बुधवार, 31 मार्च 2021

एक हसीना नाम था मीना ( कुमारी )

 #कभी_किसी_को_मुक़म्मल_जहां_नहीं_मिलता


उनकी पूरी ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं बल्कि दर्द की एक ऐसी दास्तां थी। जो उनकी मौत पे ही मुक़म्मल हुई। इनकी मौत पे इनके बेहद क़रीब रही 'नरगिस दत्त' जी ने कहा था 'मौत मुबारक़ हो मीना'


अपनी दमदार अदायगी और बेपनाह ख़ूबसूरती से लोगों को अपना दीवाना बना देने वाली वो अदाकारा मीना कुमारी जिन्हें हम सब ट्रेजडी क्वीन के रूप में जानते हैं। इनका जन्म १ अगस्त १९३३ को मुंबई में हुआ था। शोहरत की बुलंदियां छूने वाली ये अदाकारा मुफ़लिसी के ऐसे दौर से गुजरी, जब अस्पताल में इलाज़ के लिए पैसे भी न थे। उनकी मौत के बाद अस्पताल का बिल मीना जी के एक प्रसंशक डॉक्टर ने चुकाया था।


मीना शायद पहली अदाकारा होंगी, जिन्हें शोहरत , दौलत और अपने प्रशंसकों का भरपूर प्यार मिला। पर अपनी निजी जिंदगी में मरते दम तक सच्चे प्यार को तरसती रहीं। जिसपे भी यक़ीन किया उसी से उन्हें धोखा मिला या अपनी क़ामयाबी का ज़रिया बनाया। निजी ज़िंदगी में मिले धोखों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया और उन्होंने अपने को शराब में डुबो दिया।


'मीना कुमारी' का असली नाम 'महजबीं बानो' था। उनके पिता अली बक्श पारसी रंगमंच के एक मँझे हुए कलाकार थे और उन्होंने फ़िल्म "शाही लुटेरे" में संगीत भी दिया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो), भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद और छोटी बहन मधु (बेबी माधुरी) भी फिल्म अभिनेत्री थीं। कहा जाता है कि दरिद्रता से ग्रस्त उनके पिता अली बक़्श उन्हें पैदा होते ही अनाथाश्रम में छोड़ आए थे। हालांकि अपने नवजात शिशु से दूर जाते-जाते पिता का दिल भर आया और तुरंत अनाथाश्रम की ओर चल पड़े।पास पहुंचे तो देखा कि नन्ही मीना के पूरे शरीर पर चीटियाँ काट रहीं थीं।अनाथाश्रम का दरवाज़ा बंद था, शायद अंदर सब सो गए थे।यह सब देख उस लाचार पिता की हिम्मत टूट गई,आँखों से आँसु बह निकले।झट से अपनी नन्हीं-सी जान को साफ़ किया और अपने दिल से लगा लिया।अली बक़्श अपनी चंद दिनों की बेटी को घर ले आए।समय के साथ-साथ शरीर के वो घाव तो ठीक हो गए किंतु मन में लगे बदकिस्मती के घावों ने अंतिम सांस तक मीना का साथ नहीं छोड़ा।


मीना कुमारी की नानी हेमसुन्दरी मुखर्जी पारसी रंगमंच से जुड़ी हुईं थी। बंगाल के प्रतिष्ठित टैगोर परिवार के पुत्र जदुनंदन टैगोर ने परिवार की इच्छा के विरूद्ध हेमसुन्दरी से विवाह कर लिया। १८६२ में दुर्भाग्य से जदुनंदन का देहांत होने के बाद हेमसुन्दरी को बंगाल छोड़कर मेरठ आना पड़ा। यहां अस्पताल में नर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने एक उर्दू के पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी (जो की ईसाई थे) से शादी करके ईसाई धर्म अपना लिया। हेमसुन्दरी की दो पुत्री हुईं जिनमें से एक प्रभावती, मीना कुमारी की माँ थीं।


घर के आर्थिक हालात के कारण इन्हें बतौर बाल कलाकार ही शुरआत करनी पड़ी। 'महजबीं बानो' पहली बार १९३९ में फिल्म निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म "लैदरफेस" में 'बेबी महज़बीं' के रूप में नज़र आईं। १९४० की फिल्म "एक ही भूल" में विजय भट्ट ने इनका नाम बेबी महजबीं से बदल कर 'बेबी मीना' कर दिया। १९४६ में आई फिल्म 'बच्चों का खेल' से बेबी मीना १३ वर्ष की आयु में 'मीना कुमारी' बनीं। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं जिनमें हनुमान पाताल विजय, वीर घटोत्कच व श्री गणेश महिमा प्रमुख हैं।


वैसे तो फिल्मों में निभाये उनके सभी क़िरदार यादगार हैं। पर कुछ फ़िल्में जैसे 'पाकीज़ा' और 'साहिब, बीबी और गुलाम' की छोटी बहू ने उन्हें अमर कर दिया। वर्ष १९६२ में तो मीना को 'साहब बीबी और गुलाम', 'मैं चुप रहूंगी' और 'आरती' फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तीन नामांकन एक साथ मिले।


फ़िल्म 'बैजू बावरा' के बाद मीना को कमाल अमरोही में अपना भविष्य दिखा और वे दोनों नज़दीक आ गए। बाद में निकाह भी कर लिया। लेकिन वे कमाल की दूसरी पत्नी ही रहीं। उनके निकाह के एकमात्र गवाह थे जीनत अमान के पिता अमान। दोनों की शादीशुदा ज़िंदगी दस सालों तक ही चली।


वर्ष १९६६ में आई फिल्म 'फूल और पत्थर' के नायक धर्मेन्द्र से मीना की नजदीकियां बढ़ने लगीं। जहां मीना स्थापित कलाकार थीं, वहीं धर्मेंद्र ख़ुद को स्थापित करने की कवायद कर रहे थे। ऐसे में मीना का मजबूत दामन झट से थाम लिया। दोनों के अफेयर की खबरें सुर्खियां बनने लगीं। इसका असर मीना और कमाल के रिश्ते पर भी पड़ा। कहते हैं जब दिल्ली में वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन से एक कार्यक्रम में मीना कुमारी मिलीं तो राष्ट्रपति ने पहला सवाल यही पूछा कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड धर्मेन्द्र कैसा है? इसी तरह फिल्मकार महबूब खान ने महाराष्ट्र के गर्वनर से कमाल अमरोही का परिचय यह कहकर दिया कि ये प्रसिद्ध स्टार मीना कुमारी के पति हैं। कमाल अमरोही यह सुन आग बबूला हो गए थे।


धर्मेन्द्र और मीना के चर्चे भी उन तक पहुंच गए थे। उन्होंने पहला बदला धर्मेन्द्र से यह लिया कि उन्हें 'पाकीजा' से आउट कर दिया और उनके स्थान पर राजकुमार की एंट्री हो गई। कहा तो यहां तक जाता है कि अपनी फ़िल्म 'रजिया सुल्तान' में उन्होंने धर्मेन्द्र को रजिया के हब्शी गुलाम प्रेमी का रोल देकर एक तरह से जलील करने का ही काम किया था।


मीना की बढ़ती शोहरत , धर्मेंद्र से नजदीकियां और क़माल का शक़्क़ी स्वभाव की वजह से मीना और क़माल में अलगाव हो गया था।


'पाकीजा' को बनने में १७ साल लगे, वजह था कमाल और मीना का अलगाव। लेकिन मीना जानती थी कि फ़िल्म 'पाकीजा' कमाल अमरोही का कीमती सपना है। इसलिए उन्होंने इसकी शूटिंग बीमारी के दौरान भी की। इस दौरान वे पूरी तरह बदल गई थीं। वे गुरुदत्त की 'साहिब, बीवी और गुलाम' की 'छोटी बहू' परदे से उतरकर मीना की असली जिंदगी में समा गई थी। वे छोटी-छोटी बोतलों में देसी-विदेशी शराब भरकर पर्स में रखने लगीं।


मशहूर बॉलीवुड अभिनेता अशोक कुमार, मीना कुमारी के साथ कई फ़िल्में कर चुके थे। मीना का इस तरह खुदकुशी करने की बात उन्हें रास नहीं आ रही थी। वे होम्योपैथी के अच्छे जानकार थे। वह मीना के इलाज के लिए आगे आए, लेकिन जब मीना का यह जवाब सुना 'दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं। इसलिए कुछ शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो' तो वे भी सहम गए।


वर्ष १९५६ में मुहूर्त से शुरू हुई 'पाकीजा' आखिरकार ४ फरवरी १९७२ को रिलीज हुई। 'पाकीजा' सुपरहिट रही और हिंदी सिनेमा में कमाल अमरोही का नाम हमेशा के लिए दर्ज हो गया, लेकिन 'पाकीजा' के रिलीज के कुछ ही दिनों बाद ३१ मार्च १९७२ को मीना कुमारी चल बसीं।


उनकी फ़िल्में रहीं १९३९ लैदरफ़ेस , अधुरी कहानी १९४० पूजा, एक ही भूल १९४१ नई रोशनी, बहन , कसौटी १९४२ गरीब , विजय १९४३ प्रतिज्ञा १९४४ लाल हवेली १९४६ बच्चों का खेल , दुनिया एक सराय १९४८ पिया घर आजा, बिछड़े बालम १९४९ वीर घटोत्कच १९५० श्री गणेश महिमा, मगरूर , हमारा घर १९५१ सनम , मदहोश , लक्ष्मी नारायण , हनुमान पाताल विजय १९५२ अलादीन और जादुई चिराग , तमाशा, बैजू बावरा १९५३ परिणीता, फुटपाथ , दो बीघा ज़मीन , दाना पानी, दायरा, नौलखा हार १९५४ इल्ज़ाम , चाँदनी चौक , बादबाँ  १९५५ रुखसाना, बंदिश , आज़ाद १९५६ नया अंदाज़, मेम साहिब , हलाकू, एक ही रास्ता, बंधन १९५७ शारदा, मिस मैरी १९५८ यहूदी, सवेरा, सहारा, फरिश्ता १९५९ सट्टा बाज़ार , शरारत , मधु, जागीर , चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, चाँद , चार दिल चार राहें, अर्द्धांगिनी १९६० दिल अपना और प्रीत पराई , बहाना, कोहिनूर १९६१ ज़िंदगी और ख्वाब , भाभी की चूड़ियाँ, प्यार का सागर १९६२ साहिब बीबी और ग़ुलाम , मैं चुप रहूंगी, आरती १९६३ किनारे किनारे, दिल एक मन्दिर , अकेली मत जाइयो

१९६४ सांझ और सवेरा, गज़ल , चित्रलेखा, बेनज़ीर , मैं भी लड़की हूँ 

१९६५ भीगी रात , पूर्णिमा, काजल 

१९६६ पिंजरे के पंछी, फूल और पत्थर 

१९६७ मझली दीदी, नूरजहाँ, चन्दन का पालना, बहू बेगम 

१९६८ बहारों की मंज़िल , अभिलाषा

१९७० जवाब, सात फेरे 

१९७१ मेरे अपने, दुश्मन

१९७२ गोमती के किनारे (आखरी फ़िल्म) पाकीज़ा ( रिलीज़)


मीना कुमारी न सिर्फ़ अच्छी अदाकारा थीं, बल्कि वे बेहतरीन शायरा और गायिका भी थीं। उन्होंने बतौर बाल कलाकार फ़िल्म बहन में गाना गाया। इसके बाद दुनिया एक सराय (१९४६), पिया घर आजा और बिछड़े बलम (१९४८), पिंजरे के पंछी (१९६६) में गाने गाए। वो पाकीज़ा में भी सह-गायिका थी। फ़िल्म के लिए १६ गाने बनाये गए थे। पर फ़िल्म में सिर्फ ६ गाने रखे गए। बाद में १९७७ में बाकी ९ गानों का एक अल्बम "पाकीज़ा-रंग बा रंग" के नाम से रिलीज किया गया।


गुलजार को अपने बहुत क़रीब मानती थीं। इसलिए गुज़र जाने पर मीना कुमारी की शायरी की किताब जो उन्हें सबसे प्यारी थी, उसे छपवाने का जिम्मा उन्होंने अपनी वसीयत में गुलज़ार के नाम छोड़ा था।


३१ मार्च १९७२ गुड फ्राइडे वाले दिन दोपहर ३ बजकर २५ मिनट पर महज़ ३८ वर्ष की आयु में मीना कुमारी ने अंतिम सांस ली। उन्हें बम्बई के मज़गांव स्थित रहमताबाद कब्रिस्तान में दफनाया गया। मीना कुमारी अपनी लिखी इन पंक्तियों को अपनी कब्र पर लिखवाना चाहती थीं ~


"वो अपनी ज़िन्दगी को

एक अधूरे साज़,

एक अधूरे गीत,

एक टूटे दिल,

परंतु बिना किसी अफसोस के साथ 

समाप्त कर गई"

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