गुरुवार, 21 जनवरी 2016

झंडा ही नहीं, एजेंडा भी चाहिए / दाताराम चमोली







किसी भी राजनीतिक पार्टी का झंडा तभी ऊंचा रह सकता है जब उसके पास जमीनी एजेंडा हो। राज्य निर्माण के एजेंडे पर गठित उत्तराखण्ड क्रांति दल के पतन का कारण ही यही है कि सत्ता का सुख भोगने के चक्कर में इसके नेताओं ने अपनी जमीन छोड़ डाली।
उत्तराखण्ड क्रांति दल (उक्रांद) के टूटे धड़ों में खुद को ‘असली’ और दूसरे को ‘नकली’ साबित करने की जंग कोई नई बात नहीं है। राज्य गठन से पहले और बाद भी समय-समय पर उनकी जंग मीडिया और राजनीतिक गलियारों की सुर्खियों में रही। लगता नहीं कि भविष्य में भी यह जंग कभी थम पाएगी। आखि्र क्या गारंटी है कि जो धड़ा आज चुनाव आयोग से कुर्सी चुनाव चिन्ह और झंडा मिलने पर फूले नहीं समा रहा है, वह कल फिर आपसी झगड़ों के कारण टूटेगा नहीं? टूटकर चुनाव चिन्ह और झंडे पर दावा नहीं करेगा? संभव है कि नेताओं ने कोई ऐसी संजीवनी खोज ली हो जो उन्हें एकजुट रख सके, लेकिन क्या इतने भर से काम चल पाएगा? यह सच है कि प्रतिद्वंद्वी को पटखनी देने पर धड़े के नेताओं और कार्यकर्ताओं का इगो (अहं) अवश्य तुष्ट हो सकता है, वे जश्न भी मना सकते हैं, लेकिन क्या झंडे और चुनाव चिन्ह पा लेने भर से उनकी चुनावी नौका पार लग पाएगी?
आज उक्रांद के किसी भी धड़े का कोई नेता सोचने को तैयार नहीं है कि 1979 में दल का गठन हुआ और 1980 में जनता ने दल के एक प्रत्याशी को उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी पहुंचा दिया। 1984 और 1989 में भी जनता ने दल के प्रत्याशी उत्तर प्रदेश विधानसभा में भेजे। 1989 के चुनाव में तो दल ने उत्तराखण्ड में कांग्रेस को सीधी चुनौती दी थी। दल के दो नेता विधानसभा में पहुंचे तो कुछ कड़े संघर्ष के बावजूद दुर्भाग्य से हार गए। इस चुनाव के बाद दल के कई नेता और कार्यकर्ता अपने-अपने ब्लाॅकों में प्रमुख भी बने। जाहिर है कि राज्य गठन और जनता के सवालों के जिस एजेंडे को लेकर दल आगे बढ़ रहा था उससे प्रभावित होकर बड़ी संख्या में युवा शक्ति दल से जुड़ी। लेकिन बाद के दिनों में दल के नेताओं में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने का लालच बढ़ा। जनता ने जिन लोगों के हाथों में कभी आंदोलन की कमान सौंपी थी उन्हें सत्ता की कठपुतली बनते देख उनसे किनारा करना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि 2002 के चुनाव में पार्टी के चार विधायक थे। 2007 में यह संख्या घटकर तीन तो 2012 में मात्र एक ही रह गई। सौभाग्य समझिए या फिर दुर्भाग्य कि 2007 और फिर 2012 में भी त्रिशंकु विधानसभा के चलते उक्रांद नेताओं को सत्ता का सुख भोगने का भी अवसर मिल गया। सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने कार्यकर्ताओं की भावनाओं के विरुद्ध ऐसी दलीलें दीं कि वर्षों पुरानी राष्ट्रीय पार्टियों के खेले-खिलाए नेता भी उनके सम्मुख बौने साबित हो गए।
वास्तव में सत्ता का सुख व्यक्ति को इतना अंधा कर देता है कि वह यह भी भूल जाता है कि उसका मूल क्या और कहां है? जो दल कभी राज्य निर्माण के एजेंडे पर गठित हुआ था, वह आज सरोकारों से धरातल पर कितना सक्रिय है? जो गैरसैंण जनता के लिए सोच- विचार और संस्कृति रहा, उसको लेकर उक्रांद नेतृत्व जनता को गोलबंद करने में क्यों असमर्थ रहा? अखबारों में बयानबाजी कर देने भर से या रस्मअदायगी के लिए गैरसैंण में उपस्थिति दर्ज कर देने भर से क्या जनता के दुख दूर हो जाएंगे? राज्य की मांग वास्तव में विकास योजनाओं के विकेंद्रीकरण को लेकर उठी थी। सरकारें जिस कदर सब कुछ देहरादून से संचालित करने की जिद पाले रहीं और पंचायतों के अधिकारों पर डाका डालती रहीं, उस पर उक्रांद चुप्पी क्यों साधे रहा? दल के नेता पहाड़ को तबाह करने वाली विनाशकारी योजनाओं पर क्यों मौन साध गए? आपदाग्रस्त क्षेत्रों में लोग आज भी बेघर हैं, लेकिन दल के नेता उनके बीच जाना तो दूर देहरादून में भी मुंह बंद किए रहे। आज भी वे एक तरफ तीसरी शक्ति को मजबूत करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ सत्ता की मलाई खाने का मोह नहीं छोड़ते। जनता में भारी छीछालेदर होने के बाद बड़ी मुश्किल से अब जाकर एक शीर्ष नेता ने राज्य की नीति नियोजन समिति के सदस्य पद का मोह छोड़ा है।
सत्ता का सुख भोगने के लिए उक्रांद नेता स्वतंत्र हैं। आखिर कोई कुछ भी करेगा तो अपने ही विवेक से करेगा। लेकिन यदि कोई जनता का कर्णधार होने का दावा करे तो उस पर उंगली उठाने का हर किसी को हक है। अगर उक्रांद का कोई भी धड़ा हकीकत में कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ विकल्प खड़ा करने की इच्छा शक्ति रखता है तो इसके लिए सबसे पहले उसके नेताओं को अपनी छवि साफ रखनी होगी। इसके बाद राज्य की जनता के सम्मुख विकास का अपना एजेंडा स्पष्ट करना होगा। चुनाव जीतने के लिए झंडा भी तभी कारगर साबित होगा जबकि जनता के विकास का कोई ठोस एजेंडा हो। इसके बिना कोई भी नेतृत्व जनविश्वास हासिल नहीं कर पाएगा। (दि संडे पोस्ट, अंक 24-30 जनवरी 2016)

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