प्रमोद भार्गव
बरसात से पूर्व मौसम विभाग द्वारा मानसून की भविष्यवाणियों में फेरबदल
चिंता का सबब बन रहा है। मई की शुरुआत में सामान्य से पांच फीसद कम बारिश
की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन 9 जून को औसत से सात प्रतिशत कम वर्षा का
अंदेशा जताया गया। यानी आज भी हमारा मौसम विभाग सटीक भविष्यवाणी करने की
स्थिति में नहीं है। इस पर चिंतित होना इसलिए लाजिमी है, क्योंकि पिछले कुछ
सालों में मौसम विभाग के आधुनिकीकरण व तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर करोड़ों रुपए
खर्च किए गए हैं। अब जिन 16 मानक सूचनाओं व संकेतों के अध्ययन के आधार पर
भविष्यवाणी की जा रही है, वह विश्वस्तरीय वैज्ञानिक प्रणाली है। इसके
बावजूद सटीक भविष्यवाणी न होना चिंता की वजह तो बनती ही है।
दरअसल बीते साल भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी के साथ वर्षा समयसीमा में ही होने की बात कही गई थी। परंतु यह अवधि गुजर जाने के बाद भी कई बार बरसात हुई। यहां तक कि अप्रैल-मई में खेतों में कटी फसल को भी बेमौसम बारिश की मार झेलनी पड़ी। नतीजतन रबी सीजन की पैदावार पर बुरा असर पड़ा। इस वजह से महाराष्ट्र में एक लाख हैक्टेयर से भी ज्यादा कृषि भूमि में चने की फसल चौपट हो गई। राजस्थान, हरियाणा व पंजाब में सरसों की पैदावर की जो उम्मीद थी, उस पर ओले पड़ गए। यूपी व बिहार में आलू को नुकसान हुआ। मध्य प्रदेश में ओलावृष्टि से 13 हजार करोड़ की गेहूं, चने की फसलें नष्ट हो गईं।
आज भी देश में 60 प्रतिशत अनाज का उत्पादन मौसमी बारिश की कृपा पर टिका है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का तकरीबन 17 फीसद योगदान है। जाहिर है, मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यस्था औंधे मुंह गिरेगी और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। खाद्य मुद्रास्फीति के हालात और बिगड़ सकते हैं। ऐसे में नई सरकार के लिए आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाना मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल उत्पाद के हर क्षेत्र में विफल होने के बावजूद पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार खराब आर्थिक हालात का मुकाबला इसलिए कर पाई, क्योंकि पिछले चार साल मानसून अच्छा बना रहा और कृषि सेक्टर 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा। लेकिन अब प्रशांत महासागर में उपजने वाले अल-नीनो प्रभाव के संकेत सूखे के डरावने हालात पैदा कर रहे हैं। यह प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी अल-नीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी हैं। कहा जा रहा है कि इस परिघटना के दुष्प्रभाव जुलाई से दिखने शुरू हो सकते हैं और मुमकिन है कि यह प्रभाव 2009 से भी ज्यादा शक्तिशाली हो।
अल-नीनो प्रशांत महासगर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है। पेरू के आसपास की समुद्री सतह का तापमान औसत से 0.5 डिग्री तक अधिक हो जाता है तो यह असामान्य परिघटना प्रशांत महासागर में अंगड़ाई लेने लगती है, जिसके फलस्वरूप भारत के मानसून समेत दुनिया के अनेक हिस्सों का मौसम चक्र प्रभावित होकर वर्षा की सामान्य स्थितियों को बदल देता है। ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत और भूमध्य सागरीय क्षेत्र में बदले तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए इसी बदलाव की परिघटना अल-नीनो है। यह घटना दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित इक्वेडोर और पेरू देशों के तटीय समुद्री जल में अमूमन 4 से 12 साल में आती है। भारत में पिछली बार वर्ष 2009 में इसका प्रभाव देखा गया था, जब देश को 40 साल बाद भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा था। लेकिन भारत में ही 1880 से 2004 के बीच 13 बार अल-नीनो ने मानसून को प्रभावित किया, इसके बावजूद मानसून सामान्य रहा। लिहाजा भारतीय वायुमंडल में अल-नीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वैसे हम अल-नीनो या कम मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जल स्रोत, जल सरंचनाएं बहुत हैं। हमारे यहां बारिश भी कमोबेश ठीक होती है, किंतु हम पानी को भूगर्भ में उतारकर सहजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी पवित्र नदियों को प्रदूषित कर दिया है। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने व औद्योगिक इकाइंया लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अवशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रहा है। पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। राजनेता, उद्योगपति दलील दे रहें हैं कि पानी भी एक उत्पाद है, लिहाजा इस पर नियंत्रण के लिए नीति बनाई जाए। लेकिन पानी कोई कारखानों में नहीं बनता, जो इसे उत्पाद माना जाए। यह जीवनदायी जल उस आदमी की भी बुनियादी जरूरत है, जो इसे खरीद नहीं सकता। यह इंसान समेत सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन का भी आधार है। लिहाजा इसे उत्पाद मानकर इसका बाजरीकरण किए जाने की दलीलें व्यावसायिक छल के अलावा कुछ नहीं हैं। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके अल्पवृष्टि या अल-नीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
दरअसल बीते साल भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी के साथ वर्षा समयसीमा में ही होने की बात कही गई थी। परंतु यह अवधि गुजर जाने के बाद भी कई बार बरसात हुई। यहां तक कि अप्रैल-मई में खेतों में कटी फसल को भी बेमौसम बारिश की मार झेलनी पड़ी। नतीजतन रबी सीजन की पैदावार पर बुरा असर पड़ा। इस वजह से महाराष्ट्र में एक लाख हैक्टेयर से भी ज्यादा कृषि भूमि में चने की फसल चौपट हो गई। राजस्थान, हरियाणा व पंजाब में सरसों की पैदावर की जो उम्मीद थी, उस पर ओले पड़ गए। यूपी व बिहार में आलू को नुकसान हुआ। मध्य प्रदेश में ओलावृष्टि से 13 हजार करोड़ की गेहूं, चने की फसलें नष्ट हो गईं।
आज भी देश में 60 प्रतिशत अनाज का उत्पादन मौसमी बारिश की कृपा पर टिका है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का तकरीबन 17 फीसद योगदान है। जाहिर है, मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यस्था औंधे मुंह गिरेगी और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। खाद्य मुद्रास्फीति के हालात और बिगड़ सकते हैं। ऐसे में नई सरकार के लिए आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाना मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल उत्पाद के हर क्षेत्र में विफल होने के बावजूद पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार खराब आर्थिक हालात का मुकाबला इसलिए कर पाई, क्योंकि पिछले चार साल मानसून अच्छा बना रहा और कृषि सेक्टर 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा। लेकिन अब प्रशांत महासागर में उपजने वाले अल-नीनो प्रभाव के संकेत सूखे के डरावने हालात पैदा कर रहे हैं। यह प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी अल-नीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी हैं। कहा जा रहा है कि इस परिघटना के दुष्प्रभाव जुलाई से दिखने शुरू हो सकते हैं और मुमकिन है कि यह प्रभाव 2009 से भी ज्यादा शक्तिशाली हो।
अल-नीनो प्रशांत महासगर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है। पेरू के आसपास की समुद्री सतह का तापमान औसत से 0.5 डिग्री तक अधिक हो जाता है तो यह असामान्य परिघटना प्रशांत महासागर में अंगड़ाई लेने लगती है, जिसके फलस्वरूप भारत के मानसून समेत दुनिया के अनेक हिस्सों का मौसम चक्र प्रभावित होकर वर्षा की सामान्य स्थितियों को बदल देता है। ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत और भूमध्य सागरीय क्षेत्र में बदले तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए इसी बदलाव की परिघटना अल-नीनो है। यह घटना दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित इक्वेडोर और पेरू देशों के तटीय समुद्री जल में अमूमन 4 से 12 साल में आती है। भारत में पिछली बार वर्ष 2009 में इसका प्रभाव देखा गया था, जब देश को 40 साल बाद भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा था। लेकिन भारत में ही 1880 से 2004 के बीच 13 बार अल-नीनो ने मानसून को प्रभावित किया, इसके बावजूद मानसून सामान्य रहा। लिहाजा भारतीय वायुमंडल में अल-नीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वैसे हम अल-नीनो या कम मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जल स्रोत, जल सरंचनाएं बहुत हैं। हमारे यहां बारिश भी कमोबेश ठीक होती है, किंतु हम पानी को भूगर्भ में उतारकर सहजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी पवित्र नदियों को प्रदूषित कर दिया है। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने व औद्योगिक इकाइंया लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अवशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रहा है। पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। राजनेता, उद्योगपति दलील दे रहें हैं कि पानी भी एक उत्पाद है, लिहाजा इस पर नियंत्रण के लिए नीति बनाई जाए। लेकिन पानी कोई कारखानों में नहीं बनता, जो इसे उत्पाद माना जाए। यह जीवनदायी जल उस आदमी की भी बुनियादी जरूरत है, जो इसे खरीद नहीं सकता। यह इंसान समेत सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन का भी आधार है। लिहाजा इसे उत्पाद मानकर इसका बाजरीकरण किए जाने की दलीलें व्यावसायिक छल के अलावा कुछ नहीं हैं। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके अल्पवृष्टि या अल-नीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
बरसात
से पूर्व मौसम विभाग द्वारा मानसून की भविष्यवाणियों में फेरबदल चिंता का
सबब बन रहा है। मई की शुरुआत में सामान्य से पांच फीसद कम बारिश की
भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन 9 जून को औसत से सात प्रतिशत कम वर्षा का
अंदेशा जताया गया। यानी आज भी हमारा मौसम विभाग सटीक भविष्यवाणी करने की
स्थिति में नहीं है। इस पर चिंतित होना इसलिए लाजिमी है, क्योंकि पिछले कुछ
सालों में मौसम विभाग के आधुनिकीकरण व तकनीकी क्षमता बढ़ाने पर करोड़ों रुपए
खर्च किए गए हैं। अब जिन 16 मानक सूचनाओं व संकेतों के अध्ययन के आधार पर
भविष्यवाणी की जा रही है, वह विश्वस्तरीय वैज्ञानिक प्रणाली है। इसके
बावजूद सटीक भविष्यवाणी न होना चिंता की वजह तो बनती ही है।
दरअसल बीते साल भी सामान्य मानसून की भविष्यवाणी के साथ वर्षा समयसीमा में ही होने की बात कही गई थी। परंतु यह अवधि गुजर जाने के बाद भी कई बार बरसात हुई। यहां तक कि अप्रैल-मई में खेतों में कटी फसल को भी बेमौसम बारिश की मार झेलनी पड़ी। नतीजतन रबी सीजन की पैदावार पर बुरा असर पड़ा। इस वजह से महाराष्ट्र में एक लाख हैक्टेयर से भी ज्यादा कृषि भूमि में चने की फसल चौपट हो गई। राजस्थान, हरियाणा व पंजाब में सरसों की पैदावर की जो उम्मीद थी, उस पर ओले पड़ गए। यूपी व बिहार में आलू को नुकसान हुआ। मध्य प्रदेश में ओलावृष्टि से 13 हजार करोड़ की गेहूं, चने की फसलें नष्ट हो गईं।
आज भी देश में 60 प्रतिशत अनाज का उत्पादन मौसमी बारिश की कृपा पर टिका है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का तकरीबन 17 फीसद योगदान है। जाहिर है, मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यस्था औंधे मुंह गिरेगी और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। खाद्य मुद्रास्फीति के हालात और बिगड़ सकते हैं। ऐसे में नई सरकार के लिए आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाना मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल उत्पाद के हर क्षेत्र में विफल होने के बावजूद पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार खराब आर्थिक हालात का मुकाबला इसलिए कर पाई, क्योंकि पिछले चार साल मानसून अच्छा बना रहा और कृषि सेक्टर 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा। लेकिन अब प्रशांत महासागर में उपजने वाले अल-नीनो प्रभाव के संकेत सूखे के डरावने हालात पैदा कर रहे हैं। यह प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी अल-नीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी हैं। कहा जा रहा है कि इस परिघटना के दुष्प्रभाव जुलाई से दिखने शुरू हो सकते हैं और मुमकिन है कि यह प्रभाव 2009 से भी ज्यादा शक्तिशाली हो।
अल-नीनो प्रशांत महासगर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है। पेरू के आसपास की समुद्री सतह का तापमान औसत से 0.5 डिग्री तक अधिक हो जाता है तो यह असामान्य परिघटना प्रशांत महासागर में अंगड़ाई लेने लगती है, जिसके फलस्वरूप भारत के मानसून समेत दुनिया के अनेक हिस्सों का मौसम चक्र प्रभावित होकर वर्षा की सामान्य स्थितियों को बदल देता है। ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत और भूमध्य सागरीय क्षेत्र में बदले तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए इसी बदलाव की परिघटना अल-नीनो है। यह घटना दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित इक्वेडोर और पेरू देशों के तटीय समुद्री जल में अमूमन 4 से 12 साल में आती है। भारत में पिछली बार वर्ष 2009 में इसका प्रभाव देखा गया था, जब देश को 40 साल बाद भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा था। लेकिन भारत में ही 1880 से 2004 के बीच 13 बार अल-नीनो ने मानसून को प्रभावित किया, इसके बावजूद मानसून सामान्य रहा। लिहाजा भारतीय वायुमंडल में अल-नीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वैसे हम अल-नीनो या कम मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जल स्रोत, जल सरंचनाएं बहुत हैं। हमारे यहां बारिश भी कमोबेश ठीक होती है, किंतु हम पानी को भूगर्भ में उतारकर सहजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी पवित्र नदियों को प्रदूषित कर दिया है। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने व औद्योगिक इकाइंया लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अवशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रहा है। पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। राजनेता, उद्योगपति दलील दे रहें हैं कि पानी भी एक उत्पाद है, लिहाजा इस पर नियंत्रण के लिए नीति बनाई जाए। लेकिन पानी कोई कारखानों में नहीं बनता, जो इसे उत्पाद माना जाए। यह जीवनदायी जल उस आदमी की भी बुनियादी जरूरत है, जो इसे खरीद नहीं सकता। यह इंसान समेत सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन का भी आधार है। लिहाजा इसे उत्पाद मानकर इसका बाजरीकरण किए जाने की दलीलें व्यावसायिक छल के अलावा कुछ नहीं हैं। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके अल्पवृष्टि या अल-नीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है।
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आज भी देश में 60 प्रतिशत अनाज का उत्पादन मौसमी बारिश की कृपा पर टिका है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का तकरीबन 17 फीसद योगदान है। जाहिर है, मानसून मुनासिब नहीं रहा तो अर्थव्यस्था औंधे मुंह गिरेगी और खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। खाद्य मुद्रास्फीति के हालात और बिगड़ सकते हैं। ऐसे में नई सरकार के लिए आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाना मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल उत्पाद के हर क्षेत्र में विफल होने के बावजूद पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार खराब आर्थिक हालात का मुकाबला इसलिए कर पाई, क्योंकि पिछले चार साल मानसून अच्छा बना रहा और कृषि सेक्टर 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा। लेकिन अब प्रशांत महासागर में उपजने वाले अल-नीनो प्रभाव के संकेत सूखे के डरावने हालात पैदा कर रहे हैं। यह प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है। मौसम की जानकारी देने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी अल-नीनो खतरे की चेतावनी दे चुकी हैं। कहा जा रहा है कि इस परिघटना के दुष्प्रभाव जुलाई से दिखने शुरू हो सकते हैं और मुमकिन है कि यह प्रभाव 2009 से भी ज्यादा शक्तिशाली हो।
अल-नीनो प्रशांत महासगर में करवट लेने वाली एक प्राकृतिक घटना है। पेरू के आसपास की समुद्री सतह का तापमान औसत से 0.5 डिग्री तक अधिक हो जाता है तो यह असामान्य परिघटना प्रशांत महासागर में अंगड़ाई लेने लगती है, जिसके फलस्वरूप भारत के मानसून समेत दुनिया के अनेक हिस्सों का मौसम चक्र प्रभावित होकर वर्षा की सामान्य स्थितियों को बदल देता है। ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत और भूमध्य सागरीय क्षेत्र में बदले तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आए इसी बदलाव की परिघटना अल-नीनो है। यह घटना दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित इक्वेडोर और पेरू देशों के तटीय समुद्री जल में अमूमन 4 से 12 साल में आती है। भारत में पिछली बार वर्ष 2009 में इसका प्रभाव देखा गया था, जब देश को 40 साल बाद भयंकर सूखे का सामना करना पड़ा था। लेकिन भारत में ही 1880 से 2004 के बीच 13 बार अल-नीनो ने मानसून को प्रभावित किया, इसके बावजूद मानसून सामान्य रहा। लिहाजा भारतीय वायुमंडल में अल-नीनो के संकेत असरकारी होंगे या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वैसे हम अल-नीनो या कम मानसून की किसी भी विपदा से निपट सकते हैं, क्योंकि अभी भी हमारे यहां जल स्रोत, जल सरंचनाएं बहुत हैं। हमारे यहां बारिश भी कमोबेश ठीक होती है, किंतु हम पानी को भूगर्भ में उतारकर सहजने में नाकाम हैं। हमने गंगा-यमुना समेत देश की सभी पवित्र नदियों को प्रदूषित कर दिया है। नदियों के किनारों, झीलों और तालाबों को पाटकर आवासीय बस्तियां बनाने व औद्योगिक इकाइंया लगाने का सिलसिला जारी है। इनका रासायनिक अवशिष्ट भी नदियों को प्रदूषित कर रहा है। पानी के बाजारीकरण को बढ़ावा देने के कारण आम आदमी को स्वच्छ पेयजल से महफूज किया जा रहा है। राजनेता, उद्योगपति दलील दे रहें हैं कि पानी भी एक उत्पाद है, लिहाजा इस पर नियंत्रण के लिए नीति बनाई जाए। लेकिन पानी कोई कारखानों में नहीं बनता, जो इसे उत्पाद माना जाए। यह जीवनदायी जल उस आदमी की भी बुनियादी जरूरत है, जो इसे खरीद नहीं सकता। यह इंसान समेत सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन का भी आधार है। लिहाजा इसे उत्पाद मानकर इसका बाजरीकरण किए जाने की दलीलें व्यावसायिक छल के अलावा कुछ नहीं हैं। यह ठीक है कि मौसम पर हमारा वश नहीं है, लेकिन जो पानी बारिश के रूप में धरती पर आ रहा है, उसका संचय करके अल्पवृष्टि या अल-नीनो जैसे खतरों से तो बचा ही जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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