गुरुवार, 28 जनवरी 2016

बीमारी की चपेट में आधी आबादी



भारत के महानगरों में रहने वाली महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड की बीमारियां आम हो रही हैं. खासकर 20 से 30 वर्ष के बीच वाली महिलाओं में थायरॉयड हार्मोन का स्तर तेजी से बढ़ रहा है. एक ताजा अध्ययन में यह खुलासा हुआ है.
मुंबई स्थित स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड की ओर से देश के चार महानगरों दिल्ली, कोलकाता, बंगलोर और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच हुए इस सर्वेक्षण से पता चला है कि युवाओं में डायबिटीज और थायरॉयड की बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं. इस दौरान 34 हजार से ज्यादा महिलाओं की जांच में 28.88 प्रतिशत में थायरॉयड का स्तर काफी ऊंचा था. इसकी वजह से महिलाओं को थकान, कमजोरी, मांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है.
जिन महिलाओं के खून के नमूने लिए गए उनमें से 48.63 प्रतिशत की उम्र 20 से 30 साल के बीच थी. इसी तरह लगभग पांच हजार नमूनों में से 53 प्रतिशत में डायबिटीज का स्तर काफी ऊंचा पाया गया. रिपोर्ट के मुताबिक, 40 से 60 साल की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों की आशंका बढ़ी है. लेकिन सबसे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैं.
वजह
कम उम्र में ही महिलाओं में इन बीमारियां के बढ़ने के बारे में स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि महानगरीय जीवन का दबाव, नौकरी और घर के बीच संतुलन बनाने की मजबूरी और शादी के बाद रहन-सहन में आने वाला बदलाव ही इसके लिए जिम्मेदार है. महानगर के एक महिला रोग विशेषज्ञ डॉ. सुदर्शन घोष दस्तीदार कहते हैं, "महानगरों में खासकर युवा वर्ग की ज्दातर महिलाएं नौकरीपेशा हैं. दफ्तर के दबाव के साथ ही उनको घर-परिवार की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है. यह दोहरा तनाव कम उम्र में ही डायबिटीज और थायरायड जैसी बीमारियों को न्योता देता है."
एक अन्य महिला रोग विशेषज्ञ डॉ. गौतम खास्तगीर कहते हैं, "महानगरीय जीवन में रोजमर्रा का तनाव ही इसकी प्रमुख वजह है. महिलाओं को दफ्तर और घर संभालने के लिए दोहरी जिंदगी जीनी पड़ रही है. इससे तनाव बढ़ता है और बीमारियां पैदा होती हैं." नौकरी करने और घर संभालने वाली ज्यादातर महिलाएं इन दोनों बीमारियों के अलावा मानसिक अवसाद, कमर दर्द, मोटापे और दिल की बीमारियों से जूझ रही हैं.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि शादी भी इस समस्या की एक प्रमुख वजह है. शादी से पहले तक तो कामकाजी युवतियों को घर संभालने पर ज्यादा ध्यान नहीं देना पड़ता. घर पर उनकी माएं या दूसरे लोग बाकी जिम्मेदारियां पूरी करते हैं. दूसरे शहरों में हॉस्टल में रहने की वजह से घर संभालने का दबाव कम रहता है. लेकिन शादी होते ही उनके जीवन में बहुत कुछ बदल जाता है. उनको अपने जीवन में रहन-सहन संबंधी बदलाव करने पड़ते हैं.
मनोवैज्ञानिक डॉ. अनुराधा सिंह कहती हैं, "शादी के बाद कामकाजी महिलाओं की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. एक बहू और पत्नी के तौर पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ भी उनके कंधों पर आ जाता है. ऐसे में नौकरी और करियर प्राथमिकता की सूची में नीचे चला जाता है." वह कहती हैं कि दफ्तर का कामकाज ठीक से नहीं निपटाने पर महिला को गैरजरूरी तनाव से जूझना पड़ता है. चक्की के दो पाटों में पिसने की वजह से वह किसी भी भूमिका से न्याय नहीं कर पाती. इससे पैदा होने वाला तनाव विभिन्न बीमारियों को न्योता देता है.
उपाय
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि महिलाओं में पांव पसारती इन खतरनाक बीमारियों पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक जागरुकता जरूरी है. पुरुषप्रधान समाज में अब भी माना जाता है कि घर का काम करने की जिम्मेदारी महिला की है. इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है. लेकिन क्या समाज की मानसिकता में जल्दी कोई बदलाव आएगा. इस सवाल का जवाब तो समाजशास्त्रियों के पास भी नहीं है. उनका कहना है कि सरकार और गैर-सरकारी संगठनों की ओर से इस बारे में जागरुकता अभियान चलाया जाना चाहिए. जिन घरों में घर के दूसरे लोग भी कामकाज में हाथ बंटाते हैं वहां महिलाओं का स्वास्थ्य अपेक्षाकृत बेहतर है.
अनुराधा सिंह कहती हैं कि ज्यादातर घरों में कामकाजी महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वह दफ्तर से आने के बाद घर का भी तमाम काम करें. उनका बोझ और तनाव कम करने के लिए पुरुषों यानी उनके पतियों को भी घर के काम-काज में हाथ बंटाना चाहिए. इससे समस्या की गंभीरता काफी हद तक कम हो सकती है.
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: महेश झा

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