रविवार, 27 अगस्त 2023

पुरुष का प्रेम...



प्रस्तुति -/देवेंद्र किशोर




पुरुष का प्रेम समन्दर सा होता है

ग़हरा, अथाह..

पर वेगपूर्ण लहर के समान उतावला !

हर बार तट तक आता है, 

स्त्री को खींचने,

जो स्त्री शान्त है मन्थन करती है, 

पहले ख़ुद को बचाती है 

इस प्रेम के वेग से.. 

झट से साथ में नहीं बहती !

पर जब देखती है लहर को, 

उसी वेग से बार बार आते 

तो समर्पित हो जाती है समन्दर में 

गहरायी तक...

डूबने का भी ख़्याल नहीं करती, 

साथ में बहने लगती है !

पर,

समन्दर अब शान्त है, 

उछाल कम है, 

क्योंकि स्त्री उसके पास है !

पर स्त्री मचल उठती है 

इतना प्रेम देख प्रतिदान के लिए.... 

वो उड़ कर बादल बन जाती है, 

अपना प्रेम दिखाने को तत्पर हो 

वो बरसने लगती है, 

पहले हल्की हल्की, 

समन्दर को अच्छा लगता है

वो भी बहने लगता है, 

कभी कभी वेग से उछलता है प्रेम पा कर, 

फ़िर शान्त हो जाता है !

पर स्त्री बरसती रहती है लगातार 

झूम कर निरन्तर...

मगर अब पुरुष से 

इतना प्रेम समेटना मुश्किल होने लगता है..

अन्दर अथाह प्रेम होने पर भी 

समन्दर को ऊपर से शान्त रहना है 

क्यूँकि उसे सब देखना है, 

आते जाते जहाज, 

उगता डूबता सूरज, 

तट पर लोग !

मगर स्त्री प्रेम के उन्माद में बरस रही है, 

अन्दर तक घुलने को व्याकुल..

लेकिन जब अन्दर उमड़ते घुमड़ते ख़्यालों के कारण 

सुनामी आने के डर से, 

समन्दर से सम्भलता नहीं, 

तो वो रुकने कहता...

किसी और देश जाने कहता !

पर प्रेम में समर्पित स्त्री को रोकना असम्भव है...

जब देखती है कि 

समन्दर अब नहीं चाहता...

तो वो दर्द के आवेग में बरसती है 

पास बुलाने को, 

स्त्री के आँसू ख़तरनाक होते हैं, 

बाढ़ आने लगती, 

पुल टूटने लगते, 

पानी घरों में जाने लगता, 

सब तहस नहस होने लगता !

फिर धीरे धीरे बादल ख़त्म होने लगते हैं,.

आँसू सूख जाते हैं, 

सूखा, अकाल आ जाता है, 

और अब स्त्री पत्थर हो जाती है !

पर यही पत्थर रूपी स्त्री 

अभी भी किनारे खड़ी है...

क्योंकि उसका स्वभाव है समर्पण,

एक लहर के इन्तज़ार में

समर्पित होने के लिए अन्दर तक...

❤️❤️


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