मणिपुर: कुकी-मैतेई समुदायों के बीच खिंची सरहद और झुलसे राज्य का आँखों देखा हाल
- दिव्या आर्य
- बीबीसी संवाददाता, इंफ़ाल से लौटकर
राजधानी इंफ़ाल में एयरपोर्ट से बाहर क़दम रखते ही नीला आसमान दिखता है, हवा में ताज़गी महसूस होती है और फ़ोन ख़ामोश ही रहता है.
करीब तीन महीने पहले कुकी और मैतेई समुदायों के बीच शुरू हुए दंगों के बाद रह-रह कर हो रही हिंसा के डर, और दिमाग में चल रहे कोलाहल से एकदम विपरीत, इंफ़ाल में एक चुप्पी है.
अगर आपको सच्चाई मालूम न हो तो आप इस चुप्पी को शांति समझने की भूल कर सकते हैं.
मणिपुर में मोबाइल इंटरनेट बंद है. कोई न्यूज़ एलर्ट नहीं आता जो ये बता दे कि कब किस कोने में किस समुदाय ने कोई घर जला दिया, पुलिस की गाड़ी पर हमला कर दिया और कहाँ कर्फ्यू लग गया.
फोन की बैटरी पूरा दिन चलती है. उसकी स्क्रीन ज़्यादातर व़क्त काली रहती है. दिन में इंफ़ाल की सड़कों पर दौड़ते वाहन, मार्केट में खुली कुछ दुकानें और गश्त लगाती पुलिस की इक्का-दुक्का गाड़ी हालात के सामान्य होने का भ्रम पैदा करते हैं.
समाप्त
हम एक बड़ी-सी इमारत के सामने से गुज़रते हैं, उसमें शतरंज के बोर्ड की तरह करीने से चौकोर खांचे बने हैं जो पूरी तरह जलने के बाद काले हो गए हैं.
ये एक मॉल था, और वो खांचे दुकानों के शोरूम. ऐसी ही स्कूल की इमारतें भी हैं. मई में भड़की हिंसा की स्याह निशानियाँ.
कई जगह बोर्ड लगे हैं जिन पर 'राहत शिविर' लिखा है. कोई सरकारी है, कोई किसी पार्टी ने बनाया है और कई समुदायों के संगठनों ने बनाए हैं. ज़्यादातर शिविर स्कूल की इमारतों में बनाए गए हैं.
स्कूल बंद हैं. इंटरनेट भी नहीं है तो बच्चों के लिए ऑनलाइन क्लास का विकल्प भी नहीं है. तीन हफ्ते पहले सरकार ने पहली से आठवीं कक्षा तक के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का आदेश दिया था.
घाटी में रहने वाले मैतेई और हिंसा के बाद पूरी तरह पहाड़ों पर चले गए कुकी समुदायों के बीच विभाजन की गहरी रेखा खिंच गई है, घाटी और पहाड़ के बीच की खाई ही इस व़क्त मणिपुर की ज़मीनी हक़ीक़त है.
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मणिपुर के भीतर खिंची सरहद
जातीय हिंसा से पहले इंफाल घाटी मैतई बहुल इलाका था.
राजधानी में ज़्यादातर बड़े स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय, सरकारी नौकरियां और रोज़गार के मौके होने की वजह से यहां कुकी समुदाय के लोग भी रहने लगे थे.
हिंसा के बाद वो सब घाटी छोड़ कर पहाड़ी इलाकों में चले गए हैं. पहाड़ी इलाकों के कुछ गांवों में रहने वाले मैतेई भी वहां से भागकर इंफ़ाल के राहत शिविरों में रहने लगे हैं.
मणिपुर के बीचोबीच बसी इंफ़ाल घाटी के चारों ओर एक सरहद खिंच गई है. मैतेई पहाड़ों में नहीं जा सकते और कुकी घाटी में नहीं आ सकते.
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मणिपुर में मुसलमान होना सुरक्षित है
मैतेई और कुकी समुदाय के बीच की इस खाई को वही पार कर सकता है जिसकी दोनों में से किसी भी समुदाय से दोस्ती या दुश्मनी न हो.
हिंदू बहुल मैतेई और ईसाई बहुल कुकी इलाकों के बीच आने-जाने वाले लोग मुसलमान ड्राइवरों की मदद लेते हैं, मणिपुर में मुसलमान होना सुरक्षित है.
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह अब तक कुकी इलाकों के लोगों से मिलने नहीं गए हैं. बताया जाता है कि इसकी वजह ये है कि वो मैतेई हैं.
राज्यपाल अनुसुइया उइके मणिपुर की नहीं हैं. वो मैतेई और कुकी, दोनों इलाकों के राहत शिविरों का दौरा कर चुकी हैं. उनकी गाड़ियों के काफिले के ड्राइवर भी घाटी और पहाड़ की सरहद पर बदले जाते हैं.
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सरकार है भी और नहीं भी
कुकी और मैतेई समुदाय के बीच की सरहद कोई लकीर नहीं है. यह कई किलोमीटर का इलाका है. मैतई इलाके से निकलने और कुकी इलाके में दाखिल होने के बीच की इस दूरी में कई चेक प्वॉइंट हैं.
पहले चेक प्वॉइंट पर मैतेई समुदाय के लोग और आख़िरी पर कुकी समुदाय के लोग हैं. बीच में सेना और पुलिस के चेक प्वॉइंट हैं.
समुदाय के लोगों ने कहीं बोरियों से, कहीं कंटीली तारों से, बड़े-बड़े पाइपों से रास्ता रोका है. इन चेक प्वॉइंट पर तैनात लोगों के पास हथियार भी हैं.
यहाँ हर गाड़ी की जांच की जाती है कि कार में कोई हथियार तो नहीं है. गाड़ी चलाने वाले का पहचान पत्र मांगकर उसके जाति-धर्म की जानकारी ली जाती है, ताकि तय किया जा सके कि उसे सरहद पार करने का हक़ है या नहीं.
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समुदाय के लोगों के बनाए हथियारबंद चेक प्वॉइंट एक अजीब अनुभव है, सरकार के होते हुए भी ना होने के सबूत हैं ये चेक प्वॉइंट.
हथियार शहर में रहने वालों के पास भी हैं और गांव वालों के पास भी. सस्ते में मिल जाते हैं और अपनी सुरक्षा के लिए लोग घरों और दफ्तरों में रखते हैं.
राजधानी इंफ़ाल में एक व्यक्ति ने तो बहुत सहज तरीके से अपनी मेज़ के नीचे से हमें असली ग्रेनेड निकालकर दिखाया.
उन्होंने कहा ये आत्म-रक्षा के लिए रखा है. पास में उनकी छोटी-छोटी बच्चियां खिलौने वाली बंदूक से खेल रही थीं.
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हिंसा का डर
सबसे ज़्यादा तनाव सरहदों पर ही है. इंफ़ाल घाटी के चारों ओर से पहाड़ों को निकलती सड़कों के दोनों ओर जले हुए घर और टूटी हुई गाड़ियां बिखरी हैं.
इन गांवों से लोग भाग चुके हैं. पीछे रह गई जली इमारतों में सेना के जवान रह रहे हैं.
हर दूसरी शाम दोनों समुदायों के बीच गोलीबारी शुरू हो जाती है.
कभी लोग मारे जाते हैं तो कभी पीछे छूट गई खाली दुकानों में आग लगने की खबर आती है. सब्ज़ी-फल, दवाएं और अन्य ज़रूरी सामान का आना-जाना भी बुरी तरह प्रभावित है.
इसी हिंसा के डर के बीच मणिपुर सरकार ने सरकारी दफ्तरों और आठवीं क्लास तक स्कूल खोलने का निर्देश दिया था.
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इंफ़ाल घाटी में कुछ स्कूल खुले भी पर कम ही मां-बाप अपने बच्चों को भेज रहे हैं.
पहाड़ी इलाकों में स्कूल बिल्कुल नहीं खुले हैं. वहां के राहत शिविरों में वॉलंटियर्स थोड़ा-बहुत पढ़ा रहे हैं लेकिन जब घर का ठिकाना ना हो तो पढ़ाई में दिल लगाना मुश्किल है.
ज़्यादातर सरकारी दफ्तर घाटी में हैं.
'नो वर्क, नो पे' यानी काम नहीं, तो तनख्वाह नहीं के सरकारी आदेश के बाद मैतेई समुदाय के लोगों ने दोबारा काम शुरू किया है लेकिन कुकी समुदाय के लोगों के मुताबिक वापस घाटी जाना उनके लिए मुमकिन ही नहीं.
हर बात इस बात पर आकर मानो रुक जाती है कि आपस में जुड़ी ज़िंदगियां, रोज़गार, कारोबार, सब कैसे बहाल हो जब विभाजन की रेखा इतनी गहरी होती जाए.
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सूरज ढलते-ढलते ही हर ओर वीराना हो जाता है, अंधेरे के वक्त अब भी पूरे मणिपुर में कर्फ्यू लागू है.
अंधेरा सिर्फ रात में नहीं है. नाराज़गी और नफ़रत की आवाज़ें बुलंद हैं और शांति की बात करने वालों में डर है कि उनका समुदाय ही उनसे नाराज़ ना हो जाए.
मोबाइल में इंटरनेट न होने के बावजूद दो औरतों को नग्न करके घुमाए जाने का वायरल वीडियो हर फ़ोन में है.
जहां-तहां मिल पाने वाले वाई-फ़ाई कनेक्शन के ज़रिए और बिना इंटरनेट के वीडियो ट्रांसफ़र करने वाली ऐप्स के ज़रिए वो फैल रहा है.
साथ ही फैल रहा है गुस्सा, दुख और अन्याय का अहसास. और बस यही है जो मणिपुर के बीच खिंची सरहद को बेरोक-टोक पार कर रहा है.
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