रविवार, 24 जनवरी 2016

हिजड़ा होना अभिशाप क्यूँ?









विश्व के लगभग सभी समाजों में स्त्री और पुरुष के रूप में दो लिंगों को मान्यता दी गई है. इन दो विपरीत लिंगों को ही सृष्टि का आधार माना जाता रहा है. समाज द्वारा गढ़ी गई स्त्री और पुरुष की लैंगिक पहचानों के परे जो भी है वह धुंधला और मंझला हैं, जिसे समाज मान्यता नहीं देता. परन्तु सच यह है कि समाज में हमेशा से ही इन दो मान्यता प्राप्त लिंगों के बरक्स कुछ ऐसे लोग, ऐसी पहचानें भी रही हैं जो अपने आपको स्त्री या पुरुष के खांचे में फिट नहीं बिठा पाती, या जो प्रद्दत सेक्स से इतर अपना जेंडर गढ़ना चाहती है. अस्पष्ट लैंगिक पहचान वाला यह वर्ग संसार के सभी समाजों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा के अनुपात में शोषण और अवहेलना का शिकार होता आया है.


भारतीय भू-भाग में इस समूह के लोगों को प्राय: ‘हिजड़ा’ कहकर बुलाया जाता है. हिजड़ा ऐसे लोगों को कहा जाता है जिनके जननांग अस्पष्ट होते हैं अर्थात् जिनके जननांग न तो स्पष्ट रूप से स्त्री के होते हैं और न ही पुरुष के. दूसरे, ऐसा व्यक्ति जिसका जन्म पुरुष जननांग के साथ हुआ हो परन्तु जो अपने आपको पुरुषों की श्रेणी में मिसफिट पता हो, ऐसा व्यक्ति भी हिजड़ा कहलाता है. कई बार ऐसे पुरुषों के जननांगों को काट कर उनकों पूर्ण रूप से हिजड़ा बना दिया जाता है. अंग्रेजी में इस प्रक्रिया को कास्ट्रेशन(castration) कहते हैं. हिजड़ों के बारे में यह भी प्रचलित है कि सभी हिजड़े जन्मजात ऐसे नहीं होते कई बार एक सामान्य पुरुष को ज़बरन हिजड़ा बना दिया जाता है. ऐसे अनेक गिरोहों का पर्दाफ़ाश हो चुका है जो बच्चों और जवान लड़कों को उनके जननांग काटकर हिजड़ा बना देते हैं. इसके बाद इनको जिस्मफरोशी और भीख मांगने जैसे धंधों में लिप्त कर देते हैं. मुग़ल काल में हजारों की संख्या में राजपूत पुरुषों के जननांगों को काटकर हिजड़ा बना दिया गया और अपने हरम में इन्हें अपनी स्त्रियों की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया. इस प्रकार हिजड़ा बनाने की यह प्रक्रिया पुराने समय से चली आ रही है.


हाशियाकृत लोगों की बात आते ही हमारे ज़हन में दलित स्त्री और अब गे-लेस्बियन समूह की तस्वीर उभरकर आती है. रामायण व महाभारत के समय से समाज में हिजड़ा समुदाय की उपस्थिति रही है. महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के समय अर्जुन ने वृहन्नलला बन कर अपनी जीविका चलायी थी. इसके अलावा महाभारत युद्ध में आरनवा नामक योद्धा का ज़िक्र है जिसे आज भी हिजड़े अपना ईश्वर मानते हैं. रामायण में श्री राम ने एक हिजड़े से प्रसन्न होकर उसे किसी को भी दुआ-बद्दुआ देने की शक्ति प्रदान की थी. इन्ही कथाओं के आधार पर पारंपरिक रूप से यह मान्यता चली आ रही है कि हिजड़े आध्यात्मिक रूप से अत्यंत शक्तिशाली होते हैं.[1] इसी कारण लोग अपने यहाँ बच्चे के जन्म या फिर शादी जैसे अवसरों पर हिजड़ों का आना शुभ मानते हैं. मुस्लिम शासक तो हिजड़ों को अपना वफादार मानते थे. प्राय:इनको जनानखाना यानि की हरम की सुरक्षा का ज़िम्मा सौपा जाता था, तो वहीँ कुछ हिजड़े सेना में भी अच्छे पदों पर तैनात थे. लेकिन अंग्रेजों के समय में यह स्थिति नहीं रही. अग्रेजों द्वारा इन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया. आजादी के बाद इनके सिर से अपराधी होने का कलंक तो मिटा दिया गया लेकिन इनको समाज के एक सड़े हुए अंग की तरह काट कर फेंक दिया गया. जिस हिजड़ा समुदाय को धर्म ने, पुराणों ने स्वीकारा, जिनका दर्ज़ इतिहास 4000 साल पुराना रहा है[2] इसी हिजड़ा समुदाय को समाज धीरे-धीरे बहिष्कृत करता चला गया. विडंबना देखिये कि हाशिए पर पड़े हिजड़ा समुदाय के लिए न तो समाज में आन्दोलन होते हैं न साहित्य में विमर्श.


समाज में हिजड़ा समुदाय की आर्थिक और सामाजिक स्थिति अत्यंत दयनीय है. इसका स्पष्ट कारण समाज और सरकार द्वारा बरसों से हिजड़ों के साथ किया जाने वाला उपेक्षित व्यवहार है. समाज ने इन्हें मनुष्य तक का दर्ज़ा नहीं दिया तो सरकार ने भी बरसों तक इन्हें नागरिक होने के अधिकार से वंचित रखा. इसी भारतभूमि पर जन्म लेने के बाद भी इनके होने का कहीं कोई स्पष्ट रिकॉर्ड नहीं होता था. भारत सरकार द्वारा किए गए एक ताज़ा सर्वे के आकड़ों के अनुसार देश में 4.9 लाख हिजड़े है हालाँकि हिजड़ों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की माने तो यह संख्या इससे कई गुना ज्यादा है.[3] परन्तु फिर भी सुप्रीमकोर्ट के द्वारा को हिजड़ों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान देने के बाद यह पहल काबिल-ए-तारीफ है. सुप्रीमकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हिजड़ों का मुद्दा कोई सामाजिक या चिकित्सकीय समस्या नहीं है बल्कि यह मानवाधिकार हनन का मसला हैं.[4] सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन से जाहिर ही है कि हिजड़ा समाज में शिक्षा न के बराबर ही है. शैक्षिक संस्थाएं हिजड़ों को दाखिला देने से भी कतराती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके शिक्षा संस्थान की साख पर तो आंच आएगी सो आएगी, उनके छात्रों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा. शायद यही कारण है कि इन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलती है .हिजड़ों की आजीविका का मुख्य स्रोत मंगलमय अवसरों पर नाच-गाने का है परन्तु समय के साथ बदलते रीति-रिवाजों के कारण इस स्रोत से होने वाली इनकी कमाई में भारी कमी आई है. आज हिजड़ा समाज अपनी दयनीय आर्थिक सामाजिक स्थिति के कारण भीख मांगने तथा वेश्यावृत्ति करने के लिए अभिशप्त है. जिस्मफरोशी के इस दलदल में गिर जाने की वज़ह से ही हिजड़ों में एड्स पीड़ितों की संख्या लगातार बढती जा रही है. इस तरह इनका भविष्य और अंधकारमय होता जा रहा है. हिजड़ा समाज एवं इनकी आने वाली पीढ़ियाँ यह सब करने को अभिशप्त हैं. बाज़ार, मोहल्लों, सड़क या ट्रेनों आदि में भारी भरकम आवाज़, जोर-जोर से तालियाँ बजाते, अभद्र भाषा का प्रयोग करते हिजड़ों से हर व्यक्ति पीछा छुड़ाना चाहता है, कोई भी इनके दर्द को महसूस करना या सुनना समझना नहीं चाहता. 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने समाज से हिजड़ों की इस दयनीय स्थिति को समझने की अपील करते हुए कहा है कि “Seldom, our society realizes or cares to realize the trauma, agony and pain which the members of Transgender community undergo, nor appreciates the innate feelings of the members of the Transgender community, especially of those whose mind and body disown their biological sex. Our society often ridicules and abuses the Transgender community and in public places like railway stations, bus stands, schools, workplaces, malls, theatres, hospitals, they are sidelined and treated as untouchables, forgetting the fact that the moral failure lies in the society's unwillingness to contain or embrace different gender identities and expressions, a mindset which we have to change.” [5] इस वक्तव्य से समाज में हिजड़ों की यथास्थिति का ज्ञान हो जाता है. इससे यह भी स्पष्ट है कि जब तक समाज इनको नहीं अपनाएगा तब तक कोई भी कानून, कोई भी सरकार इनको पूर्णत: मुख्यधारा में लाने में सफल नहीं हो सकती.


समाज के साथ-साथ साहित्य का भी यह दायित्व बनता है की वह हाशिये पर डाल दिए गए इन हिजड़ो के लिए नए विमर्श गढ़े, नयी चेतना फूंके. परन्तु विमर्शों के घटाटोप तथा प्रमाणिक अनुभूति होने के बावजूद हिजड़े तो इस स्थिति में ही नहीं हैं कि अपने लिए एक नया विमर्श गढ़ पायें. वज़ह साफ़ है कि समाज के द्वारा किये गए उपेक्षित व्यवहार ने उन्हें इस कदर अपंग बना दिया है कि ये कलम उठाकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की स्थिति में है ही नहीं. ऐसे में आवश्यक हो जाता है की सुधि साहित्यकारों की लेखनी से इनके उत्थान के पाठ लिखे जाये. पिछले दिनों मेरा साक्षात् एक ऐसे ब्लॉग ‘अर्धसत्य/आधासच’ (http://adhasach.blogspot.in) से हुआ जो हिजड़ों का ब्लॉग है. मेरी उत्सुकता का हाल यह था कि मैंने एक ही दिन में सारा ब्लॉग पढ़ डाला. अच्छा लगा कि संचार के नए माध्यमों ने इस उपेक्षित समूह को अभिव्यक्ति का एक जरिया दिया. इनकी लेखनी में भले ही वह परिपक्वता न हो परन्तु बेबाकी व भोगी गयी पीड़ा के स्वर ज़रूर है. मीडिया भी अगर चाहे तो इनके उत्थान के लिए अनेक कदम उठा सकती है, समाज में हिजड़ों के प्रति संवेदनशील होने की अपील कर सकती है लेकिन बड़ा दुःख होता है यह देखकर की लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माने जाने वाली भारतीय मीडिया (इसमें तथाकथित प्रगतिशील एवं अंग्रेजी अखबार भी शामिल) का हिजड़ों के प्रति नजरिया भी पूर्वग्रहों से ग्रसित रहा है. जैसे Hijras were routinely portrayed as wily tricksters who led unsuspecting men astray or half-man half-woman freak shows, almost devilish in their customs and practice.[6] पिछले दिनों आए सोडा के एक टीवी विज्ञापन में किन्नरों के प्रति मीडिया और समाज का नकारात्मक रवैया साफ़ ज़ाहिर होता है. विज्ञापन में एक युवक झूला झूलते हुए पेड़ से टकराकर जमीन पर सीधा खड़ा होता है और सोडा के बोतल में मुंह लगाकर एक घूंट पीता है। उससे जब उसका स्वाद पूछा जाता है तो वह जवाब देता है, ‘‘यह ज्यादा मीठा नहीं फीका है।’’ तुरंत उससे दूसरे बोतल में बंद शीतल पेय का स्वाद पूछा जाता है, जिसे बिना पिए वह जवाब देता है, ‘‘यह न ज्यादा मीठा है न फीका।’’ उसके इस जवाब को सुनकर उसके पीछे खड़े नवयुवक हिजड़ों की नकल उतारते हुए व्यंग्य करते हैं, ‘‘यानि यह न इधर का है न उधर का।[7] बीच का है। यदि समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले यह संचार के माध्यम ही किसी वर्ग विशेष के प्रति पूर्वग्रहों से ग्रसित रहेंगे तो उसके परिणाम कितने नकारात्मक होंगे इसका अंदाज़ा निश्चित ही लगाया जा सकता है.


हिजड़े बच्चे के जन्म पर परिवार के लोग उसे अपने किसी सड़े हुए अंग की तरह काट कर फेंक देते हैं. उस बच्चे का दोष सिर्फ यह होता है कि वह निर्धारित कर दी गयी स्त्री-पुरुष की श्रेणी से इतर पहचान रखता है. वह समाज द्वारा गढ़ दिए गए इन दोनों खांचों में फिट नहीं बैठता. किन्नरों पर लिखे गए हिंदी उपन्यास ‘तीसरी ताली’ के लेखक प्रदीप सौरभ हिजड़ों की स्थिति के लिए समाज को जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं कि “हम सब असल में एक सामन्ती मानसिकता या कहें कि लिंगधारी मानसिकता वाले समाज में रह रहें हैं. हमारे भीतर लिंग को लेकर गहरे तक गर्व का भाव है. यही कारण है की मानसिक रूप से ग्रस्त बच्चे को तो हम 70-70 साल तक करोड़ों रूपये खर्च करके पलते है लेकिन लिंग अस्पष्टता वाले बच्चे को हम तुरंत परिवार से हम बाहर कर देते हैं. हमारा पौरुष और हमारी मर्दानगी अच्छे काम के बजाय जब तक मूंछों से तय होंगी तब तक इस मानसिकता से छुटकारा संभव नहीं हैं.”[8] प्रदीप सौरभ का कथन समाज की असंवेदनशीलता की तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत करता है. यदि परिवार के लोग अपने लैंगिक रूप से विकलांग बच्चे को भी अपने अन्य बच्चों के सामान परवरिश दे तो शायद इनकी ऐसी दुर्गति न हो लेकिन इसके लिए भी यह आवश्यक है कि लैंगिक रूप से विकलांग बच्चे के परिवार को समाज से सहयोग मिले क्योंकि अक्सर माता-पिता समाज में होने वाली जिल्लत के डर से ही ऐसे बच्चों को अपने से अलग कर देते हैं. हिजड़ों पर होने वाली हिंसा की घटनाएँ भी दिन-ब-दिन सामने आती है कभी परिवार तो कभी पुलिस तो कभी अन्य सामाजिक तत्वों द्वारा इन्हें प्रताड़ित किया जाता है. परिवार के लोग इन्हें अभिशाप मानकर प्रताड़ित करते हैं तो पुलिस द्वारा शोषित एवं प्रताड़ित होने का प्रमुख कारण है इनका हिजड़ा होना और दूसरे, अधिकांश हिजड़ों का निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखना. पुलिस द्वारा किये जाने वाले शोषण का तो यह हाल है कि प्राय: हर हिजड़े के पास पुलिस से जुड़ा कोई न कोई किस्सा सुनाने के लिए है. ऐसे ही एक वाकये का ज़िक्र करते हुए चांदनी बताती है-“एक बार एक महिला पुलिसकर्मी ने मुझ पर हमला किया," चांदनी याद करती है. "उसने कहा, "यहाँ क्यूँ खड़ी हो? और

मुझे बेवज़ह मारना शुरू कर दिया जैसे ही मैंने उसका हाथ पकड़ा तो वह वहाँ से भाग गई थोड़ी देर के बाद वह दो पुलिस वालों के साथ आई. वे लोग मुझे पुलिस स्टेशन ले गए, वहाँ मुझे मार-मार कर कपड़े उतारने को कहा और नंगा नचाया.’’[9] इस तरह की घटनायें अब इनके लिए नियति बन चुकी हैं. अब ऐसे में समाज का रक्षक कही जाने वाली पुलिस पर हिजड़ा समुदाय कैसे भरोसा कर सकता है. भारतीय कानून में 13 दिसम्बर 2013 समलैंगिक सम्बंधों को गैरकानूनी करार दिए जाने के बाद हिजड़ा समुदाय के लिए और मुश्किलें खड़ी हो गयी हैं “there has been a sharp increase in the physical, psychological and sexual violence against the transgender community by the Indian Police Service nor are they investigating even when sexual assault is reported.”[10] इन सभी घटनाओं से पुलिस का घिनौना चेहरा हमारे सामने आता है. सवाल यह उठता है कि समाज औए कानून के सताए हिजड़े आखिर जाए कहाँ? शायद यही वज़ह है कि हिजड़ों की मौत पर उनकी लाश को जूतों से मारा जाता है ताकि अगले जन्म में वह फिर से हिजड़ा ना बने. सिर्फ एक जेंडर विशेष से ताल्लुक रखने की इतनी बड़ी सजा क्यूँ? लगभग पिछले एक दशक से मानवाधिकार आयोग की नज़र भी इनकी सुरक्षा के मुद्दे पर पड़ी है. सितम्बर, 2003 में एक रिपोर्ट आई जिसने हिजड़ा समुदाय के मानवाधिकारों के हनन की पड़ताल की. इसी रिपोर्ट के फॉरवर्ड में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और कानून विशेषज्ञ उपेन्द्र बख्शी लिखते हैं -"The dominant discourse on human rights in India has yet to come to terms with the production/reproduction of absolute human rightlessness of transgender communities.... At stake is the human right to be different, the right to recognition of different pathways of sexuality, a right to immunity from the oppressive and repressive labeling of despised sexuality. Such a human right does not exist in India."[11] उनके इस कथन से साफ़ ज़ाहिर है कि हिजड़ा समुदाय की सुरक्षा एवं उनके हकों को लेकर अभी कितना कुछ होना बाकी हैं. यूँ तो हिजड़ों को शुभ कार्यों विवाह एवं बच्चे के जन्म आदि के अवसर पर बुलाया जाता है परंतु फिर भी समाज इनके साथ अछूतों सा व्यवहार करता हैं. कुछ समय पहले रतलाम में हुए किन्नर सम्मेलन में ग्वालियर से आई हिजड़ा गुरु प्रीति के शब्दों में यह दर्द साफ़ झलकता है. वह कहती हैं कि –“लोग हमसे नफरत करते हैं.लोगों को यह समझना चाहिए कि हमें भी आशियाने की ज़रूरत है, हमें भी प्यास लगती है, हमें भी भूख लगती हैं, हमारे पास भी दिमाग है, हम भी अच्छे काम कर सकती हैं.” [12] प्रीति के यह शब्द समाज से उनके लिए संवेदनशील होने की मांग करते हैं.


आजकल LGBT नाम से आन्दोलन अपने ज़ोरों पर है जिसमें लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल के साथ-साथ हिजड़ों को भी स्थान दिया गया परन्तु यहाँ भी हिजड़ों को वह पहचान नहीं मिल पाई. कारण यह कि हिजड़ों के अलावा इस आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य सेक्सुअल पहचानों से जुड़े लोग प्राय: संपन्न परिवारों से आते हैं. इसीलिए आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़ा हिजड़ा समुदाय यहाँ भी पीछे ही रह गया है. बिहार सरकार ने सन 2006 से हिजड़ों को कर वसूली के लिए रोजगार प्रदान किए.[13] अपनी दबंगई से हिजड़े उन लोगों से कर वसूलने का काम करते हैं जो कर की चोरी करते हैं. हिजड़ों की मदद से बिहार सरकार का यह फंडा कर वसूली का सबसे प्रभावी तरीका बनकर उभरा है. परन्तु मेरे विचार से समाज और किन्नरों के बीच की तनातनी इससे और अधिक बढ़ेगी तथा लोगों के दिमाग में किन्नरों को लेकर गढ़ी गई स्टीरियोटाइप छवि और मज़बूत हो जाएगी. जाहिर है इससे हिजड़ों को उतना लाभ नहीं होगा जितना नुकसान पहुंचेगा. दरअसल, हमें हिजड़ों को सशक्त करने के और बेहतर तरीके ईज़ाद करने होंगे ताकि हिजड़ों को समाज की मुख्यधारा में लाने की राहें आसान हो न कि मुश्किल.


आधुनिक दौर में उपजे विमर्श और अस्मिताओं के आन्दोलन का ज्यादा न सही कुछ प्रभाव तो किन्नरों कि स्थिति पर भी पड़ा हैं. यूँ तो मुख्य चुनाव आयुक्त टी एस शेषन ने सन 1994 में ही किन्नरों को मताधिकार दे दिया था. इसके बाद अक्टूबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट का ध्यान फिर से इस उपेक्षित समुदाय की ओर गया. उसके बाद 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने हिजड़ों को तीसरे लिंग के रूप में कानूनी पहचान दी कोर्ट ने कहा कि समाज में ‘किन्नर’ आज भी अछूते बने हुए हैं और आमतौर पर इन्हें स्कूलों और शिक्षण संस्थाओं में दाखिला नहीं मिल पाता. उनके लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इसीकी अगली कड़ी के रूप में सुप्रीम कोर्ट का एक और फैसला आया कि हिजड़ों को संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, उन्हें शिक्षा एवं रोजगार के समान अवसर मुहैया कराए जाने चाहिए. हिजड़ों की सामाजिक और लिंगानुगत समस्याओं का निराकरण किया जाना चाहिए तथा इसके लिए चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध की जानी चाहिए. इन्हें बच्चा गोद लेने का भी अधिकार होगा और यदि यह चाहे तो चिकित्सा द्वारा अपना यदि संभव हो तो स्त्री-पुरुष किसी भी लिंग के रूप में स्वयं को परिवर्तित करा सकते हैं. सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री और पुरुष के समान ही इनके लिए भी अलग शौचालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा संस्थानों में प्रवेश तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की भी वकालत की है ताकि किन्नर समाज का आर्थिक एवं सामाजिक रूप से उत्थान किया जा सके. कोर्ट ने हिजड़ों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दे दी है. अब पासपोर्ट आदि के साथ-साथ अन्य आवेदन पत्रों में भी स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त हिजड़ों के लिए एक अन्य कॉलम की व्यवस्था की गयी है. ध्यातव्य रहे की इससे पहले हिजड़ों को महिला की श्रेणी में रखा जाता था. अभी हाल ही में बंगाल के एक महिला महाविद्यालय में एक हिजड़े की प्राचार्या के पद पर नियुक्ति एक उम्मीद की किरण जगाती है. राजनीति में भी एक दो प्रतिशत ही सही परन्तु हिजड़ों का दखल होने लगा है. सर्वप्रथम राजनीति के क्षेत्र में हिसार हरियाणा की शोभा नेहरु 1995 में हुए नगर निगम के चुनाव में पार्षद चुनी गई थीं. तत्पश्चात श्री गंगानगर(राजस्थान) में भी कि हिजड़ा बसंती पार्षद बनी. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनीति में इनका खासा दखल है. मध्य प्रदेश में सन 2002 में हिजड़ा विधायक, पार्षद व महापौर थे. देश की पहली हिजड़ा विधायक शबनम मौसी शहडोल जिले के सोहागपूर विधानसभा सीट से चुनी गई थी. हाल ही में भाजपा के अपने प्रतिद्वंदी को हराकर मधु हिजड़ा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की मेयर चुनी गयी है. राजनीति में इनके प्रवेश को इस समुदाय के विकास की दिशा में सकारात्मक कदम तो माना जा सकता है परतु क्या समाज का नजरिया भी इनके प्रति बदला है? हजारों वर्षों के शोषण, भेदभाव, आंदोलनों और कानूनी सुधारों के बाद भी दलित समाज की स्थिति हमसे छुपी नहीं है ऐसे में साफ़ जाहिर है कि समाज के इस विशेष समुदाय को मुख्यधारा में मिला पाना आसान नहीं है. जगदीश पवार हिजड़ों को लेकर किये गए इस विभाजन पर अनेक चिंताए व्यक्त करते है. उनका मानना है कि इस तरह के विभाजन से समाज में भेदभाव बढ़ेगा ही कम नहीं होगा. वह बिना किसी विभाजन के हिजड़े, स्त्री एवं पुरुषों सभी को एक साथ हिल-मिल कर रहने की आवश्यकता पर बल देते हैं. साथ ही साथ पिछले दिनों 377 के तहत किये गए निर्णय को किन्नरों के सम्बन्ध में निराधार पाते हैं- ‘अदालत के हालिया आदेश के बाद सवाल यह भी उठता है कि समलैंगिकता के बारे में धारा 377 का क्या होगा, जिसमें सिर्फ विपरीतलिंगी की शादी को जायज माना गया. हिजड़े क्या आपस में शादी कर पाएंगे, जैसाकि अब तक करते आ रहे हैं? या क्या कोई सामान्य स्त्री या पुरुष इस तीसरे लिंग से वैवाहिक रिश्ता कर पाएगा?’[14] कहीं न कहीं जगदीश जी की चिंता जायज़ है क्योंकि पहले से ही धर्म, जाति एवं लिंगादि के नाम पर बंटे इस देश में यह एक और विभाजन मुश्किलें ही पैदा करेंगा.


हिजड़ों के हक में सबसे पहले जिस बात कि आवश्यकता है, वह है समाज के संवेदनशील होने की. कागज़ी सुधारों से अधिक उम्मीद करना व्यर्थ है. किन्नर या हिजड़ा शब्द को समाज में एक गाली माना जाता है जैसे कि किसी इंसान को यदि नामर्द आदि कहकर उसका अपमान करना हो तो अक्सर उसे हिजड़ा कहकर संबोधित किया जाता है. आजकल कुछ लड़के फ्रॉड हिजड़े बनकर पैसा कमा रहे हैं. हिजड़ों के नाम पर इस तरह की धोखाधड़ी करने वाले लोगों की पहचान करना अत्यंत आवश्यक हो गया है. सरकार को इस दिशा में पर्याप्त कदम उठाने चाहिए. मेडिकल जांच के आधार पर एक रेकॉर्ड बनाना चाहिए जिससे कि सरकार को इनके कल्याण के लिए कदम उठाने में आसानी हो. सरकार को जनहित में जारी विज्ञापनों की मदद से हिजड़ों के प्रति समाज में जागरूकता फैलानी चाहिए जिससे लोगों के मन में हिजड़ा समुदाय को लेकर जो पूर्वग्रह और घृणा घर कर गयी है वह दूर हो सके. अभी हाल ही में चश्में के एक बड़े ब्रांड लेंसकार्ट ने हिजड़ों की ही जुबान में उनके दर्द को बयां करता एक टीवी विज्ञापन जारी किया है . ‘आई फॉर एन आई’ नाम की इस मुहीम के तहत दो लाख हिजड़ों ने अपनी आँखें दान की हैं जोकि काबिल-ए-तारीफ़ है. अन्य उत्पादों और विज्ञापन एजेंसियों को इस से सीख लेनी चाहिए क्योंकि विज्ञापनों की पहुँच आज समाज के लगभग हर तबके तक है. ऐसे में विज्ञापन विशेषतया टीवी विज्ञापन एक प्रभावशाली साबित हो सकते हैं. हिजड़ों को एड्स आदि बीमारियों तथा सेक्स रैकेट की चपेट में आने से बचाने के लिए पर्याप्त कदम उठाए जाने चाहिए. इनके बच्चों को अन्य बच्चों के समान माहौल देना समाज की जिम्मेदारी है. मानवाधिकार आयोग तथा अन्य सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं को इस दिशा में जरूरी क़दम उठाने चाहिए. संगमा जैसी संस्थाएँ इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है, “Sangama, an organisation working with hijras, kothis and sex workers in Bangalore, has played an important role by helping them organise and fight for their rights. Its services include organizing a drop-in centre for hijras and kothis, conducting a series of public rallies and marches, using legal assistance in case of police harassment, and establishing links with other social movements [15]


हिजड़ों के जिस रंग-ढंग से हमें विरक्ति होती हैं, वह सब इसी समाज की देन है. यदि हम सही मायनों में आधुनिक होना चाहते हैं या यों कहे की हम सही मायनों में इंसान कहलाना चाहते हैं तो हमें अपनी जेंडर की जड़ हो चुकी परिभाषाओं को बदलना होगा. हर वो इंसान जो स्त्री या पुरुष जैसा नहीं है या स्त्री-पुरुष जैसा नहीं होना चाहता, उसे उसकी पहचान को खुद परिभाषित करने की स्वतंत्रता देनी होगी और साथ ही उस पहचान के साथ जीने का हौसला और हिम्मत भी.



सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-

1. See the article ‘Hijras as neither man nor woman’ by Serena Nanda, published in the book ‘Lesbian and Gay studies reader’ by Henry Avelove (etal), Routledge,19

2. Siddarth Narrain, Being A Eunuch, 14 October,2003, Frontline

3.http://timesofindia.indiatimes.com/india/First-count-of-third-gender-in-census-4-9-lakh/articleshow/35741613.cms 10:10 am 25/05/2015

4. "Transgender are the 'third gender', rules Supreme Court". NDTV. April 15, 2014

5. National Legal Services Authority ... Petitioner Versus Union of India and others ... Respondents (Supreme Court of India 15 April 2014)
For full judgment see here: http://pastebin.com/9a5g8Qmr

6. http://www.newstatesman.com/world-affairs/2008/05/hijras-Indian-changing-rights

7. http://shashikanthindi.blogspot.com/2011/04/blog-post_12.html

8.http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/04/140422_shabnam_maushi_last_mile_electionspl2014_pk

9. http://www.newstatesman.com/world-affairs/2008/05/hijras-indian-changing-rights

10. "Indian transgender activist resists molestation by police officer, gets beaten up". Gay Star News. Retrieved 2014-02-02.

11. Report on Human Rights Violations Against the Transgender Community, released in September 2003
http://www.pucl.org/Topics/Gender/2004/transgender.htm

12. http://ekhabartoday.com /news/fullnews.php?fn_id=440

13. Associated Press (9 November 2006). "Indian eunuchs help collect taxes". CNN via Internet Archive. Archived from the original on 1 December 2006.

15. Siddarth Narrain, Being A Eunuch, 14 October,2003, Frontline


कुछ महत्वपूर्ण लिंक-

· लेंस्कार्ट द्वारा हिजड़ों पर बनाया गया विज्ञापन कहने के लिए https://www.youtube.com/watch?v=Db_GMw5Dmy8 यहाँ जाए.
· सुप्रीमकोर्ट का हिजड़ों पर दिया गया पूरा निर्णय देखने के लिए
http://pastebin.com/9a5g8Qmr यहाँ जाए.





'हाशिये  की आवाज़' के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित









5 टिप्‍पणियां:

  1. kya aadmi kya aurat kya hizda jo samaj apne dono hathon main farak karna seekh gaya us samaj se is sabki baat karna bemani hai....
    bacchon ko bhi baar baar dahine haath se khna khane ke liye toka jata hai
    log left hand se paisa nahi lete
    yahi samaj pahle ek ladki ek aurat ko vaishya banata hai
    use chuna bhi paap hota hai fir kyon dev murti k liye usi se mitti lete hain
    aur rahi baat baat samaj ke isi barg ki jisse log hijda bulakar trisskar kasrte hain
    upperwale ka karam kahe ya kuch aur aulad paida ho ya bacchhon ki shaddi
    ya kushi ka koi aur mauka log inhi higdon ki duaayyein lene k liye lakhon bhi nauchhawar kar dete hain....
    tab kyon yahi higde iss samaj ke liye abhishaap nahi hote hain....
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  2. Ab mujhe pata chala ki hijara kise kahte ab tak me ye samjata tha ki hijare janmjat hote hai....Thanxx
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