अम्मा का पूरा जीवन संघर्ष करते ही बीत गया। आयु इतनी कम मिलि थी कि जब वह जीवन को थेड़ी सहजता के साथ बीता सकती थी तो मौत ने आगोश में ले लिया । गोद के छोटे बेटे को छोड़कर बेहद व्याकुल और कातर नजरों से चतुर्दिक हेरती चली गई ।
बचपन की एक घटना मुझे अब भी काफी परेशान करती है ।
स्वाधीनता सेनानी होने के कारण पापा की शिक्षा-दीक्षा विधिवत नहीं हुई थी। इसलिए सरकारी या गैर-सरकारी नौकरी मिल नहीं सकती थे । स्वाधीनता सेनानी के पेंशन के लिए उन्होंने कभी आवेदन नहीं दिया । उनके सभी साथी कहते रहे ‘दरखास दे द सब कोई देता’ लेकिन उनका एक ही जवाब होता ‘'आजादी की लड़ाई में हम पैसा लागी भाग ना लेले रहीं।‘
संयुक्त परिवार था इसलिए कोई समस्या नहीं हो रही थी । हमारे एक चाचा जिन्हें हम बड़का पापा कहते थे पुलिस सेवा में दरोगा थे । हम उन्हीं के साथ रहते थे । हर दो-तीन साल में उनका तबादला हो जाता था। जब गया से उनका तबादला हुआ तो हम स्कूल जाने लगे थे । बार-बार जगह बदलने से हमारी पढ़ाई पर अन्यथा असर न पड़े इसलिए अम्मा-पापा ने तय किया कि अब गया में ही रह जाया जाए । अपने मुकदमों की पैरवी करते रहने के कारण पापा कचहरी की गतिविधियों से अवगत थे और हिन्दी टाइपिंग आती थी । बड़का पापा ने रेमिंग्टन की एक हिन्दी टाइप मशीन खरीद दी । यही टाइप मशीन हमारी आजीविका का साधन बना । साइकिल पहले से पापा के पास थी उसी के कैरियर पर टाइप मशीन को बांध कर पापा रोज कचहरी जाने लगे । 1962-63 के आसपास शुरू हुआ यह सिलसिला लगभग 38 वर्षों तक चला ।
अम्मा मुंह अंधेरे लगभग चार-साढ़े चार बजे उठ जाती । उठते ही वह चौका (किचन) में जाकर चुल्हा जला देती। वह प्राय: चुल्हा सुबह ही बोझती भी थी। कभी-कभी सुबह का समय बचाने के लिए रात में ही चुल्हा बीझ देती थी । क्योंकि ज्यादा समय इसी में लगता था । लेकिन दोनों के जलाने की प्रक्रिया अलग-अलग होती । बिना बोझे चुल्ह को सुलगाने के लिए पहले गोइठे (गाय के गोबर स बने कंड़े) को तोड़-तोड़ कर चुल्हे की जाली पर सजाना होता था फिर उस पर घी/ कपूर/ केरोसीन तेल डाल कर जला दिया जाता था, उन्हीं जलते हुए गोइठे के उपर सूखी लकडि़यों के छोटे-छोटे टुकड़े इस तरह सजाए जाते कि गोइठे पर जल रही आग बुझे नहीं । फिर लकडि़यों के उपर कोयले के टुकड़े सजा दिए जाते हैं जबकि रात के बोझे हुए चुल्हे को सुलगाने के लिए केवल नीचे से गोइठा या लकडि़यां जला कर रख देनी होती है। तब घरों में चुल्हा पकी ईंटो को कच्ची मिट्टी से जोड़कर और ऊपर से भी मिट्टी लेपकर बनाया जाता था। ईंट न हाने की स्थिति में केवल मिट्टी का चुल्हा भी बनाया जाता था। उसके बगल में सटा हुआ ओठगन बनाया जाता था उसपर पके हुए खाने को रखा जाता था । वह चावल से मांड पसाने (निकालने) के काम भी आता था।
हर बार खाना बनाने के बाद चुल्हे और उठवना को मिट्टी के घोल से लीपा जाता था । अगर चौके की फर्श मिट्टी की हो तो उसे भी मिट्टी और गाय के गोबर से लीपा जाता था । फर्श पक्का हो तो सादे पानी से धो दिया जाता था।
चुल्हा पूरा खाना बन जाने के बाद ही बुझाया जाता था। बीच में चुल्हा बुझाना बहुत अशुभ समझा जाता था और ऐसा तभी किया जाता था जब घर में किसी की मौत खाना बनने के दौरान हो जाए । अच्छा यह होता था कि चुल्हें में थोड़ी सी आग बचा ली जाए उससे कई फायदे होते थे । असमय किसी के आ जाने पर चुल्हा सुलगाने में अपेक्षाकृत कम समय लगता था।प्राय: चुल्हे पर ही दूध का पतीला रख दिया जाता था जिससे दूध रात भर हल्का गर्म रहता था और जिन घरों में छोटे बच्चे होते थे रात के वक्त जब उन्हें दूध देने की जरूरत होती तो तत्काल पीने लायक हल्का गर्म दूध दे दिया जाता था। हालांकि छोटे बच्चों वालों घरों में दूघ गर्म रखने के लिए और भी कई तरह के उपाय किए जाते थे । छोटे भाई-बहन को रात में दूध देने के लिए अम्मा कमरे में रखी बोरसी, जो प्राय: जाड़े के दिनों में शाम को जलाई जाती थी कमरे को गर्म रखने के लिए रात में वहीं किसी कोने में रख दी जाती थी । दूध का बर्तन अम्मा उसी पर रख देती थी ताकि हाड़ कंपाती ठंढ़ में कमरे से निकल और खुले आंगन को पार कर चौके तक न जाना पड़े। यह बोरसी हमें भी बहुत प्रिय थी । अमूमन इसमें कुन्नी (लकड़ी का बुरादा), जो प्राय: बढ़ही की दुकानों पर मिल जाया करता था, उसकी आग में हम छोटे-छोटे आलू दबा दिया करते थे । धीमी आंच में वह आलू अच्छे से पक जाया करता था । सुबह हम उसकी राख में अपने-अपने आलुओं को खोजा करते थे । यह हमारे लिए सुबह-सुबह का खेल भी होता था किसके कितने आलू पके मिले । कुछ जल भी जाते थे ।
चुल्हा सुलगने और ताव (वह स्थिति जब उस पर कुछ पकाया जा सके) आने में लगभग आधे-पौने घंटे का वक्त लगता था। कभी-कभी रात के अंधेरे में कच्चे कोयले की पहचान ठीक से नहीं हो पाती थी तो समय समय कुछ ज्यादा लगता था क्योंकि कच्चे कोयले से धुआं काफी देर तक निकलता था और खाना खराब हो जाने का डर रहता था। मुहल्ले में कोयले की दो दुकाने थीं, दुकानदार पहचानते थे, अमूमन छांटकर अच्छा पका हुआ कोयला दे जाते थे - चार रूपये का एक मन (40 किलो) । जब हमारे स्कूलों के खर्च बढ़ गये तो घर-खर्च का संतुलन बनाये रखने के लिए अम्मा ने कोयले का चूरा मंगवाना शुरू कर दिया उसमें मिट्टी, मांड डालकर, बड़े लड्डू के आकार का गोला बनाकर छत पर सुखा लिया जाता और उसी पर खाना बनता । तब इसे गुल कहा जाता था। यह बना-बनाया भी मिलता था लेकिन उसकी आंच जल्द ही धीमी पड़ जाती थी इसलिए कोशिश की जाती की बाहर का बना हुआ न खरीदना पड़े।
सुबह-शाम खाना जल्दी बन जाता इसलिए हम खा भी जल्दी लेते । मेरी यह आदत आज भी बनी हुई है । सुबह और शाम साढ़े आठ बजे तक मुझे भूख लग जाती है। उसी समय खाना खा लेना चाहता हूं। इसके आधे घंटे के बाद अगर मैं खाना न भी खाउं तो कोई फर्क नहीं पड़ता । ऐसा मैंने दो बार छठ करने के दौरान अनुभव किया है। बस इसी समय मुझे भूख का अहसास हुआ उसके बाद नहीं । छठ के अंतिम दिन घाट से लौटते-लौटते कई व्रती भूख-प्यास से बेहाल रहते हैं लेकिन मुझे घाट से लौटने के बाद भी कोई अहसास नहीं हुआ जबकि मैं रातभर अकेले ठेकुआ बनाता और चुल्हे के पास बैठकर छानता भी रहा था।
गांव की संपत्ति हम छोड़ चुके थे । क्योंकि परिवार में बंटवारा न तो अम्मा-पापा को और न हम लोगों को पसंद है। अगर कोई पैतृक स्थान पर रहता है तो इससे अच्छी बात क्या होगी कि पुरखों की डेहरी पर रोज दीपक चल रहा है। और, जो वहां रह रहा है उसे ही उसका ही वहां की संपत्ति पर हक हो तो परिवार में एकता बनी रहती है। खैर, नियमित रूप से न गांव से कुछ आता था, न कोई जमा-पूंजी थी, पापा शाम को जो लेकर आते उसी से हमारा काम चलता। आर्थिक कठिनाइयां थी लेकिन हमारा काम चल जाता था। मैंने बिना किसी के बताए जीवन के सबसे कठिन क्षणों में भी अपने मनोबल और आत्म-सम्मान को बचाए रखना सीखा । एक बार की याद मुझे है घर में केवल चार आने थे। अब चार आने में पूरे परिवार के लिए क्या हो सकता था – अम्मा ने बाजार भे मुढ़ी (चावल का भूंजा) मंगवाया घर में भींगे चने थे उसकी घुधनी बनी और हम मूढ़ी-घुधनी खाकर सो गए। चार आने से की क्या कीमत हो सकती है इसे हमने एक बार और महसूस किया जब अम्मा बीमार पड़ी। कांख में बिना मुंह का एक बड़ा-सा घाव हो गया था । काफी दर्द करता था। करीब एक किलोमीटर की दूरी पर चांदसी दवाखाना था। छोटे-मोटे घाव हम लोग उसी से दिखा लेते थे । डिग्री उनके पास शायद कोई नहीं थी लेकिन अनुभव काफी थी । बचपन में मेरे गले पर बार-बार घाव निकल आते थे और उनका आपरेशन करवाना पड़ता था। आज भी मेरे गले और कालर बोन पर उन आपरेशन के निशान मौजूद हैं । आज की तारीख में हम ऐसे डाक्टर से आपरेशन तो दूर सलाह लेने की बात भी नहीं सोच सकते। क्योंकि वह दवाखाना क्या गया के गोलपत्थर मुहल्ले में एक छोटा हालनुमा कमरा था एक कुर्सी पर डाक्टर बैठते थे, उनके सामने एक टेबुल था जिस पर स्टील के तीन-चार डिब्बे रहते थे, एक में काटन(रूई), एक में गाज(पट्टी), एक में कुछ औजार, और पास में ही कुछ शीशीआं जिसमें मलहम हुआ करते थे जिसे आपरेशन के बाद घाव पर लगाने के लिए वे देते थे । दर्द कम करने के लिए कुछ गोलियां भी देते थे । उसी के सामने एक बेंच थी जिसके सामने हरे रंग का कपड़ा मोड़कर टंगा रहता था आपरेशन करते समय डाक्टर उसे खींचकर एक घेरा जैसा बना देते थे । खैर, चांदसी डाक्टर ने अम्मा को तुरंत आपरेशन करवान की सलाह दी । घर में जो पैसे थे सब लेकर अम्मा पापा के साथ आपरेशन करवाने गई । वह घाव अंदर-अंदर वाकई काफी बड़ा हो गया था । कंधे की हड्डियों तक । आपरेशन हो गया । बिना एनेस्थिसिया के । कल्पना करके ही सिहर जाता हूं । बेंच पर मरीज को लिटा दिया जाता था परिवार के लोग मरीज का पैर पकड़कर रखते थे और दवाखाने में काम करने वाले लोग दोनों हाथ और आपके पूरे होशोहवास में डाक्टर घाव पर चीरा लगाकर, मवाद को गारकर निकालता था। आप इस मर्मांतक र्दर्द और पीड़ा की कल्पना करें मैंने तो तीन बार भोगा है । आपरेशन के थोड़ी देर बाद मरीज को घर ले जाना होता था क्योंकि वहां रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी । डाक्टर को देने और दवाई खरीदने में जितने पैसे लेकर पापा गए थे सब खर्च हो गए । जेब में एक पैसा भी नहीं बचा। तब गया में रिक्शा चला करते थे । गोलपत्थर से घर तक आने का वे चार आना लेते थे । रिक्शा कर लें तो घर जाकर उसे पैसे कहां से से देंगे । दर्द से कराहती अर्द्ध-मूर्छित अम्मा ने पापा से पैदल घर चलने को कहा। कैसे वे आए होंगे। उस हाल में चलकर। सोच कर ही सिहर जाता हूं।
1967 में मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था । सूखे के कारण बाजार में अनाज या तो मिलते नहीं थे या बहुत ज्यादा कीमत पर जिसे हम खरीद नहीं सकते थे। ननिहाल में कोदो और मकई रखे हुए थे । नाना-नानी के दिवंगत हो जाने के कारण दोनों मामा, जो अम्मा से छोटे थे, साथ में ही रहते थे। बड़े मामा कालेज में थे और छोटे वाले हाई स्कूल में। वे जाकर उसे ले आए। दिन में हम कोदो का भात खाते और रात को मकई की रोटी या दलिया (जिसे हम घट्ठा कहते थे) ।
अमूमन सुबह सात-साढ़े सात बजे तक अम्मा खाना तैयार कर देती थी । खाना खाकर साढ़े आठ बजे तक पापा कचहरी चले जाते थे । शाम को प्राय: पांच-साढ़े पांच बजे तक वापस आते थे । दिन भर शायद कुछ और नहीं खाते थे । शाम को अम्मा साढ़े तीन बजे के आस-पास चुल्हा जला देती थी । पापा के आने से पहले सब्जी आदि बन जाती थी । पापा जब तक नहा-धो (बाहर से आने के बाद पापा जरूर नहाते थे, देखा-देखी मुझे भी यह आदत लग गई और आज भी चाहे कितनी भी रात हो गई हो, कितनी भी ठंढ़ हो बाहर से आने के बाद नहाये बिना मैं सोने नहीं जाता, अम्मा रोटियां बना देती । हर शनिवार को रात में गोइठे या लकड़ी के कोयले पर लिट्टी लगाई जाती । लिट्टी लगाने का काम पापा करते थे ।
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