शनिवार, 21 जनवरी 2012

महंगाई पर मनमोहन सिंह के झूठ देविंदर शर्मा





हालांकि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बढ़ती महंगाई को बढ़ती संपन्नता का सूचक मानते हैं, किंतु सच्चाई बहुत कटु और दुखद है. लगातार चार वर्षो से खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है. महंगाई की आग में घी डालने का काम 13 महीनों में पेट्रोल की 11 बार बढ़ाई गई कीमतों ने किया है.
मनमोहन सिंह

जब भी खाद्यान्न की कीमत दहाई अंक में पहुंचती है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया तुरंत तीन से छह माह में महंगाई पर काबू पाने की घोषणा करने लगते हैं. कीमतों पर अंकुश लगाने में तो सरकार विफल रही ही है, इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि सरकार कीमतें बढ़ने के कारणों का पता लगाने में भी पूरी तरह अक्षम साबित हुई है.

पिछले चार साल के भीतर मैं यह देख कर हैरान रह गया कि मैंने जितनी भी मीडिया परिचर्चा में भाग लिया, उन सबमें अर्थशास्त्रियों ने महंगाई बढ़ने के मूल आर्थिक पहलुओं की घोर अनदेखी की है. वे आर्थिक पाठ्य पुस्तकों में वर्णित कारणों को ही दोहराते रहते हैं.

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य हों या योजना आयोग के सदस्य या फिर भारतीय रिजर्व बैंक के वरिष्ठ पदाधिकारी क्यों न हों, तमाम विशेषज्ञों का एक ही जवाब है-खाद्यान्न की महंगाई कम उत्पादन के कारण है. लोगों की बढ़ती आय के कारण मांग में तीव्र वृद्धि हो रही है, जबकि उत्पादन इस अनुपात में नहीं बढ़ रहा है. परिणामस्वरूप फल, सब्जियों और दुग्ध उत्पादों के दाम बढ़ते जा रहे है. इन विशेषज्ञों के अनुसार किसानों को उपज का अधिक मूल्य मिलने के कारण खाद्यान्न के दाम बढ़ रहे हैं, जिसकी कीमत उपभोक्ताओं को चुकानी ही पड़ेगी.

आइए, हम इन सब दलीलों की अलग-अलग पड़ताल करें. सबसे बड़ा कारण बताया जाता है कि खाद्यान्न की कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि बढ़ती मांग के अनुपात में आपूर्ति नहीं बढ़ रही है. कई माह से आप गोदामों व खुले में खाद्यान्न सड़ने या चूहों द्वारा चटकर जाने की खबरें पढ़ते आ रहे होंगे. लाखों टन अनाज और फल-सब्जियां बर्बाद होने की चिंता किसी को नहीं है, जबकि हमें बताया जाता है कि खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है.

जबसे टीवी चैनलों ने खाद्यान्न की बर्बादी को दिखाना शुरू किया है तब से सरकार महज जबानी जमा खर्च कर रही है. उसने अतिरिक्त भंडारण गृहों के निर्माण की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है. इस कदर हताशाजनक परिदृश्य के बीच और अधिक उत्पादन से क्या लाभ होगा? सरकार अतिरिक्त उत्पादन को रखेगी कहां? क्या यह भी बर्बाद नहीं हो जाएगा? सरकारी आंकड़ों के अनुसार हर साल 16 लाख टन से अधिक खाद्यान्न को गोदामों में चूहे चट कर जाते हैं. इससे भी कई गुना मात्रा ऐसे खाद्यान्न की है, जो सड़ने के कारण इंसानों के खाने लायक नहीं रह जाता. इस खाद्यान्न को पशुओं को खिलाने या अल्कोहल बनाने में इस्तेमाल करना पड़ता है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के महंगाई और संपन्नता में साम्य स्थापित करने का अभिप्राय है कि हाथ में अधिक पैसा होने के कारण लोग अधिक पौष्टिक भोजन लेने लगे हैं. परिणामस्वरूप फल, सब्जियों और दुग्ध उत्पादों की मांग में जबरदस्त उछाल आया है. यह भी सरासर झूठ है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं है.

फल व सब्जियों की प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन उपलब्धता 480 ग्राम है. संतुलित भोजन के लिए प्रति व्यक्ति आवश्यकता करीब 80 ग्राम ही है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत में फल-सब्जियों की मांग की तुलना में उपलब्धता छह गुना अधिक है. तो कमी कहां है? जब उपलब्धता अधिक है तो फल और सब्जियों के दाम आसमान क्यों छू रहे हैं?

यह दलील भी तथ्यों पर खरी नहीं उतरती कि आय बढ़ने से पौष्टिक भोजन की मांग बढ़ रही है. 2007 में नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन हमें बताता है कि खाद्यान्न खपत लगातार गिर रही है, जबकि अधिक पौष्टिक भोजन जैसे अंडे, फल और दूध आदि की खपत में कोई सापेक्ष बढ़त नहीं हो रही है. इसका साफ-साफ मतलब है, भुखमरी निरंतर बढ़ रही है. यह अधिक व्यापक और गहरी होती जा रही है. खाद्यान्न उपभोग में गिरावट ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में है. गांवों में यह गिरावट अपेक्षाकृत अधिक है.

ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति, प्रतिमाह खाद्यान्न खपत 1993-94 में 13.4 किलोग्राम से घटकर 2006-07 में 11.7 किलोग्राम रह गई है. शहरी क्षेत्रों में यह गिरावट 1993-94 में 10.6 प्रतिशत से 2006-07 में 9.6 किलोग्राम रह गई है. यही नहीं, अगर इन आर्थिक विशेषज्ञों की बात में दम होता तो इंटरनेशनल फूड पालिसी इंडेक्स द्वारा तैयार 2010 वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की दशा सुधर गई होती. भारत 81 देशों की सूची में 67वें पायदान पर है. पाकिस्तान, सूडान और रवांडा जैसे गरीब और पिछड़े हुए देश भी इस सूचकांक में भारत से ऊपर हैं. अगर लोग अधिक खाना शुरू कर देते तो जाहिर है भारत सूचकांक में इतना नीचे नहीं होता.

और अब देखें इस दलील में कितना दम है कि खाद्यान्न के दाम इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि किसान को उपज का अधिक मूल्य मिल रहा है. गेहूं, चावल और गन्ना वे प्रमुख फसलें हैं जिनकी खरीद मूल्य में अधिक बढ़ोतरी हुई है. दिलचस्प बात यह है कि गेहूं और चावल वे फसलें ही नहीं हैं, जिनकी महंगाई से गरीब त्रस्त है.

जहां तक गन्ने का सवाल है, 2009 में समर्थन मूल्य में हुई तीव्र वृद्धि के बाद अब चीनी के दाम लगभग स्थिर हो गए हैं, बावजूद इसके कि गन्ना उगाने वाले किसानों को अब अधिक मूल्य मिल रहा है. फल और सब्जी उगाने वाले किसानों को समर्थन मूल्य का कोई लाभ नहीं मिलता, जबकि इन्होंने ही आम उपभोक्ताओं की जेब सबसे अधिक काटी है.

अर्थशास्त्रियों को पता होना चाहिए कि खाद्यान्न की बढ़ती महंगाई का फायदा किसान को नहीं मिलता. उदाहरण के लिए हम केला उत्पादक किसानों की दशा देखें. किसान को एक दर्जन केले के महज 8-9 रुपये ही मिलते हैं, जबकि बाजार में केला 50-60 रुपये दर्जन तक बिकता है. असल समस्या मंडी व्यवस्था में है, जहां फलों व सब्जियों के दामों में 100 से 300 प्रतिशत तक वृद्धि कर दी जाती है.

सरकार व्यापारियों पर अंकुश लगाना ही नहीं चाहती. प्रधानमंत्री उपज के दामों के विनियमन की पहले ही मंशा जता चुके है. वह चाहते है कि कृषि उत्पाद का अंतिम मूल्य बाजार निर्धारित करे. दूसरे शब्दों में सरकार कृषि-व्यापार समर्थित और किसान विरोधी सुधार लागू करने के लिए दाम बढ़ाने की खुली छूट दे रही है.

11.11.2011, 03.52 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

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