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डीजल और रसोई गैस के दामों में इजाफा, यकीनन पहले से सुलग रही महंगाई की अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के काम को अंजाम देगा। पेट्रोलियम कंपनियों के कथित नुकसान की भरपाई करने के नाम पर पहले पेट्रोल के दाम में और अब डीजल व रसोई गैस के दाम में बढ़ोतरी की गई। तेल कंपनियों के आंकड़े कुछ और ही बयान करते हैं।
गत वर्ष ओएनजीसी ने तकरीबन 20 हजार करोड़, इंडियन ऑइल ने 3 हजार करोड़ और जीएआईएल ने 3 हजार करोड़ रुपयों का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया। भारत के प्रधानमंत्री को एक बेहद काबिल अर्थशास्त्री करार दिया जाता है। क्या फायदा है प्रधानमंत्री की ऐसी काबिलियत का जो आम भारतीय की रोजमर्रा की परेशानियों को दूर करने के स्थान पर उसमें बढ़ोतरी ही करती जा रही हो।
प्रधानमंत्री एक ऐसी अर्थनीति के निर्माता बन चुके हैं, जो एकदम ही अमीर कॉर्पोरेट सेक्टर को फायदा पहुंचाने की गरज से बनाई गई है। इस अर्थनीति के चलते आम आदमी की जिंदगी दुश्वार हो चली है। गत दो वर्षों से जारी महंगाई दर ने पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। अमीर आदमी को यकीनन महंगाई से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, किंतु एक गरीब इंसान की हालत कितनी बदतर हो चली है, इसका कुछ भी अंदाजा शासक वर्ग को संभवतया नहीं है। अन्यथा इस पर इतना बेरहम रुख हुकूमत की ओर से अख्तियार नहीं किया जाता।
विपक्ष के बिखराव और खराब सियासी हालात ने कमरतोड़ महंगाई के प्रश्न पर जनमानस के रोष की अभिव्यक्ति को अत्यंत असहज कर दिया है, अन्यथा अपनी माली हालत को लेकर आम आदमी के अंतस्थल में जबरदस्त ज्वालामुखी धधक रहा है। अमीर तबके के और अधिक अमीर हो जाने की अंतहीन लिप्सा की खातिर आम आदमी को निचोड़ा जा रहा है।
मार्केट इकोनॉमी के नाम पर अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बेलगाम कर दिया गया है। ऐसा हो रहा कि हुकूमत द्वारा महंगाई के दावानल में पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस को भी डाल दिया गया। महंगाई के प्रश्न पर आम आदमी का रोष इसलिए भी राजनीतिक जोर नहीं पकड़ रहा कि प्रायः सभी राजनीतिक दलों के नेताओं का अपना चरित्र भी कॉर्पोरेट परस्त होता जा रहा है। संसद के सदस्य अपना वेतन अब बीस हजार से बढ़ाकर नब्बे हजार करने जा रहे हैं, जो कि हुकूमत के सेक्रेटरी रैंक के अफसर के वेतन के समकक्ष होगा।
सरकारी आंकड़े खुद ही बयान करते हैं कि गत वर्ष के दौरान खाने-पीने की वस्तुओं के दाम 16.5 की इंफ्लेशन की दर से बढ़े हैं। चीनी के दाम 73 फीसदी, मूंग दाल की कीमत 113 फीसद, उड़द दाल के दाम 71 फीसद, अनाज के दाम 20 फीसद, अरहर दाल की कीमत 58 फीसद और आलू-प्याज के दाम 32 फीसद बढ़ गए हैं।
इसके अलावा रिटेल के दामों और थोक दामों में भारी अंतर बना ही रहता है। सरकारी आंकड़े महज थोक सूचकांक बताते हैं, जबकि आम आदमी तक माल पहुंचने में बहुत से बिचौलियों और दलालों की जेबें गरम जो चुकी होती हैं।
वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था अब सटोरियों और बिचौलियों के हाथों में ही खेल रही है। अपना खून-पसीना एक करके उत्पादन करने वाले किसानों की कमर कर्ज से झुक चुकी है। रिटेल बाजार में खाद्य पदार्थों के दाम चाहे कुछ भी क्यों न बढ़ जाएँ, किसान वर्ग को इसका फायदा कदाचित नहीं पहुंचता। इतना ही नहीं, धीरे-धीरे उनके हाथ से उनकी जमीन भी छिनती जा रही है।
हिन्दुस्तान के आजाद होने के बावजूद कृषि और कृषक संबंधी ब्रिटिश राज की रीति-नीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। आज भी लगभग वही कानून चल रहे हैं जो अंग्रेजों के शासनकाल में चल रहे थे। देश का 80 करोड़ किसान शासकीय नीति से बाकायदा उपेक्षित है। गत दो वर्षों के दौरान देश का किसान और अधिक गरीब हुआ है जबकि उसके द्वारा उत्पादित खाद्य पदार्थों के दामों में भारी इजाफा दर्ज किया गया। यह समूचा मुनाफा अमीरों की जेबों में चला गया। देश के अमीरों की अमीरी ने अद्भुत तेजी के साथ कुलांचें भरीं। मंत्रियों और प्रशासकों के वेतन में जबरदस्त वृद्धि हो गई। दूसरी ओर साधारण किसानों में गरीबी का आलम है। आम आदमी की रोटी-दाल किसानों ने नहीं, वरन बड़ी तिजोरियों के मालिकों ने दूभर कर दी है।
वस्तुतः समस्त देश में आर्थिक-सामाजिक हालात में सुधार का नाम ही वास्तविक विकास है। एक वर्ग के अमीर बनते चले जाने और किसान-मजदूरों के दरिद्र बनते जाने का नाम विकास नहीं बल्कि देश का विनाश है। निरंतर गति से बढ़ती महंगाई और शोषण के बीच चोली-दामन का संबंध है। महंगाई वास्तव में ताकतवर अमीरों द्वारा गरीबों को लूटने का एक अस्त्र है। इस खतरनाक साजिश में सरकारें भी अमीरों के साथ बाकायदा शामिल हैं। वास्तव में सरकार ने बाजार की ताकतों को इतना प्रश्रय और समर्थन प्रदान कर दिया है कि घरेलू बाजार व्यवस्था नियंत्रण से बाहर होकर बेकाबू हो चुकी है। सटोरिए, दलाल और बिचौलिए इसमें सबसे अहम किरदार हो गए हैं।
देश में दुग्ध उत्पाद की कमी है किंतु केसिन चीज और मिल्क पावडर का निर्यात बदस्तूर जारी है। देश के लोग कृषि उत्पादों की महंगाई से बेहद त्रस्त हैं, किंतु कृषि उत्पादों का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है।
दो साल से सरकार दावा रही है कि मूल्यवृद्धि पर काबू पा लिया जाएगा किंतु नतीजा एकदम शून्य रहा। अधिक मांग का दबाव न होने एवं फसलों के भरपूर होने के बावजूद कीमतों की उड़ान क्यों जारी रही है? वायदा बाजार बाकायदा पल्लवित हो रहा है। काले बाजार और काले अघोषित गोदामों में किसान को चावल, चीनी, दाल, गेहूं आदि के जखीरे को दबाकर बाजार में चालू आपूर्ति कम कर दी गई। कुछ अनचाहे अधमने सरकारी छापों में ही गोदामों में बाकायदा दबा पड़ा विशाल भंडार दिखाई दे गया। राजकाज और बाजार की मिलीभगत ने अब ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि राज्य व्यवस्था और बाजार के बीच फर्क महज औपचारिकता ही बन कर रह गया है। काली राजनीति का काले धंधे के साथ अवैध समीकरण भारत की जम्हूरियत और राज व्यवस्था का खास चेहरा बन गए हैं। वायदा बाजारों के चलते खाद्य पदार्थों की कीमतें कम नहीं हो पा रही हैं, क्योंकि कीमतें कम होने से बिचौलियों और कृषि कंपनियों को घाटा हो सकता है। हमारे देश में इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक तरफ गोदामों में अनाज सड़ रहा है और दूसरी तरफ लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। बिचौलिए मालामाल हो रहे हैं और किसान बदहाल हैं। वर्तमान राजनैतिक समीकरण ने संभवत: शाशक वर्ग को कुछ अधिक ही आश्वस्त कर दिया है कि आम आदमी के रोष से निकट भविष्य में उसकी सत्ता को कोई खतरा नहीं, किन्तु वे ऐतिहासिक सच्चाई को विस्मृत कर चुके हैं कि...
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