बुधवार, 31 मार्च 2021

मैं एक पीढ़ी पहले का किसान हूं...

 मैं एक पीढ़ी पहले का किसान हूं... 


मैं आज भी थाली में खाना नहीं छोड़ता। इस बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि मैं उतना ही लेता हूं, जितना खाया जा सके। खाने की बर्बादी मेरे लिए किसी अभिशाप से कम नहीं। मुझे याद है कि जब कभी हम थाली में खाना छोड़ने की फिराक में रहते थे तो हमें यही कहा जाता था कि अन्न बहुत मुश्किल से पैदा होता है। हमें किसानों की मेहनत की याद दिलाई जाती थी। 

गेंहू का एक-एक दाना पैदा करने के लिए किसी किसान ने अपना खून-पसीना एक किया होगा। चावल की एक-एक बाली किसी किसान की जी-तोड़ मेहनत का नतीजा है। बचपन में हमें यह बात इतनी बार कही गई कि हम खाने की बर्बादी के बारे में सोच भी नहीं सकते। 

मैं एक पीढ़ी पहले का किसान हूं। आज पचास साल पहले हमारी जमीनें सरकार ने अधिग्रहीत कर लीं। खेती से नाता टूट गया। लेकिन, आज भी हमें अपने उन खेतों और कुओं की याद है। हमारे खेतों में कॉलोनियां उगी हुई हैं। पर मेरी मां को याद है कि कहां पर हमारे कुएं थे। कहां पर हमारे खेत थे और कहां पर हमारे बाग थे। वे हमारी सामूहिक स्मृतियों में आज भी जिंदा हैं। मैंने अपने नाना और मामा को भी खेतों में काम करते देखा है। पर उनकी भी जमीनें सरकार अधिग्रहीत कर चुकी है। आज उनके खेतों में भी कॉलोनियां उगी हुई हैं। लेकिन, मेरी स्मृति में आज भी फालसे के वो खेत जिंदा हैं, जिन्हें मिट्टी-गारे की दीवार बनाकर घेर दिया जाता था। मैं जहां महुए के बड़े-बड़े पेड़ों को देखता हूं, रेतीले और ऊंचाई-नीचाई वाली जगहों को देखता हूं, आज वहां पर कतारों से फ्लैट खड़े हैं। आज हमारे पास जमीनें नहीं हैं। हम खेती नहीं करते। लेकिन, खेती-किसानी के संस्कार हमारे अंदर मौजूद हैं। 

गेंहू के एक-एक दाने में इंसान का सदियों का संचित श्रम और ज्ञान मौजूद है। ये सब-कुछ इंसानियत को इतनी आसानी से हासिल नहीं हुआ है। गेंहू-चावल हो या तमाम अन्य खाद्य पदार्थ, इंसान ने सदियों के नेचुरल सलेक्शन से इन्हें यह रूप दिया है। सबसे बड़े आकार की लौकी और कद्दू को उसने खाया नहीं बल्कि बीज के लिए बचाकर रख लिया। कई सदियों की इस इंसानी हिकमत का परिणाम है कि आज दुनिया में इतना पैदा होता है कि हर किसी का पेट भरा जा सके। 

यह अलग बात है कि बाजार हर किसी से पेट भरने का हक छीन लेता है। वह उसे सबसे कम देता है जो पैदा करने में, उत्पादन करने में सबसे ज्यादा योगदान करते हैं। वह मेहनत पर डाका मारता है। 

इस डकैती के खिलाफ हजारों-लाखों किसान आज राजधानी की सीमाओं पर डटे हुए हैं। वे अपने घरों से दूर हैं। खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं।

किसान बहुत ज्यादा बर्दाश्त करता है। बहुत सहनशील होता है। वो मौसम की मार झेलता है। बाजार की मार झेलता है। अपनी फसलों से निराश भी होता है। लेकिन, फिर-फिर अपनी फसलों की ओर लौटता है। किसान आंदोलन ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की एक अनूठी मिसाल देश के सामने रखी है। 

पाश की युद्ध और शांति कविता की ये पंक्तियां इन दिनों बारहां याद आती हैं-----


वक्त बहुत देर

किसी बेकाबू घोड़े की तरह रहा है

जो हमें घसीटता हुआ जिंदगी से बहुत दूर ले गया है

और कुछ नहीं, बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा

बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा !!!

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