प्रस्तुति- संत शरण
By Lokmaya, 20 December, 2014, 10:04
कोणार्क का सूर्य मंदिर ओडिसा की राजधानी भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर दूर
है। यह सूर्य मंदिर अपने समय की उत्कृष्ट वास्तु रचना है।सूर्य को ऊर्जा,
जीवन और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
इसे 'अर्कक्षेत्र' भी कहा जाता है इसी जगह महर्षि कश्यप और मां अदिति ने तपस्या करके सूर्यदेव को पुत्र रूप में प्राप्त किया था। कहा जाता है कि यहां सूर्य की पूजा और चाक्षुसी मंत्र का पाठ करने से समस्त नेत्रदोष दूर हो जाते हैं !
इसे तेरहवीं शताब्दी (1238-64 ) में पूर्वी गंग वंश के राजा नरसिंह देव प्रथम ने बनवाया था। विश्व विख्यात यह मंदिर प्राचीन उड़िया स्थापत्य कला का बेजोड उदाहरण है। मंदिर की रचना इस तरह से की गई है कि यह सभी को आकर्षित करती हैं। मंदिर वास्तु कला का सुंदर उदाहरण है।
चारों ओर परकोटे से घिरे इस मंदिर की मूर्तियां लेहराइट, क्लोराइट और खोंडोलाइट नाम के पत्थरों से बनाई गई हैं। ये पत्थर कोर्णाक में नहीं पाए जाते, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि नरसिंह देव ने इन्हें बाहर से मंगवाया होगा।
मंदिर का पूरा आकार भगवान सूर्य के दिव्य रथ के रूप में परिकल्पित है। जिसे मंदिर बनाने वालों ने पत्थरों के जरिए साकार कर दिया। इस मंदिर के तीन हिस्से हैं- पहला- नश्त्यमंदिर, दूसरा- जगमोहन मंदिर और तीसरा- गर्भगृह। मंदिर की दीवारों पर कई प्राकृतिक दृश्य, पशु-पक्षी और अप्सराओं के अलावा कामसूत्र पर आधारित मूर्तियां भी हैं।
मंदिर की वास्तु रचना
उस काल में निर्माण वास्तुशास्त्र के आधार पर ही होता था, इसलिए मन्दिर निर्माण में भूमि से लेकर स्थान व दिन चयन में निर्धारित नियमों का पालन किया गया। जानकारी के अनुसार इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।
शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहां पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया।
पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।
मंदिर को देखकर प्रतीत होता है कि अपने सात घोड़े वाले रथ पर विराजमान सूर्य देव कहीं प्रस्थान करने वाले हैं। यह मूर्ति सूर्य मन्दिर की सबसे भव्य मूतियों में से एक है। सूर्य की चार पत्नियां रजनी, निक्षुभा, छाया और सुवर्चसा मूर्ति के दोनों तरफ़ हैं। सूर्य की मूर्ति के चरणों के पास ही रथ का सारथी अरुण भी उपस्थित है।
इसे 'अर्कक्षेत्र' भी कहा जाता है इसी जगह महर्षि कश्यप और मां अदिति ने तपस्या करके सूर्यदेव को पुत्र रूप में प्राप्त किया था। कहा जाता है कि यहां सूर्य की पूजा और चाक्षुसी मंत्र का पाठ करने से समस्त नेत्रदोष दूर हो जाते हैं !
इसे तेरहवीं शताब्दी (1238-64 ) में पूर्वी गंग वंश के राजा नरसिंह देव प्रथम ने बनवाया था। विश्व विख्यात यह मंदिर प्राचीन उड़िया स्थापत्य कला का बेजोड उदाहरण है। मंदिर की रचना इस तरह से की गई है कि यह सभी को आकर्षित करती हैं। मंदिर वास्तु कला का सुंदर उदाहरण है।
चारों ओर परकोटे से घिरे इस मंदिर की मूर्तियां लेहराइट, क्लोराइट और खोंडोलाइट नाम के पत्थरों से बनाई गई हैं। ये पत्थर कोर्णाक में नहीं पाए जाते, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि नरसिंह देव ने इन्हें बाहर से मंगवाया होगा।
मंदिर का पूरा आकार भगवान सूर्य के दिव्य रथ के रूप में परिकल्पित है। जिसे मंदिर बनाने वालों ने पत्थरों के जरिए साकार कर दिया। इस मंदिर के तीन हिस्से हैं- पहला- नश्त्यमंदिर, दूसरा- जगमोहन मंदिर और तीसरा- गर्भगृह। मंदिर की दीवारों पर कई प्राकृतिक दृश्य, पशु-पक्षी और अप्सराओं के अलावा कामसूत्र पर आधारित मूर्तियां भी हैं।
मंदिर की वास्तु रचना
उस काल में निर्माण वास्तुशास्त्र के आधार पर ही होता था, इसलिए मन्दिर निर्माण में भूमि से लेकर स्थान व दिन चयन में निर्धारित नियमों का पालन किया गया। जानकारी के अनुसार इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।
शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहां पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया।
पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।
मंदिर को देखकर प्रतीत होता है कि अपने सात घोड़े वाले रथ पर विराजमान सूर्य देव कहीं प्रस्थान करने वाले हैं। यह मूर्ति सूर्य मन्दिर की सबसे भव्य मूतियों में से एक है। सूर्य की चार पत्नियां रजनी, निक्षुभा, छाया और सुवर्चसा मूर्ति के दोनों तरफ़ हैं। सूर्य की मूर्ति के चरणों के पास ही रथ का सारथी अरुण भी उपस्थित है।
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