रविवार, 12 जुलाई 2015

प्र्यावरण संरक्षण का घराडी प्रथा



धराड़ी
Author of this article is प्रभुनारायण मीणा
प्रस्तुति-  अनामिका श्रीवास्तव


यह निर्विवाद है की इस संसार में मानव के पूर्व जीव-जंतु पेड़ पौधों का आविर्भाव हुवा | आरंभिक आदिवासी मानव ने विभिन्न जीव -जंतुओं एवं पेड़ -पौधों (प्रकृति ) को अपना प्रतिक बनाया | प्रकृति के प्रति आदिवासियों का जो दृष्टिकोण है वह भौतिक है , सभ्य कहे जाने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न है |प्रकृति से उनका जो रिश्ता है वह भावात्मक है |माँ - बेटे जैसा है | वे प्रकृति को अंपनी सम्पत्ति नहीं मानते ,अपनी पालक मानते हैं |अपनी जमीन और अपने जंगलों पर वे अपना आधिपत्य नहीं मानते, वे स्वयं को उसका अंश -वंश मानते हैं |इस कारण प्रकृति पर किसी दुसरे का अधिपत्य भी उन्हें स्वीकार नहीं होता | उनकी यह मौलिक व्यवस्था आदिम मौलिक व्यवस्था है जो ऐतिहासिक है |यह ऐतिहासिक मौलिकता इस बात का प्रमाण होती है की वे इसी धरती -प्रकृति के बेटे है जहाँ वे रहते है |
  जो पेड़ -पौधे एवं जीव जंतु उनके जीवन पालन में सहायक व् उपयोगी रहे उन्हें संरक्षक और अपना आराध्य मान अपने परिवार के अंग-अंश-वंश के रूप में पूजा तथा सदेव उसके प्रति श्रद्धा रखी |ये प्रथाएं आदिवासी टोतामवादी संस्कृति की पहचान है, सिन्धुघाटी सभ्यता काल से पूर्व,सिन्धुघाटी सभ्यता के समय एवं वैदिक काल में भी ये प्रथाएं मौजूद थी मीणा भी एक प्राचीन आदिवासी कबीला से है | ये भी तोतमवादी रहे है,ये अपनी तोतमवादी प्रथाओं में प्रकृति (जीव -जंतु -पौधे )की पूजा कर उसका संरक्षण करते है |ये सदियों से पेड़-पौधों को अपना कुल वृक्ष एवं अपना आराध्य का रूप मानकर पूजा अर्चना करते आ रहे है |मीणा आदिवासी कबीलों की अनोंखी आदिम परम्पराओं में एक है - धराड़ी प्रथा -------

Contents

धराड़ी प्रथा का अर्थ व इतिहास :--


धराड़ी

धराड़ी का शाब्दिक अर्थ धरा +आड़ी अर्थात धरा(पृथ्वी) की रक्षा करने वाली होता हैं | प्रकृति (पेड़ -पौधे )जो आदिम काल से आदिम कबीलों की पालनहार रही है | उसके साथ आदिवासी कबीलों का नाता माँ बेटा का रहा है |वे प्रकृति में अपनी मात्रदेवी का निवास मानकर उसे आराध्य एवं अपने काबिले का अंश -वंश,संरक्षक व परिवार का अभिन्न अंग मानकर पूजते है |हर शुभ कार्य में साथ रखते है,प्रकृति का आदिवासियों से यह नाता " धराड़ी प्रथा कहलाती है |संक्षिप्त में पेड़ -पौधों (प्रकृति ) के प्रति आदिवासियों का मानवीय,पारिवारिक ,मित्रवत व्यवहार और उसके प्रति सम्मान ही " धराड़ी प्रथा है |
मात्र या धराड़ी देवियो का संबंध दुनिया की सृष्ठा या उत्पादन करने वाली देवी के साथ है जिसे हम भूमाता भी कहा सकते है. धराड़ी या मातृ देवी की उपासना सर्वाधिक प्राचीन है अन्य देवताओ की उपासना बाद मे प्रारंभ हुई मातृ देवी (धराड़ी ) शुद्ध रूप मे सृष्ठा के रूप मे पूजी गई .इसका प्रारंभ संभवत तभी हो गया था जब मानव शिकारी की स्थिति मे था |न शास्त्री वा अन्या पुरातत्व शास्त्रियो के अनुसार ऐसी मूर्तिया लगातार सिंध से नील नदी तक मिली है (sastri kn the new light on the indus civilizatoin vol-1 p.46) सिंधु घाटी के लगभग सभी स्थानो से खुदाई मे मातृ देवी की मूर्तिया मिली है |अक्सर यह मूर्तिया खड़ी स्थिति तथा गले मे छोड़ी विशाल माला पहने होती है |बदन पर मृगच्छला गले मे हार तथा सिर पर पंख की शक्ल का अथवा प्याले जैसा शिरोवस्त्र पहने होती है ये नारी की मूर्तिया अक्सर भग्नावशेष अवस्था मिलती है मगर यह विचार बनाने का बहुत मजबूत आधार है की मूर्तिया महान मातृ देवी की है जिसकी पूजा प्राचीन कल से वारिक्ष ओर देवी के रूप मे होती आ रही है | मारतिमार व्हीलर मूर्तियो की बनावट पर प्रकाश डालते हुए लिखते है -मातृ देवी की मूर्तियो के सृजन मे कोई खास कलाकारी प्रतीत नही होती अक्सर मिट्टी का एक टुकड़ा कमर पर या छाती से बच्चे के प्रतीक चिन्ह के रूप मे लगा होता है जो उसके सृष्ठा या जन्मदात्री होने का प्रतीक है तथा उभरे हुए पेट से उसके गर्भवती होने का अहसास होता है मगर कही भी जननेन्द्रियां के प्रदर्शन पर ज़ोर नही दिया गया जैसा की मातृ देवी की उपासना मे अक्सर दिया जाता है मगर मोहनजोदड़ो की एक मुहर पर बनाई गई मातृ देवी के जाननेंद्रिया या पेट से पौधा प्रकट हुआ दिखाई पड़ता है आज हम निस्कर्ष मे कह सकते है की कुलदेवी वा धराड़ी मातृ देवी का एकाकार रूप है आज भी भारत के आदिवासियो के हर गाँव वा घर की रक्षक देवी संतान उत्पत्ति की अधीष्तरी तथा मानव की हर आवश्यकता की पूरक है वास्तव मे अन्य देवताओ के बजाए मातृ देवी अपने उपासक के बहुत निकट रहने वाली महान देवी है जिसका वास प्रकृति मे है जान मार्शल का विचार है भले ही मातृ देवी की पूजा विशाल क्षेत्र मे होती थी मगर भारत मे इसकी मान्यता प्रगाढ़ होकर - सृष्टि की उत्पादन शक्ति प्रकृति के रूप मे हुई जो जिसे आर्यो ने भी अपनाया |आदिवासी ईश्वर के स्थान पर मत्री देवी को सर्वशक्तिमान और सृष्ठ मानते थे जो अब तक जरी है आदिवासी या असुर मत्री शक्ति या माया को जो बाद के कल में यक्षी,मात्र देवी ,भूमाता,हरित माता ,धरादी माता जानी गईआदिवासी जानो का sambamdh ek hi khun व धंधो से jude गनसंघो से था sindhughati आदिवासी गनसंघो का samrajya था jisme मीन gandhari log pramukh थे जिन्हें द्रविड़ व तमिल भाषा में मीन या मीनावर कहा गया इन मीन लोगो को आर्य आक्र्मंकरियो ने मत्स्य नाम दिया जिसने कई गानों व जनपदों को जन्म दिया शिवि, मालव, सुद्रक, मत्स्य, नाग,और मोर्यो | -प्राचीन भारत के शासक नाग उनकी उत्पत्ति ओर इतिहास-डा. नवल नियोगी विदेशी जातियो के आक्रमण के कारण इन सिंधु निवासियो का एक धड़ा तो उनका गुलाम बन गया ओर दूसरा पलायन कर अरावली,विंदयाचल या अन्य पर्वत स्रंखलाओं की कंदराओं मे जा बसा जहां से अपनी मूल संस्कृति को बचाते हुए गुररिल्ला युद्ध जारी रखा |  
मीणा आदिवासी इसको प्राचीन काल से मानता आ रहा है |नविन ऐतिहासिक शोधों से विदित हो चूका है, इनका अस्तित्व सिन्धुघाटी -हड़पा सभ्यता से पूर्व का है |तब से ही धराड़ी प्रथा इन कबीलों का अंग रही है |मीणा आदिवासी कबीलों में ५२०० गोत्र,१२ पल और ३२ तड पाई जाती है, उनके जितने गोत्र है उसके अनुसार ही उनकी धराड़ी है |ऐतिहासिक तथ्यों के आंकलानुसार यह प्रकट होता है की मीणा आदिवासी इस धरा का मूलनिवासी है |


फादर हैरास ने सिन्धुघाटी लिपी को प्रोटो द्रविड़ियन माना है उनके अनुसार भारत का नाम मौहनजोदड़ो के समय सिद था इस सिद देश के चार भाग थे जिनमें एक मीनाद अर्थात मत्स्य देश था । फाद हैरास ने एक मोहर पर मीना जाती का नाम भी खोज निकाला । उनके अनुसार मोहनजोदड़ो में राजतंत्र व्यवस्था थी । एक राजा का नाम " मीना " भी मुहर पर फादर हैरास द्वारा पढ़ा गया ( डॉ॰ करमाकर पेज न॰ 6) अतः कहा जा सकता है कि मीना जाति का इतिहास बहुत प्राचीन है इस विशाल समुदाय ने देश के विशाल क्षेत्र पर शासन किया और इससे कई जातियो की उत्पत्ती हुई और इस समुदाय के अनेक टूकड़े हुए जो किसी न किसी नाम से आज भी मौजुद है ।डॉ॰ करमाकर, डॉ॰ सेठना और हेरास ने मीणाओ को सिन्धुघाटी से भी प्रचीन सुमेरिया सभ्या के जन्मदाता मोहनजोदड़ो हड़प्पा के शासक और विश्व में भारतीय सभ्यता के प्रचारक व शासक माना है|
 
फादर हेरास ने सैन्द्धव मुहरों में प्राचीन तमिल के आधार पर अध्ययन कर बताया की मछली चिन्ह का मुहरो में अर्थ mina स्पष्ट ----- पढ़ा जा सकता है .....minan one of the minas.......minanir the minas......सिन्धु लिपि .....

Figure-1 An mand vakjou jyda min adu an which means the lord of the water jar and of the fish is weakening and strengthe ning of the lord....................

Fugure-3 The cows in velur of harvest afficatet three bilavas of the two southern know shepherds of the fish- eyes of mina a minas who are in the high sum....

.Fighre-2 guardions chie of aliru who assembles the herds........  
फादर हैरास ने सिन्धुघाटी लिपी को प्रोटो द्रविड़ियन माना है उनके अनुसार भारत का नाम मौहनजोदड़ो के समय सिद था इस सिद देश के चार भाग थे जिनमें एक मीनाद अर्थात मत्स्य देश था । फाद हैरास ने एक मोहर पर मीना जाती का नाम भी खोज निकाला । उनके अनुसार मोहनजोदड़ो में राजतंत्र व्यवस्था थी । एक राजा का नाम " मीना " भी मुहर पर फादर हैरास द्वारा पढ़ा गया ( डॉ॰ करमाकर पेज न॰ 6) अतः कहा जा सकता है कि मीना जाति का इतिहास बहुत प्राचीन है इस विशाल समुदाय ने देश के विशाल क्षेत्र पर शासन किया और इससे कई जातियो की उत्पत्ती हुई और इस समुदाय के अनेक टूकड़े हुए जो किसी न किसी नाम से आज भी मौजुद है ।डॉ॰ करमाकर, डॉ॰ सेठना और हेरास ने मीणाओ को सिन्धुघाटी से भी प्रचीन सुमेरिया सभ्या के जन्मदाता मोहनजोदड़ो हड़प्पा के शासक और विश्व में भारतीय सभ्यता के प्रचारक व शासक माना है|

मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली मोहर पर देवी का चित्र जिसके पेट से वृक्ष को निकलता हुवा दर्शाया गया है तथा ऐसी लाखो की संख्या में मिली विभिन्न मूर्तियां इस बात का अकाट्य प्रमाण है की मातृदेवी (कुलदेवी) एवं प्रकृति(धराड़ी ) एकाकार थी तह धराड़ी प्रथा का ही ऐतिहासिक प्रमाण है | इस प्रथा के कुछ विशेष कार्यकर्म भी है जिनका उल्लेख करना भी उचित होगा साथ में धराड़ी का लोक प्रचलित मीणा महिला लोक गीत भी उल्लेखनीय है

धराड़ी

वंश बधावन माता (लोकगीत )

माता देर नगारा चढ़ गई ,
माता झालर के झंकार |
माता धराड़ी का अगड़ घडास्य ,
माता पाट (पताड़ी )पुवास्य |
पाटडी रखता हिवड़ा के माये
माता देर नगारा चढ़ गई ,
माता झालर के झंकार |

माता ये कुण आवे थारे जातरी ,
कुण लावे धोवाद धात (भोग )
माता रामफूल , प्रभु आवे थारे जात्री
रेवड़ जी लगावे धुवद धोत

माता देर नगारा चढ़ गई ,
माता झालर के झंकार |
माता ये कुण आवे थारे जातरी ,
कुण लावे धोवाद धात (भोग )
माता भरत ,विनोद ,आवे थारे जात्री
रामफूल जी लगावे धुवद धोत
माता देर नगारा चढ़ गई ,
माता झालर के झंकार |

(इस प्रकार परिवार के सदस्यों का बारी बारी से नाम लेकर गीत को आगे बढाया जाता है )

धराड़ी माता(कुलदेवी ) का लोकगीत

माता रानी के भवन में ,
माँ म्हारी नारला को बिडालो
माता जी ने ध्याओ जी माता जी ने मनाओ जी

ज्याके तो मन म्हारी धराड़ी,
माता जी रम रही खेल रही दुवारे
माता जी नै जो ध्यावे
वो घणो सुख चैन पावे जी
ज्याके तो मन म्हारी धारादी माता जी,
राम रही, खेल रही दुवारे

माता वंश बढ़वान नै ध्यावे जी
वो बहुत सुख चैन पावे जी
माता ने ध्यावे प्रभु ,रेवड़ जी
ज्याके तो मन म्हारी धराड़ी ,
म्हारी वंश बधावन माता जी
रम रहे वो खेल रही दुवारे

दीपा भी आवे वाकी साथन भी आवे
जात जडूला ,गोद्या में ल्यावे
म्हारी धराड़ी माता,
म्हारी वंश बधावन माता

जियाँ जियाँ बढे धरकत थारा माता,
ऐ स्याही बढे म्हाको सग्लों वंश ऐ माता
माता धराड़ी,कुलदेवी ,वंश बधावन ने ध्यावे जी
वो बहुत सुख चैन पावे जी

(इसी प्रकार परिवार के सदस्यों का बारी बारी से नाम लेकर गीत को आगे बढाया जाता है )

मीणासमाज की कुल देवियां.

आदिम कल से चली आ रही प्रथानुसार प्राचीन कबीलों दुवारा गोत्रनुसार कुलदेवी:---

प्रमुख गोत्रो के धराड़ी कुल देवी
[आदिवासीमीणा गोत्र] [कुलदेवी] [स्थान]
बैफलावत पालीमाता पीठ malwas,नांगल (लालसोट) दौसा
महर घटवासन माता गुढा चन्द्रजी तह॰ टोडाभीभ करौली
जगरवाल अरहाई माता कुल देवता "नासीर"
टाटू बरवासन सपोटरा करौली
चांदा बाण माता(आसावरी) खोहगंग (खो नागोरियान झालाना पहाड़ी) जयपुर
माणतवाल बागड़ी जीणमाता(जयंति देवी) हर्ष पहाड़ी (रेवासा) गौरेया सीकर
बारवाल(बारवाड़) चौथ माता चौथ का बरवाड़ा सवाई माधोपुर
मरमट दुगाय(दुर्गामाता) गुढ़ा बरथल तह॰ निवाई जि॰ टौंक । मलारना चौड़ बौली सवाई माधोपुर में भी है ।
जोरवाल ब्रह्माणी माता (प्याली माता),vistada mata आमेर पहाड़ी जयपुर,पल्लु(हनुमान गढ़), मण्डावरी दौसा ।
ब्याडवाल,गोमलाडू बांकी माता माताशुला रायसर तह॰ जमुवारामगढ़ जयपुर
नायी,ककरोड़ा नारायणी माता बरवा की पहाड़ी नारायणी धाम तह॰ राजगढ़ अलवर
ध्यावणा ध्यावण माता देवरो, तह॰ बस्सी, जयपुर
सुसावत अम्बा माता आमेर पहाड़ी जयपुर
बैन्दाड़ा आशोजाई माता (चंड माता) चतरपुरा तह॰ सांभरलेक जयपुर
खोड़ा सेवड माता चिताणु , तहसील आमेर, जिला- जयपुर
उषारा बीजासण माता बीजासण पहाड़ी तह॰ इन्द्रगढ़ जिला बुंदी
चरणावत कैला माता कैला पहाड़ी तह॰ सपोटरा करौली । अब कैला माता को टाटू आदि अन्य गोत्र भी मानने लग गये ।
जेफ़ बधासन माता अलवर
शहर,सहरिया गुमानो माता गुमानो माता
मांदड़ खुर्रा माता गांव खुर्रा मण्डावरी लालसोट दौसा
डोबवाल खलकाई माता गांव डोब तह॰ लालसोट जि॰ दौसा ।
कटारा धराल माता गांव निठारा की पाल त॰ सराड़ा जि॰ उदयपुर ।
पारगी,नटरावत,टौरा,मन्दलावत,चरणावत काली माता (कालका) निठाऊवा (बांसवाड़ा), कालीसिंध के किनारे (पीपलदा), दिगोद कोटा ।
हरमोर(कलासुआ) जावर माता जावर माइन्स उदयपुर ।
घुणावत लह्कोड़ माता गांव पीलोदा तह॰ गंगापुर सीटी जि॰ सवाई माधोपुर ।
गोहली,गोल्ली चामुंडा देवी गाँव - टिगरिया ..तह बामनवास सवाई माधोपुर
मेवाल मैणसी(आसावरी) कूकस खोरा मेवाल दिल्ली रोड़ आमेर जयपुर । पहले अनासन देवी को भी पूजा था ।
करेलवाल ईट माता बुढ़ादित दिगोद कोटा ।
कोटवार,कोटवाल,कोटवाड़ मोरा माता(चन्द्रगुप्त मौर्य की मा का नाम मोरा था) रायसाना गढ़मोरा करौली , गांव घुमणा के घुणावतो ने भी मोरा माता का मंदिर बना रखा है वैसे उनकी कुलदेवी लहकोड़ माता है । गांव बिलौना कला लालसोट रोड़ और कमालपुरा, गढ़मोरा के पास इस गोत्र के बड़े गांव है ।
सीहरा(सीरा) दांत माता जमवारामगढ़
मण्डल,माडिया]] जोगनिया माता मण्डलगड, भीलवाडा
जारेड़ा बीरटाई माता ??
मोटीस टाड माता ??
घुणावत,कोटवार,(कोटवाल,कोटवाड़) मोरा माता गांव घुमणा और रायसाना गढ़मोरा जि॰ करौलीमाता स्थान :- गांव घुमणा और रायसाना गढ़मोरा जि॰ करौली । घुणावत बाद में लहकोड़ माता गांव पीलेदा त॰ गंगापुर सीटी सवाई माधोपुर को भी मानने लग गये ।

प्रमुख गोत्रो के धराड़ी कुल वृक्ष:-

  आदिम कल से चली आ रही धराड़ी प्रथानुसार प्राचीन कबीलों दुवारा गोत्रनुसार धराड़ी वृक्ष निर्धारित किये थे |जिसका पालन आदिवासी मीणा कबीला अब तक करता आ रहा है |वृध्द जनों से पूछताछ के आधार पर कुछ आदिवासी मीणा कुलों के धराड़ी वृक्षों की जानकारी प्राप्त हुई है, जो पर्यावरण एवं समाज हित में आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है :--
प्रमुख गोत्रो के धराड़ी कुल वृक्ष
[आदिवासीमीणा गोत्र] [निर्धारित कुल वृक्ष] [आदिवासीमीणा गोत्र] [निर्धारित कुल वृक्ष]
बैफ़लावत,महर,झरवाल,ध्यावना,सुलानिया,खोड़ा,टाटू,बड़गोती जाल सिहरा,सेहरा,सिरा सीमल
बैनाडा,चीता(कुदाल्या),मानतवाल,वनवाल,छान्दवाल पीपल सुसावत(खरगोश काशिकार नहीं करते ),सत्तावन खेजड़ा
गोमलाडू संतोष आमल्या आम
नीमवाल नीम पुन्जलोत,बागड़ी,बिल (भील ) बिल्व पत्र
करेलवाल,ढूंचा/दमाच्या आशापाला (अशोक) ब्याडवाल केमर
मरमट झाऊ डोबवाल सरस
मीमरोट कदम बासंवाल,मंद्लावत बड़
जिन्देडा],चांदा केम/गांदल देवाना/देवंदा/देवन्द केर
कटारा,पारगी,हरमोर,खराड़ी,डामोर,बांसखोवा बांस मोरडा/मोर,मौर्य,ताजी मोर (पक्षी)

धराड़ी प्रथा व पर्यावरण संरक्षण

प्राचीन कल में जिस क्षेत्र में जो कबीला रहता था, उस क्षेत्र में उसकी धराड़ी (वृक्ष) प्रचुर मात्रा में पाए जाने के कारण इलाका हरा भरा रहता था | धराड़ी के रूप में को प्रत्येक परिवार को वृक्ष लगाना अनिवार्य था |जिससे उस कबीले के इलाके में वृक्षों की सघनता पाई जाती थी |हरा भरा पर्यावरण व वृक्षों की सघनता से शुद्धवातावरण रहता और खूब बारिश होती थी |     आदिवासिओं की इस प्रथा से प्रेरणा लेकर आक्रान्ताओं के धर्म में भी कई वृक्षों को पवित्र मानने की प्रथा चल पड़ी, जो अभी भी जारी है तथा कई आर्य एवं आर्यातर जातियों ने भी इस प्रथा को अपनाया |पीपल वृक्ष की महत्ता आदिवासियों की इस कहावत से प्रकट होती है :-
पीपल काट हल घड़े,बेटी बेच कर खाय | सींव फोड़ खेती करे,वह जड़मूल सुन जाय ||   अतः यह प्रथा पर्यावरण संरक्षण की अनूठी मिसाल है |मीणा आदिम कबीलों की यह परम्परा आज भी पर्यावरण संरक्षण में प्रासंगिक व उपयोगी है, इसके पालन से पर्यावरण को बचाया जा सकता है |हम इसको भूलते जा रहे है, जिसके दुस्परिनाम सामने आ रहे है |आदिवासी संस्कृति समृद्ध परियावरण से सम्बद्ध रही है,इस संस्कृति के प्रभाव से ही तो भारतीय दर्शन अर्थात हमारे देश का जीवन दर्शन पर्यावरण रक्षा का दर्शन रहा है |प्राकृतिक संसाधनों में जल,जंगल,और जमीन तीनों ही प्रमुख तत्व है,इन संसाधनों से मानव जो कुछ प्राप्त करता रहा, उसकी क्षति पूर्ति का प्रबंध भी सामानांतर रूप से होता था | भारतीय दर्शन के अनुसार कृतग्य भाव से दोहन और पुर्नभरण की नीति के अनुसार धारित आर्थिक विकास हो तभी भारत का कल्याण होगा और परिस्थितिकी एवं पर्यावरण संरक्षण हो सकेगा |
आज से हजारों साल पूर्व आदिवासियों ने धराड़ी प्रथा के रूप में पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव किया था |आवश्यकता इस बात की है की आदिवासी ही नहीं, सब लोग प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करे,निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसको नुकशान न पहुंचाए |हमारे देश में प्रगति का अर्थ प्रकृति का विनाश माना जाने लगा है |हमारे आदिवासी कबीले भी अपनी धराड़ी प्रथा को भूलकर इस मुहीम में शामिल हो रहे है |अपनी आदिम परम्परा को जीवित रखना होगा विकाश की अंधी दौड़ को छोड़कर पर्यावरण को बचाना होगा |अपनी अच्छी विरासत को भुलाये बिना और प्रकृति के सौन्दर्य,ताजगी और शुद्धता को नष्ट किये बिना ही विकास करना होगा |

धराड़ीप्रथा की पर्यावरण संरक्षण में प्रासंगिकता :-

धराड़ी प्रथा (प्रकृति प्रेम ) जीतनी उपयोगी पूर्व में थी उतनी ही आज भी हैं |इस आदिम परम्परा को पुर्नजीवित कर पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है |आदिवासी जंगल के वासी रहे है |उनको पर्यावरण संरक्षण करना आता है |यह उनकी परम्परा उनके खून में निहित हैं |किसी आदिवासी को किसी आवश्यकता के लिए वृक्ष काटना है, तो उसको जानकारी है, की किस तरह से वृक्ष को कहाँ से काटा जाये,ताकि पुनः बढ सके,उसकी बढोत्तरी रुके नहीं या अवरुद्ध न हो, आदिवासियों पर यह आरोप लगाकर, की जंगल और जंगली जानवरों को नष्ट करते हैं जंगलों से बेदखल किया जा रहा हैं |यह उनके साथ अन्याय है, क्योंकि आदिवासी ही जंगल व जंगली जानवरों का असली संरक्षक है |   उसकी धराड़ी प्रथा को उचित सम्मान देकर अपनाया जाना चाहिय, साथ ही आदिवासी मीणा कबीलों द्वारा भी इस परम्परा के प्रति अपने लोगों में भी जागरूकता लानी होगी |हर गोत्र (कबीला )को अपने परिवार का हर सुभ कार्य का सुभारम्भ कुल वृक्ष (धराड़ी) को लगाकर ही करें,जिससे वृक्ष रोपण एक सामाजिक परम्परा बनी रहेगी|यह प्रथा समाज एवं धर्म से जुडी होने के कारण हर कोई इसके उलंघन का साहस नहीं जुटा पायेगा और पर्यावरण संरक्षण का कार्य आसानी से किया जा सकेगा,और हमारी अनूठी परम्परा भी बची रहेगी |इससे अन्य समाजों को भी प्ररेणा मिलेगी और हम सब मिलकर भारत को पुनः हरा भरा कर पाएंगे |

जागो आदिवासी मित्रों, जागो !
देश की प्रगति में,
हाथ बटाएँ,
अपनी परम्परा एवं
संस्कृति को बचाएं |
  धराड़ी रूप में वृक्ष,
लगाकर धरा सजाएँ,
समृद्ध संस्कृति एवं देश धन,
प्रकृति को बचाएं |
मात्र शक्ति नारी रूप
का मान बढ़ाये
हो न अपमान ,शोषण
ऐसा समाज बनाये

  आओ एक-एक पेड़ लगाकर,
इस धरा को स्वर्ग बनायें,
स्वार्थ छोड़कर, रुख मोड़कर,
पर्यावरण रक्षण रूपी,
धराड़ी प्रथा पुनः अपनाएं |

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