रविवार, 12 जुलाई 2015

दुल्हा मेला

  



प्रस्तुति- हुमरा असद  PAPER

मिथिला का सांस्कृतिक मेलाः सौराठसभा: डा. पुष्पज राय “चमन”

विवाह पुरुष और प्रकृति का मिलनोत्सव है । विवाह पुरुष और नारी को परिणय सूत्र में    बांधकर सृजन और आनन्द की दिशा मे अग्रसित करने वाली एक सामाजिक संस्था है । पारिवारिक स्थिति , सामाजिक प्रतिष्ठा और कुल, मूल, शील, सौन्दर्य के आधार पर दो परिवार के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया जाता है । प्रत्येक समाज मे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने का विधि–विधान पृथक–पृथक होता है । इसी तरह मिथिला में विवाह का अनेक रोचक एवं पृथक प्रथा विद्यमान है ।
मिथिलाञ्चल बिहार के मधुबनी शहर से पांच कि.मी. पश्चिम उत्तर में अवस्थित सौराठ नामक गांव मे प्रत्येक वर्ष दुल्हा का भव्य मेला आयोजन किया जाता है । इस मेला में वर पक्ष वाला अपने लड़के को परम्परागत रूप में सजाकर प्रस्तुत करता है । कन्या पक्षवाले मेला में उपस्थित दलाल के माध्यम से अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप दुल्हा खरीद कर अपनी पुत्री का विवाह करते हंै । इस मेला का आयोजन प्रत्येक साल सौराठ नामक गांव मे किया जाता है इसीलिए इसे सौराठ सभा के नाम से सम्वोधित किया जाता है । saurath mela
सौराठ सभा का आयोजन प्रत्येक साल जेठ आषाढ माह में सौराठ गांव स्थित फुलवारी अर्थात सभा–गाछी में किया जाता है । ३० एकड़ के भू–खंड के इस फूलवारी के प्रांङ्गण में एक कलात्मक ऐतिहासिक सोमेश्वरनाथ महादेव का मन्दिर है और मंदिर के उतर–पूर्व कोने में विशाल घाट वाला एक सर है जिसे ‘लगियहिर पोखर’ कहा जाता है । किवंदन्ती अनुसार पहले लोग चुल्लु मे पानी लेकर लधुशंका किया करते थे । मेला मे दुल्हा धोती , चंदन , लाल पाग, काजल आदि लगाकर परम्परागत वेश–भूषा मे सजधज कर अपने अविभावक के साथ दरी पर बैठा रहता है । कन्या पक्ष वाले को दुल्हा पसन्द होने पर अभिभावक के साथ बातचीत प्रारम्भ करता है ।
सौराठ सभा का प्रारम्भ १४ वी सदी में कर्णटवंशीय राजा महाराज हरिसिंह देव के द्वारा किया गया माना जाता है । हरिसिंह के दरबार मे नियमित रूप में शास्त्रार्थ हुआ करता था । जिसमें विजय प्राप्त करने वालों को पुरस्कृत किया जाता था । वर्ष १३२६ ई. मे हरिसिंह देव द्वारा कुमार मैथिल ब्राह्मण युवकों के बीच शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया । वेद–वेदान्त, योग, सांख्य, न्याय आदि विषय पर बहुत दिन तक शास्त्रार्थ चलता रहा । हरिसिंह देव शास्त्रार्थ मे सहभागी विद्धान युवकों की विद्वता देख अत्यधिक प्रभावित हुए और चुँकि शास्त्रार्थ मे सहभागी सभी युवक कुमार ही थें इसलिए सभी को एक–एक सुन्दर कन्या पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया गया । उक्त घटना के पश्चात प्रत्येक वर्ष युवकों के बीच शास्त्रार्थ का आयोजन किये जाने लगा । उक्त शास्त्रार्थ मे कन्या पक्ष वाले योग्य बर का चुनाव करते थें । आधुनिक फैशनपरस्त संस्कृति की चकाचौंध के कारण पुरातन गरिमामय सांस्कृतिक मुल्य मान्यता के ह्रास का प्रभाव से यह अछूता नहीं रह सका और अभी शास्त्रार्थ की प्रथा विलुप्त हो चुकी है । सभा मे वर पक्ष और कन्या पक्ष के बीच सम्पूर्ण बातचीत तय होने के पश्चात विवाह के लिए अनुमति सभा मे उपस्थित पंजीकार से लेना पड़ता है । पंजी मे दोनो पक्ष के बीच सात पुश्त तक कोई खून का सम्बन्ध नही ठहरने के पश्चात पंजीकार द्वारा विवाह के लिए अनुमति दी जाती है । इसके बाद वर और कन्या का जन्म कुंडली मिलाया जाता है । सब कुछ मिलने के पश्चात पंजीकार द्वारा सिद्धान्त प्रथा जारी किया जाता है । पंजीकार अपनी सहमति वरगद के एक सूखे पत्ते पर लिखकर देते हैं ।
पंजीकाराें के पास पंजी मे देश–विदेश मे बसे सम्पूर्ण मैथिल ब्राहम्ण परिवार की वंशावली होती है । इस मे पीढ़ी–दर–पीढ़ी कुल, मूल और गोत्र का विवरण मिलता है । पहले यह भोजपत्र पर लिखा जाता था फिर तामपत्र और अब कागज पर इसका सम्पूर्ण विवरण दर्ज किया जाता है । समान गोत्र मे विवाह वंचित है । ब्राहम्णाें के कुल १२ गोत्र होते हंै । पंजीकारों के पास ८४ पंजियाँ होती हंै जिसमें हरेक पंजी में दो सौ गांवो का सम्पूर्ण विवरण उल्लेख किया गया मिलता है । पहले ब्राहम्ण अपनी विद्वता, शिष्टता और समुचित सलाह देने में कुशल होने के कारण शासक के प्रिय होते थें फलतः राजकीय सुख–सुविधा भी प्राप्त करते थें इसका फायदा उठाने हेतु गैर–ब्राहम्ण भी किसी तरह छल–कपट द्वारा ब्राहम्ण परिवार में विवाह कर लेते थें । इसी विकृति से बचने हेतु पंजी प्रथा का आरम्भ किया गया ।
पंजी प्रथा के शुभारम्भ के विषय मे अत्यंत रोचक कथा ‘जनरल आव द विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी’ मे किया गया है । पंडित हरिनाथ मिश्र राजा हरिसिंह देव के दरबार में पंडित का काम करता था । पंडित मिश्र की पत्नी असीम सुन्दरी थी । वह नित्य जंगल मे भगवान शिव की पूजा करने जाती थी । ब्राहम्णी के असीम सौन्दर्य पर एक चाण्डाल की बुरी नजर थी फलतः लोगों में अपवाह फैला दी गई की वह चरित्रहीन है । इस के कारण उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया गया । पंडित हरिनाथ मिश्र भी भ्रमित हो पत्नी पर शक करने लगा । इस पर उनकी पत्नी दुःखी हो राज दरवार में चरित्रवान सावित होने के लिए हर परीक्षा देने के लिए तैयार हुई । राजा के आदेश पर परीक्षा ली गई । “नाहम् चाण्डाल गामिनी” अर्थात यदि मैं चाण्डाल गामिनी हूँं तो मेरा हाथ जल जाय । इतना कहते ही उसके हाथ जल जाते हैं और इसके बाद सभा में चरित्रहीन कहकर घोषणा की गई । सती इस परीक्षा से संतुष्ट नहीं हुई और पुन ः परीक्षा लेने हेतु राजा हरिसिंह देव से गुहार लगायी । इस बार मंत्र को संशोधन कर “नाहम स्वपति ग्यतिरिक्त चण्डाल गामिनी” कहकर आग पर हाथ को रखा । इस बार हाथ नहीं जला । इस घटना से सभी आश्चर्यचकित हो गए ।  राजा के आदेश पर विद्वान पण्डितों ने हरिनाथ मिश्र और उनकी पत्नी की कुंडली को मिलाया तो पता चला कि वो दोनो एक ही मूल गोत्र के हैं इसी कारण पण्डित मिश्र चाण्डाल हुए और यह विवाह अपवित्र है । उसी दिन से पंजी व्यवस्था का सूत्रपात किया गया ताकि सगोत्री विवाह से बचा जा सकें ।
सौराठ सभा मिथिला का सांस्कृतिक महोत्सव है । सौराठ सभा मे ब्याही गयी कन्या को वैधव्य का दुःख नही भोगना पड़ता है, ऐसी मान्यता रही है । बिना दौड़धूप एक स्थल पर योग्य वर चयन करने हेतु यह उत्तम व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित था । पहले सरकारी स्तर पर भी कुछ सहयोग की जाती थी जो अभी पूर्णतः बन्द है । आंकड़े के अनुसार सातवें दशक तक करीब दस हजार शादियाँं सौराठ सभा मे तय होती थी । परन्तु आधुनिक सभ्यता के प्रभाव के कारण इसके विशिष्ट महत्व एवं रौनकता में कमी आई है । अभी के इस व्यस्त जीवन मे इसे “दहेज–मुक्त विवाह हेतू अभियान स्वरूप समय सापेक्ष व्यवस्था एवं प्रक्रिया मे सुधार कर इसे विवाह–महासमारोह” के रूप में व्यवस्थित करने की आवश्यता है । मिथिला के वौद्धिक एवं युवा साहस कर इसे पुनरुत्थान करें तो ऐतिहासिक कदम सावित हो सकता है और बाकी संसार के लिए अनुकरणीय भी ।
(लेखक नेपाल–हिन्दी साहित्य परिषद जनकपुरधाम के महासचिव है ।

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