उतावली नदी : 400 सालों से कहानी सुना रहा यह स्मारक
तब से अब तक उतावली नदी में न जाने कितना पानी बह चुका होगा लेकिन इस नदी की तासीर में ऐसा कुछ है कि यह आज भी करीब 400 साल पहले इसके तट पर पनपी एक राजसी प्रेम कहानी को बयान करती रहती है। जी हाँ, सुनने में यह भले ही अजीब लगे पर यह सौ फीसदी सही है। सुनी हुई कहानियाँ लोगों ने भुला दी, कागजों पर लिखी कई प्रेम कहानियाँ समय के साथ भुला दी गई होंगी पर इस कहानी की इबारत पानी पर लिखी गई थी, लिहाजा सैकड़ों साल गुजर जाने के बाद भी अब तक यह न केवल महफूज है बल्कि यहाँ आने वाले के दिल में कुछ इस तरह रच–बस जाती है कि वह चार सौ साल पहले की मुगलिया शानो-शौकत में खो जाता है। तो आइये जानते है क्या है यह प्रेम कहानी और क्या है पानी पर लिखी इस प्रेम कहानी का फलसफा।मध्यप्रदेश के जिला मुख्यालय बुरहानपुर से करीब 21 किमी दूर अमरावती रोड पर स्थित एक छोटे से गाँव सिंहखेडा से कुछ ही दूरी पर बहती है पहाड़ी नदी उतावली। इस नदी का नाम उतावली इसलिए पड़ा कि इसमें बहुत जल्दी बाढ़ आ जाती है। पहाड़ों से सीधे ढलान में होने से पानी का वेग बहुत तेज रहता है और इसी वजह से थोड़ी सी बारिश में भी इसमें आनन–फानन में बाढ़ आ जाती है। उतावली मतलब जल्दी और हड़बड़ी में बहने वाली। यहाँ का नजारा इतना सुंदर है कि जो कभी एक बार यहाँ आता है, वह बार–बार आने की इच्छा करता है। ख़ास तौर पर उजली पूनम की रात में तो यह जगह इतनी सुंदर और मनोरम हो जाती है कि देखते ही बनता है। इसे यह स्वरूप मुगलकाल के दौरान करीब 1600 के बाद शाहजहाँ के कार्यकाल में खुद बादशाह शाहजहाँ ने रुचि लेकर दिया था। उसे इस जगह से बहुत लगाव था और उसने तब की अभियांत्रिकी का सहारा लेते हुए इसकी प्राकृतिक सुन्दरता को कई गुना बढ़ा दिया। यह संरचना आज भी पूरी शानो-शौकत से खड़ी उन दिनों के वैभव की कहानी सुनाती है और शाहजहाँ तथा गुलआरा के प्रेम कहानी भी।
यहाँ नदी को रोककर उसके रास्ते पर करीब तीन सौ फीट की लाल पत्थरों से करीब 30 फीट चौड़ी मजबूत दीवार बनाकर बाँध बनाया गया है। इससे यहाँ बारहों महीने निर्मल जल भरा रहता है और नदी का पानी बाँध की दीवार से किसी प्रपात की तरह उफनता रहता है। बारिश के दिनों में यह प्रपात कल–कल, छल-छल का मधुर संगीत सुनाता है। चाँदनी रातों में यहाँ से पानी को बहते हुए देखना अपने आप में एक अद्भुत दृश्य होता है। आज भी हजारों सैलानी हर साल यहाँ इसका नजारा देखने पहुँचते हैं। इस कृत्रिम प्रपात के पूर्व और पश्चिम दिशा में दो सुंदर महल बनाये गए हैं जो मुगल स्थापत्य कला के नायाब नमूने हैं और आज भी उसी स्वरूप में मौजूद हैं। इन्हें अब महल गुलआरा कहा जाता है। ये दोनों ही उन दिनों प्रचलित ईंट, चूने और पत्थरों से बने हुए हैं। इनमें बड़े–बडे कक्ष हैं और महल की छत पर पहुँचने के लिए करीने से सीढियाँ भी बनी हुई है। दरअसल चाँदनी रातों में इन्हीं से छत पर पहुँचकर यहाँ संगीत और प्रकृति की जुगलबंदी हुआ करती होंगी। अज भी महल की छत से देंखें तो हमे दूर–दूर का दृश्य साफ़-साफ़ नजर आता है। इनकी ऊँचाई बहुत अधिक होने से यहाँ से दूर तक फैले हरे–भरे खेत, पहाड़ और नदी का बहुत बड़ा हिस्सा नजर आता है। दोनों महल मजबूत स्तम्भों पर टिके हैं और पानी जब अधिक होता है तो इन्हीं स्तम्भों की कमानों से होकर भी प्रपात की तरह बहता है। एक से दूसरे महल तक जाने के लिए सुंदर कारीगिरी से सीढ़ीनुमा रास्ता बनाया गया है। इनमें थोड़ी–थोड़ी दूरी पर अष्टकोणीय सुंदर चबूतरे बनाये गए हैं। इनसे प्रपात तथा नदी के सरोवर को निहारना बहुत अच्छा लगता है।
इसे उस दौर की जल अभियांत्रिकी और स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नायब उदाहरण ही कहेंगे कि 400 सालों तक लगातार पानी में खड़ा रहने और बरसात तथा बाढ़ झेलने के बाद भी अब तक यह उसी स्वरूप में मौजूद है। आज तक न तो इन महलों में या न ही बाँध में किसी तरह की कोई क्षति पहुँची है। उन दिनों यहाँ से पानी नहरों के जरिये करीब 25 किमी दूर आहुखाना तक जाता था, जहाँ इसका उपयोग शाहजहाँ की बेटी शहजादी आलम आरा के नाम पर बने बाग ए आलम आरा में सिंचाई के लिए किया जाता था।
बुरहानपुर मुग़ल काल के दौरान राजसी गतिविधियों का एक बड़ा केन्द्र रहा है। 1599 में अकबर ने इसे अपने अधिकार में ले लिया था और तब से ही यह खान देश की राजधानी के रूप में अपनी खासी पहचान कायम कर चुका था। यहाँ ही शाहजहाँ की प्रेयसी मुमताज़ महल की कब्र भी है और उसकी याद में काले पत्थरों से बना हुआ पहला ताज महल भी। आगरा में ताज महल तो आज विश्व विरासत में गिना जाता है पर बहुत कम लोग जानते हैं कि मुमताज़ महल की मौत बुरहानपुर में ही 17 जून 1631 को अपनी 14वीं सन्तान को जन्म देते समय हुई थी।
यह बात करीब 1600 के शुरूआती दशक के दिनों की है। मुग़ल बादशाह राजकाज के सिलसिले में अक्सर यहाँ आते रहते थे। ऐसे ही एक बार बादशाह जहाँगीर के साथ उनके बेटे शाहजहाँ बुरहानपुर आये। बुरहानपुर का उन दिनों प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता था। शाहजहाँ बुरहानपुर का सौन्दर्य देखकर मुग्ध हो गए। वे हर दिन आस-पास निकल जाते और प्रकृति का आनंद लेते। ऐसे ही एक दिन वे उतावली नदी के तट पर वहाँ के अप्रतिम प्राकृतिक सौन्दर्य में खोये हुए थे, तभी वहीं रहने वाली एक किशोरी गायिका गुलआरा के कंठ से फूटे सुरों ने उनके दिल पर कुछ ऐसी दस्तक दी कि वे फिर कभी जिन्दगी भर इस जगह को भूल नहीं सके। जी हाँ, इसी नदी के तट पर तब उम्र में किशोर शाहजहाँ ने सबसे पहले गुलआरा को गाते हुए देखा था। शाहजहाँ के दिल के न जाने किस तार को झंकृत कर दिया था गुलआरा ने फिर कभी उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। शाहजहाँ उस पर इस कदर मोहित हो गया कि उसने उसे हमेशा के लिए अपनी बेगम बना लिया और अपने साथ बाद में आगरा भी ले गया।
लोग बताते हैं कि शाहजहाँ के समय में यहाँ आस-पास सुंदर उद्यान भी लगाये गए थे, जो बाद में उजड़ गए। बताते हैं कि जब भी शाहजहाँ यहाँ होता था तो वह अक्सर अपनी रातें इसी जगह बीताता था। वह यहाँ घंटों बैठकर गुलआरा से संगीत सुनता था। तब के लेखकों ने भी इस जगह का वर्णन अपनी किताबों में किया है। शाहजहाँ के दौर की कई किताबों में इसका जिक्र आता है। बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लहोरिन ने इसे ताजगी ए हयात यानी जीवन की ताजगी कहा है तो शाहजहाँनामा के लेखक ने इसे कश्मीर कहा है। फारसी के कवि मुहिब अली ने इसे महान स्वर्ग तथा सूफी संत मोहम्मद हाशम काशमी ने फारसी में लिखा है कि ए जलप्रपात आखिर तुझे किस बात का दुःख है कि तू मेरी तरह तमाम रात अपने सर को पत्थर पर पटक–पटक कर रो रहा था।
बरसात की चाँदनी रातों में इसका लुत्फ़ लेने के लिए बहुत से लोग यहाँ आते हैं और प्रपात की कल–कल छल–छल में खो जाते हैं। निस्तब्ध रात में अकेली पानी की दूर–दूर तक गूँजती आवाज़ बहुत कर्णप्रिय लगती है। लोग अपने निजी तनाव भूलकर प्रकृति के नजदीक तो आते ही हैं, शाहजहाँ और गुलआरा के प्रेम प्रसंग को भी शिद्दत से याद करते हैं। इस तरह पानी की यह संरचना सैकड़ों साल बाद आज भी इस प्रेम कहानी को जिन्दा रखे हुए है।
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