प्रस्तुति- अनामिका श्रीवास्तव
in India, Khandwa, Main Slider, State 06/03/2015 0 20 Views
खंडवा -
होली के अवसर पर न जाने कितने पेड़ो को काट दिया जाता है पर कोई है जो इस
अवसर पर भी वृक्षों का सुरक्षा कवच बन कर उनकी रक्षा करता है। हो सकता है
इतना जान कर आप के मन में अनेकों चहरे सामने आरहे होंगे जो वृक्षों की
सुरक्षा का दावा करते है लेकिन यहाँ तस्वीर जरा उलटी है अब तक आप के दिमाग
में जो चहरे आए होंगे उनमे कोई भी चेहरा आदिवासी नहीं होगा पर सच में यह
आदिवासी समाज ही है जो जंगल को बचने के लिए “होली माल” का आयोजन करता है।
हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसी जगह के बारे में जहां किंवदंती के अनुसार सदियों पहले ” होली पूर्णिमा” की रात को बनाई गई होलिका अपने आप जल उठती थी।अब होलिका न तो अपने आप जलती है और न ही इसे कोई जलाता है, लेकिन होलिका बनाने का दस्तूर और परंपरा अब भी अस्तित्व में है।
रंगों के पर्व होली को लेकर हमारे समाज में कई तरह की मान्यताएं और रिवाज हैं। कहीं सिर्फ गाय के गोबर से बने उपलों की होली जलाई जाती है, तो कहीं लकड़ी की। शहरी संस्कृति का अनुसरण करने वाले ग्रामीण भी गोबर से बने उपलों की बजाय लकड़ी की होली जलाने लगे है। ऐसे में मात्र होली दहन के लिए हरे-भरे पेड़ों की बलि चढ़ाई जाती है , जो पर्यावरण हित में नहीं है।
लेकिन इन सब से हटकर खंडवा जिले के वन क्षेत्र में रहने वाले कुछ आदिवासी भी है ,जो होली दहन के लिए पेड़ नहीं काटते , बल्कि एक अनोखी परम्परा का निर्वाह करते हुए जंगल के वृक्षों से टूटी हुई शाख या टहनी को उठाकर “होलीमाल” के नाम से चयनित स्थान पर रखते है , होलीमाल नामक यह स्थान आदिवासियों के लिए पूज्य होता है। जिस तरह मंदिर में भगवान को पुष्प अर्पित किये जाते है उसी तरह “होलीमाल” को पेड़ से गिरी हुई टहनी अर्पित की जाती है , जंगल से गुजरने वाला हर शख्श , जंगल में पड़ी हुई बेकार टहनी को उठाकर “होलीमाल” को अर्पित करता है।
यह सिलसिला वर्ष भर चलता है , और इस तरह एक -एक करके होली माल को अर्पित की गई अनुपयोगी टहनी का ढेर लग जाता है।खंडवा जिले के ग्राम कमलिया के जसवंत बारे बताते है की यहां उनके पूर्वजो के समय से होली माल को पूजा जाता है , कवेश्वर के आगे कमलिया के समीप जंगलों में इसी तरह की पवित्र जगह है “होली माल” होलिमाल से जुडी एक कहानी इस क्षेत्र के प्रचलित है , ऐसी धार्मिक मान्यता है की होलिका पूनम की रात यह होली चमत्कारिक रूप से खुद ब खुद जल उठती थी , इस चमत्कार को परखने के चक्कर में एक ग्रामीण , दैवीय शक्ति से अभद्रता कर बैठा , तब से यह होली स्वमेव जलना बंद हो गई.
वन विभाग के अधिकारी सुरेश बड़ोले भी मानते है की यह पर्यावरण लिहाज से अच्छी पहल है , जिससे वे वन क्षेत्र की सुखी लकड़ी को एक स्थान पर एकत्र करते है , और धार्मिक जीवन और परम्परा के नाम पर पर्यावरण को बचाने में लगे है , ऐसी परम्परा को बढ़ावा देना चाहिए , जिससे वन को बचाया जा सके।
खंडवा के पर्यावरण प्रेमी युवाओं को यह अनोखी होली अपनी और खीच ला रही है , यही बजह है की शहर से चालीस किलोमीटर दूर सघन जंगल में विवेक भुजबल जैसे युवा उत्सुकतावश होलीमाल देखने पहुँच रहे है।
इस तरह होलीमाल के जरिये धार्मिक परम्परा का निर्वाह भी हो जाता है और होली के लिए लकड़ी की जुगाड़ भी। वह भी पेड़ो को नुक्सान पहुंचाए बगैर। आदिवासी समाज की यह परम्परा ना सिर्फ पर्यावरण के हित में है बल्कि आधुनिक कहे जाने वाले सभ्य समाज को एक दिशा भी प्रदान करती है।
रिपोर्ट :- अनंत माहेश्वरी
हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसी जगह के बारे में जहां किंवदंती के अनुसार सदियों पहले ” होली पूर्णिमा” की रात को बनाई गई होलिका अपने आप जल उठती थी।अब होलिका न तो अपने आप जलती है और न ही इसे कोई जलाता है, लेकिन होलिका बनाने का दस्तूर और परंपरा अब भी अस्तित्व में है।
रंगों के पर्व होली को लेकर हमारे समाज में कई तरह की मान्यताएं और रिवाज हैं। कहीं सिर्फ गाय के गोबर से बने उपलों की होली जलाई जाती है, तो कहीं लकड़ी की। शहरी संस्कृति का अनुसरण करने वाले ग्रामीण भी गोबर से बने उपलों की बजाय लकड़ी की होली जलाने लगे है। ऐसे में मात्र होली दहन के लिए हरे-भरे पेड़ों की बलि चढ़ाई जाती है , जो पर्यावरण हित में नहीं है।
लेकिन इन सब से हटकर खंडवा जिले के वन क्षेत्र में रहने वाले कुछ आदिवासी भी है ,जो होली दहन के लिए पेड़ नहीं काटते , बल्कि एक अनोखी परम्परा का निर्वाह करते हुए जंगल के वृक्षों से टूटी हुई शाख या टहनी को उठाकर “होलीमाल” के नाम से चयनित स्थान पर रखते है , होलीमाल नामक यह स्थान आदिवासियों के लिए पूज्य होता है। जिस तरह मंदिर में भगवान को पुष्प अर्पित किये जाते है उसी तरह “होलीमाल” को पेड़ से गिरी हुई टहनी अर्पित की जाती है , जंगल से गुजरने वाला हर शख्श , जंगल में पड़ी हुई बेकार टहनी को उठाकर “होलीमाल” को अर्पित करता है।
यह सिलसिला वर्ष भर चलता है , और इस तरह एक -एक करके होली माल को अर्पित की गई अनुपयोगी टहनी का ढेर लग जाता है।खंडवा जिले के ग्राम कमलिया के जसवंत बारे बताते है की यहां उनके पूर्वजो के समय से होली माल को पूजा जाता है , कवेश्वर के आगे कमलिया के समीप जंगलों में इसी तरह की पवित्र जगह है “होली माल” होलिमाल से जुडी एक कहानी इस क्षेत्र के प्रचलित है , ऐसी धार्मिक मान्यता है की होलिका पूनम की रात यह होली चमत्कारिक रूप से खुद ब खुद जल उठती थी , इस चमत्कार को परखने के चक्कर में एक ग्रामीण , दैवीय शक्ति से अभद्रता कर बैठा , तब से यह होली स्वमेव जलना बंद हो गई.
वन विभाग के अधिकारी सुरेश बड़ोले भी मानते है की यह पर्यावरण लिहाज से अच्छी पहल है , जिससे वे वन क्षेत्र की सुखी लकड़ी को एक स्थान पर एकत्र करते है , और धार्मिक जीवन और परम्परा के नाम पर पर्यावरण को बचाने में लगे है , ऐसी परम्परा को बढ़ावा देना चाहिए , जिससे वन को बचाया जा सके।
खंडवा के पर्यावरण प्रेमी युवाओं को यह अनोखी होली अपनी और खीच ला रही है , यही बजह है की शहर से चालीस किलोमीटर दूर सघन जंगल में विवेक भुजबल जैसे युवा उत्सुकतावश होलीमाल देखने पहुँच रहे है।
इस तरह होलीमाल के जरिये धार्मिक परम्परा का निर्वाह भी हो जाता है और होली के लिए लकड़ी की जुगाड़ भी। वह भी पेड़ो को नुक्सान पहुंचाए बगैर। आदिवासी समाज की यह परम्परा ना सिर्फ पर्यावरण के हित में है बल्कि आधुनिक कहे जाने वाले सभ्य समाज को एक दिशा भी प्रदान करती है।
रिपोर्ट :- अनंत माहेश्वरी