते हैं। थोड़ी-सी दूर जाकर बालक ने कहा, 'लो ! वृन्दावन आ गया, अब मैं जाता हूँ।' 

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बिल्वमङ्गल ने बालक का हाथ पकड़ लिया, हाथ का स्पर्श होते ही सारे शरीर में बिजली-सी दौड़ गयी, सात्त्विक प्रकाश से सारे द्वार प्रकाशित हो उठे..

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बिल्वमङ्गल ने दिव्य दृष्टि पायी और उन्होंनें देखा कि बालक के रूप में साक्षात् मेरे श्यामसुन्दर ही हैं। 

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विल्वमङ्गल का शरीर रोमाञ्चित हो गया, आँखों से प्रेमाश्रुओं की अनवरत धारा बहने लगी, भगवान का हाथ उसने और भी जोर से पकड़ लिया और कहा कि.. 

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अब पहचान लिया है, बहुत दिनों के बाद पकड़ सका हूँ प्रभु ! अब नहीं छोड़ने का! 

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भगवान नें कहा, 'छोड़ते हो कि नहीं ? बिल्वमङ्गग ने कहा, 'नहीं कभी नहीं, त्रिकाल में भी नहीं।

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भगवान ने जोर से झटका देकर हाथ छुड़ा लिया। भला, जिसके बल से बलान्विता होकर माया ने सारे जगत को पदपलित कर रक्खा है उसके बल के सामने बेचारा अन्धा क्या कर सकता था? 

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परन्तु उसने एक ऐसी रज्जु से उनको बाँध लिया था कि जिससे छूटकर जाना उनके लिये बड़ी टेढ़ी खीर थी ! 

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हाथ छुड़ाते ही बिल्वमङ्गल ने कहा-जाते हो ? पर स्मरण रक्खो !

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हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि यलात्कृष्ण किमद्भुतम् । हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ॥ 

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हाथ छुड़ाये जात हो, निबल जानिकै मोहि। हिरदयतें जब जाहुगे, मर्द बदौंगो तोहि॥

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आप मुझे निर्बल जानकर मुझ से बलपूर्वक हाथ छुड़ाकर तो जाते हो परंतु मेरे से जाकर दिखाओ मैं तभी आपको बलवान समझूंगा


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भगवान् नहीं जा सके ! जाते भी कैसे ? प्रतिज्ञा कर चुके हैं

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ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।'

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जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ। भगवान नें बिल्वमङ्गल की आँखों पर अपना कोमल कर कमल फिराया, उनकी आँखें खुल गयीं! 

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नेत्रों से प्रत्यक्ष भगवान को देखकर उनकी भुवन मोहिनी अनूप रूप राशि के दर्शन पाकर विल्वमङ्गल अपने आपको सँभाल नहीं सके। 

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वह चरणोंमें गिर पड़े और प्रेमाश्रुओं से प्रभु के पावन चरण कमलोंको धोने लगे!

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भगवान ने उठाकर उनको अपनी छाती से लगा लिया। भक्त और भगवान के मधुर मिलन से समस्त जगत में मधुरता छा गयी। 

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देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। सन्त-भक्तों के दल नाचने लगे। हरिनाम की पवित्र ध्वनि से आकाश परिपूर्ण हो गया। भक्त और भगवान् दोनों धन्य हुए। 

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वेश्या चिन्तामणि, सेठ और उनकी  पत्नी भी वहाँ आ गयीं, भक्त के प्रभाव से भगवान ने उन सबको अपना दिव्य-दर्शन देकर कृतार्थ किया।

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विल्वमङ्गल जीवन भर भक्ति का प्रचार कर भगवान की महिमां बढाते रहे और अन्त में गोलोक धाम में पधारे !

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साभार :- भक्त और भगवान

Bhakti Kathayen भक्ति कथायें

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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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