अनामी शरण बबल
शहीदे
आजम चंद्रशेखर आजाद के गांव भाबरा में जाकर आज श्रद्धाजंलि अर्पित करेंगे
यह एक शुभ शुभारंभ है। यानी देश के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों पर सरकार
को अब नाज के साथ लाज भी आने लगी है। और उनकी दुर्दशा को सुधारने की यह पहल
वंदनीय है। बशर्ते इसमें करप्शन का घुन नहीं लगा तो 2017 में आप भी
प्रधानमंत्री जी नाज करेंगे अपने इस अभियान की कामयाबी पर?
पर
प्रधानमंत्री जी चंद्रशेखर आजाद को ही इस मुहिम के लिए क्यों चुना? देश पर
मर मिटने वाले ऐसे हजारों शहीद हैं जिनका कोई नाम लेवा तक नहीं है।
हालांकि आपका इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि दिल्ली के भूगोल को तो आप
जानते ही कहां है? पर 1857 के गदर में यानी जालियांवाल बाग नरसंहार से करीब
62 साल पहले दिल्ली में भी एक नरसंहार हुआ था। दिल्ली के अलीपुर गांव के
पार्क , जिसको अब शहीद पार्क भी कहा जाता है में अंग्रेजों नें आस पास के
150 से भी अधिक देशभक्तों को भून दिया था। जमाना फिरंगियों का था और उस समय
तक गांधी बाबा भी पैदा नहीं हुए थे लिहाजा सालों तक इसका विरोध और
ग्रामीणों में असंतोष होने के बाद भी सैकड़ों लोगों का यह बलिदान इतिहास
में जगह भी नहीं पा सकी।
इस
घटना के 90 साल के बाद जब देश आजाद हुआ तो 1954 में शहीद पार्क को शहादत
स्थल घोषित किया गया और उस समय के तेजतर्रार महानगर पार्षद चौधरी प्रेम
सिंह ने इस शहादत शिला काो लगवाया था। इसके बावजूद दिल्ली समेत केंद्र की
समस्त सरकारे इस शहादत और नरसंहार की ओर झांकना भी नहीं गया। सरकारी और
सामाजिक उपेक्षा के चलते यह शहीद पार्क एक भूतहा पार्क के रूप में कुख्यात
है। सालो हो गए इस शहादत को लोग बिसरा दिए। और सबसे हैरत तो देश के तमाम और
दिल्ली में ही रहने वाले इतिहासकारो को भी दोषी माना जाना चाहिए कि आजादी
के संघर्ष के पहले नरसंहार को भूल गए। और तो और शहादत शिलालेख को अनावृत
करने वाले नेता चौधरी प्रेम सिंह जीवन में कभी चुनाव नहीं हारने की वजह से
गिनीज बुक में स्थान पाने वाले देश के इकलौते नेता है। मगर उम्र के 80 बसंत
आते आते प्रेम सिंह भी अलीपुर शहीद पार्क को भूल चुके थे।
प्रधानमंत्री
जी आप तो गुजरात से हैं 1922 में पालचितरिया में हुए भीलों के नरसंहार को
आप भी क्यों याद नही किए ? 1500 से ज्यादा भीलों (जिन्हें आज दलित भी कहकर
सहानुभूति पा सकते थे) का बलिदान भी आज आपसे सवाल करता होगा। 94 साल के
बादभी पालचितरिया भील नरसंहार इतिहास का एक खोया हुआ प्रसंग ही है। अपने
इतिहास कारों और सोशल मीडिया के धुरंधरो को कहेंगे तो पल भर में यह अंकड़ा
हाजिर हो जाएगा कि स्वतंत्रता संग्राम में जालियावाला बाग जैसे नरसंहार दो
दर्जन से अधिक हुए मगर इसको भारतीय इतिहासकारों के निकम्मेपन की वजह से ये
तमाम नरसंहार इतिहास में स्थान नहीं पा सकी और सैकड़ों देशभक्तों का बलिदान
सम्मान नहीं पा सका।
अरे मैं तो बहकने लगा पर इसके लिए माफ करेंगे मैं केवल दिल्ली पर ही खुद को नियंत्रित रख रहा हूं।
1857
के लोकयुद्ध में दिल्ली के गांव नजफगढ़ के पास बाकरगढ़ गांव के सिरफिरे
ग्रामीणों पर आजादी की लड़ाई का ऐसा खुमार चढ़ा कि अंग्रेज अधिकारी की बीबी
को ही कोठी से उठाकर अपने गांव में ले आए। उसके साथ कोई बदसलूकी तो नहीं
कि मगर दिल्ली के जाट बहुल दो तीन गांवों के दबंगों को मौका मिल गया। और
अंग्रेजों के कान भर कर पूरे गांव के प्रति ही दोगली राजनीति कर डाली।
जिसके फल में कई ग्रामीणो को तो रॉलर से रौंदवा मार डाला गया। जिससे भयभीत
होकर पूरा गांव पलायन कर गया और अपने संबंधियों के छिपते छिपाते करीब 90
साल तक गुमनामी में ही कई पीढियों तक गुमनाम ही रहे।
1947
में आजादी के बाद पूरा गांव एक बार फिर बाकरगढ़ लौटा तो यहां का नजारा ही
बदला हुआ था। अपने ही गांव में जमीन खरीद खरीद कर फिर से आबाद हुए और
आजादी के करीब 69 साल के बाद भी इन्हें अपनी जमीन वापस नहीं मिल सकी।
बाकरगड़ गांव की जमीन तीन गांवों में अंग्रेजों ने बॉट दी थी जिसकी कीमत आज
करोड़ों अरबों की है। और बाहरी दिल्ली के ज्यादातर सांसद विधायक जाट होते
हैं जो इस पर आंखें बंद रखना ही उचित मानकर खामोश रह जाते है। हरियाणा के
कुछ गांवों में भी इसी तरह की घटनाएं हुई थी जिसको हरियाणा के दबंग
मुख्यमंत्री वंशीलाल ने कुछ माह में ही सुलझा दिए थे। मगर अफसोस कि दिल्ली
के पास वंशीलाल जैसा कोई जीवट वाला नेता नहीं है जो आजादी में सूरमा बनने
की सजा 90 साल के बाद भी भोग ही रहे है, जो इनके घावों पर मरहम लगा सके।
और
गांव वजीरपुर और चंद्रावल समेत आस पास के 8-10 गांवो के हजारों ग्रामीणों
के जुनून ने अंग्रेजों का जीना हराम कर दिया था । अंग्रेज इनकी छापामार
युद्ध से पार नहीं पा रही थाी कि इससे निपटने के लिए फिरंगियों ने खतरनाक
कुतों की फौज लेकर इन गांवों में टूट पड़ी। और यह कहना बेमानी है कि इसके
बाद क्या हुआ होगा? हर उम्र के सैकड़ो बच्चों से लेकर उम्रदराज महिलाए और
महिलाओं का क्या हुआ होगा। सैकड़ों लोग कुतो के काटने से मारे गए। यह मौत
कितनी दर्दनाक रही होगी इसकी कल्पना भी डराती है। 500 से ज्यादा लोग
कुत्तों की भेट चढगए। मगर इस अमानवीयता पर भी कहीं और कभी भी इतिहास में
दर्ज नहीं है। इनकी मौत न शहादत है और ना ही इसे स्वतंत्रता संग्राम के
संघर्ष में इनको रखा गया।
दिल्ली
पर अभी एकदर्जन और ऐसे मामले हैं जिनकी शहादत आज भी इंसाफ मांग रही है।
मगर एक और शर्मनाक प्रसंग को रखकर ही मैं अपनी बात खत्म कर रहा हूं। आजाद
हिंद फौज यानी (आईएनए) के मुखिया नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। जिनकी मौत आज
भी एक रहस्य है तो इसे भी शर्मनाक मामला यह है कि दिल्ली में आजाद हिंद
फौज को एक दफ्तर तक नहीं मिला। 82 दरियागंज में तो आजाद हिंद फौज का दफ्तर
सालों तक मुफ्त में बिन किराये का रहा, मगर जब मकान मालिक ने आजाद हिंद
फौज वालों को किराए से बेदकल कर दिया। तो यह दफ्तर रोहिणी में आजाद हिंद फौ
के सार्जेंट एसएस यादव के मकान मे बंद हो गया। आजाद हिंद फौज का पूरा
दस्तावेज एक बंद अंधेरी कोठरी में सीलन ग्रस्त हो रही है।
उल्लेखनीय
है कि जब मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रॉय नेताजी पर फिल्म बनाने के लिए तैयार
हो गए तो अपनी बेटी के साथ रोहिणी मे रहते हुए आजाद हिंद फौज के दस्तावेजों
सहित नेताजी के बाबत किस्से कहानियां सुनते रहे। भाजपा नेताओं को नेताजी
अपने से लगते हैं और इनके प्रति वे अपना प्यार और भावनात्मक लगाव दर्शाती
भी है। बाहरी दिल्ली मे तो नेताजी के लिए एक पर्यटक गांव भी बसा डाला मगर
नेताजी के उल्लेखनीय कागजों की रक्षा करना किसी भी सरकारों ने गवारा नहीं
किया।
अनामी शरण बबल /
09082016
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