रवि अरोड़ा की नजर से....
शायर की बात / रवि अरोड़ा
बात अधिक पुरानी नहीं है । मैं साहिबाबाद सब्ज़ी मंडी में अपने एक आढ़ती मित्र से मिलने गया था । उस रोज़ वहाँ कई आढ़ती हाथ में सौदा दिखाते हुए नज़र आये । अब आप पूछेंगे कि हाथ में सौदा दिखाना क्या होता है ? देखिये ज़्यादा विस्तार से तो मैं भी नहीं जानता मगर इतना मुझे ज़रूर मालूम है कि आढ़ती अपने ग्राहक यानि थोक व्यापारी का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे कई जगह से दबाता है और बिना मुँह से कुछ बोले अपनी गुप्त भाषा से भाव बताता है । चूँकि व्यापारी भी घाघ होते हैं अतः वे भी आढ़ती की मुट्ठी अपनी मुट्ठी में दबा कर कुछ गुप्त इशारों से मोलभाव करते हैं । ज़ाहिर है कि भोले भाले किसान को लूटने के लिए ही एक दौर में आढ़तियों और व्यापारियों ने यह गुप्त भाषा गढ़ी होगी और इसी की बदौलत किसान को उसके सामने ही चूना लगाया जाता है । किसान इस गुप्त भाषा को नहीं समझ पाता अतः उसकी महीनो की मेहनत पर उसके सामने ही डाका पड़ जाता है । हालाँकि अब किसान सयाना हो गया है और उसकी नई पीढ़ी तो पढ़-लिख भी गई है अतः वह अब सौदा हाथ में दिखाये जाने का विरोध करने लगा है और मंडी में खुली बोली से ही अपनी फ़सल बेचना पसंद करता है मगर इतने भर से उसकी हालत सुधर गई है क्या ? ग़ौर से देखिए हर साल उसकी किसी न किसी फ़सल की बेक़द्री तो होती ही है । इस बार सेब का नम्बर है । यक़ीन न हो तो अपने आस पास ही निगाह दौड़ा लीजिये । आपको हर दूसरी ठेली पर सेब बिकता नज़र आएगा और वह भी साठ-सत्तर रुपये किलो । यह क्या हुआ ? अमीरों का फल ग़रीब की झोली में कैसे आ गिरा ? सस्ता सेब इस बार हमारे हमारे चेहरे पर जो मुस्कान लाया है , क्या उसके पीछे उसके उत्पादक किसान के आँसू तो नहीं हैं ?
आँकड़े बताते हैं कि मुल्क में सालाना बीस लाख टन सेब का उत्पादन होता है । इसमें सत्तर फ़ीसदी सेब कश्मीर में होता है । हिमाचल प्रदेश का नम्बर दूसरा है और बीस परसेंट सेब वहाँ से देश भर में जाता है । हिमाचल में बंपर फ़सल के बाद सारा सेब पेड़ से टूट चुका है और अब कश्मीरी सेब का नम्बर है । मगर इस बार कश्मीर में फ़िज़ा बदली हुई है । धारा 370 हटाए जाने के बाद बंदी का एसा माहौल बना कि सेब का निर्यात धड़ाम से नीचे आ गया । रही सही कसर आतंकवादियों ने पूरी कर दी और उनकी धमकियों के चलते किसान कच्चा-पक्का जैसा भी है सेब मंडियों में पहुँचा कर तनाव से मुक्त होने में लगे हैं । नतीजा मंडियों में आवक बढ़ गई है जिससे दाम ज़मीन पर आ गए हैं । अकेले दिल्ली की मंडी में पाँच सौ से अधिक ट्रक सेब कश्मीर से रोज़ाना आ रहा है और पंद्रह किलो की पेटी सात सौ रुपये की बिक रही है जबकि पिछले साल यही पेटी चौदह सौ रुपये की थी । गिरान यानि अपने आप पेड़ से गिरा सेब तो बीस रुपये किलो तक बिक रहा है । चूँकि कश्मीर में कोल्ड स्टोरेज सिरे से ग़ायब हैं अतः मात्र एक फ़ीसदी सेब ही कोल्ड स्टोरेज में जमा हो पाता है । किसान आसपास गिरी बर्फ़ में ही सेब दबा देता है और पूरी सर्दियाँ उसे बेचता है मगर इस बार डरा किसान एसा भी नहीं कर पा रहा । कश्मीरी किसान की इसी बेबसी ने ही हमारी प्लेट में सेब को सजाया है ।
केवल सेब की ही क्या बात करें , अन्य कई फ़सलों का भी यही हाल हर साल होता है । गोभी, घीया, मूली और बैंगन जैसी सब्ज़ियाँ दूर दराज़ से लाद कर मंडी में लाये किसान अक्सर लदे ट्रक को छोड़कर भाग जाते हैं । बेचारे क्या करें , मंडी में कई बार दाम इतना कम होता है कि ट्रक का पूरा भाड़ा भी नहीं निकलता । गन्ना किसान और आलू उत्पादक भी अपनी फ़सल को अक्सर कम क़ीमत की वजह से जला देते हैं । खेती-किसानी घाटे का सौदा है , यह सबको पता है । फिर पता नहीं क्यों लोगबाग़ खेती करते हैं ? सरकार को भी पता है कि किसान की हालत ख़राब है और लगभग हर साल बारह हज़ार किसान आत्महत्या करते हैं । सरकार ने इसका हल ढूँढ भी लिया है और अब 2016 के बाद से किसानो की आत्महत्या का आँकड़ा जमा करना ही बंद कर दिया है । उधर तमाम राजनीतिक दल भी खेल कर रहे हैं और कभी प्याज़, कभी टमाटर और कभी दालों के बढ़े दाम गिना कर हमें किसानों का हमदर्द नहीं बनने देते । बढ़े दाम में किसान के हिस्से कितना आया , यह भी कोई नहीं बताता । वैसे जी तो करता है कि किसानो को अलामा इक़बाल का यह शेर सुनाऊँ जिसमें उन्होंने कहा है कि- जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो । मगर क्या करूँ शायरों की बात किसी को जल्दी समझ आती ही कहाँ है ।
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