मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सेक्स की शिक्षा से कैसा परहेज


प्रस्तुति-- अखौरी प्रमोद,

भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन के दो बयानों से काफी विवाद हुआ. उन्होंने बच्चों को सेक्स एजुकेशन के बदले संस्कार सिखाने पर जोर दिया और दूसरा बयान था कि कंडोम के बजाय संयम बरता जाए. हर्षवर्धन कहना क्या चाहते थे.
सेक्स शिक्षा को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के विजन डॉक्यूमेंट में मंत्री महोदय का विचार सामने आया कि बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने के बजाय संस्कार सिखाए जाने चाहिए. विवाद हुआ तो इस पर हर्षवर्धन की सफाई भी बड़ी अजीब थी, "वो यौन शिक्षा का नहीं, अश्लील यौन शिक्षा का विरोध करते हैं." कांग्रेस ने ठीक ही पकड़ा कि अश्लील ढंग से यौन शिक्षा भला कहां दी जाती है. बहरहाल ये विवाद राजनैतिक गलियारों से उतर कर सामाजिक संगठनों खास कर स्त्री अधिकार संगठनों में आक्रोश और अब विमर्श तक चला आया है.
कंडोम को लेकर उठा विवाद
हर्षवर्धन बेशक यही चाहते होंगे कि समाज में यौन जागरूकता आए. यौन बीमारियां खास कर एड्स की रोकथाम हो, यौन हमले न हों. लेकिन उनके नुस्खे आज के दौर से मेल नहीं खाते. कंडोम के बदले संस्कार पर जोर की सलाह क्या सिर्फ हवाई है या इसकी कोई जमीनी तैयारी भी है? उपभोक्तावाद चरम पर है और कल्चरल प्रतीकों में कई किस्म के विद्रूप घुस आए हैं, मास मीडिया की बहुलता वाले समाज में औरत की घर में बंद छवियां बेशक टूटी हैं लेकिन उनकी उन्मुक्त छवि पर एक बहुत बड़ा साया उन्हें कमोडिटी में बदल दिए जाने का पड़ा है. ऐसे में आप शर्माते सकुचाते ये नहीं कह सकते कि सेक्स शिक्षा ही रोक दो.
बेहतर तो ये होता कि स्वास्थ्य मंत्री एड्स को लेकर जागरूकता के नए अभियान का एलान करते. न्यूयार्क टाइम्स को दिए इंटरव्यू में हर्षवर्धन ने कहा कि एड्स निरोधी अभियानों में सुरक्षित यौन संबंधों के लिए कंडोम के इस्तेमाल पर जोर देने से कहीं न कहीं अवैध यौन संबंधों को बढ़ावा मिलता है. उनका आशय ये भी है कि एड्स की रोकथाम शादी की मर्यादा निभाकर भी की जा सकती है.
भारत में एड्स के मामले पहली बार 1986 में सामने आए. दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया के बाद तीसरी सबसे बड़ी, 20 लाख की एड्स संक्रमित आबादी भारत में है. लेकिन एड्स देश में ऐसी बीमारी नहीं है जो व्यापक तौर पर फैली हुई हो, हाई रिस्क समूह जरूर हैं. इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण सोसाइटी, नाको को ऐसी हिदायतें भी दी हैं कि वो कंडोम के इस्तेमाल पर जोर देना कम करे और बीमारी से लड़ने के लिए नैतिकताओं को बढ़ावा दे.
सेक्स शिक्षा की एक क्लास
नाको हो सकता है आने वाले दिनों में अपने अभियान में कंडोम के साथ संयम की बात भी जोड़ दे. ये नारे दुनिया में प्रयोग हो चुके हैं. वैश्विक स्तर पर एचआईवी/एडस को लेकर "एबीसी" कैम्पेन चलाया जा रहा है, "ऐब्स्टनन्स (संयम), बी फेथफुल (वफादारी) और कंडोम". यूगांडा जैसे एड्सग्रस्त देश में ये अभियान असरदार बताया जाता है.
लेकिन संस्कृति और नैतिकता के ऊपरी पाठ खोखले ही रह जाते हैं. वे समाज में अंतनिर्हित भावना कैसे बने- ये अकेले सरकार का काम नहीं हो सकता. जो समाज रात दिन अपनी तरक्की और अपनी बल खाती विकास यात्राओं का गुणगान करता ही रहता है तो उसका जेहन भी साफ होना चाहिए. उसे तमाम "टैबू" से निकल कर स्वतंत्र दृष्टि बनानी चाहिए. लेकिन यही तो विडंबना है इस समाज की कि वो विकास को आलीशान इमारतों, कारों, फिल्मी रंगीनियों, विज्ञापनों, भव्य दावतों और चमकीली सड़कों से जोड़ता है लेकिन सेक्स को लेकर उसकी समझ पिचकी रहती है. इसी के विस्तार में ये आग्रह हैं कि लड़कियां जीन्स, स्कर्ट आदि न पहनें, ध्यान से पहनें, ओढ़ें, चलें. क्यों. क्या सारे सबक उन्हीं के लिए हैं? फिर उस विकार का क्या करेंगे जो पुरुषों के जेहन में है.
हम असल में विकार को मिटाने के बजाए उसे ढकाए रखने का प्रयत्न करने वाला समाज बन गए हैं. देश के जाने माने सेक्सोलॉजिस्ट प्रकाश कोठारी का कहना है कि लिवइन संबंधों और इंटरनेट के जमाने में तो यौन शिक्षा और भी जरूरी हो जाती है. ये सही है कि सिर्फ कंडोम या सेक्स शिक्षा, समाज को या नई पीढ़ी को सिखा नहीं सकते. उनमें नैतिक सामर्थ्य भी होनी चाहिए कि अटपटे हालात से मुकाबला कर सकें. सुरक्षित सेक्स के लिए कंडोम ही नहीं काम आता एक नैतिक जवाबदेही भी काम आती है.
एक समर्थ और मानवीय सामाजिक ताने बाने में नैतिकता, निश्छलता, प्रेम और निष्कपटता जैसी भावनाओं की अपनी अहमियत है जिन्हें लेकर अक्सर वही शर्माना, आंख चुराना होता रहता है जैसे कंडोम या सेक्स को लेकर. वर्जनाओँ की और उच्छृंखलता की, दोनों किस्म की अतिशयताओं से निकलने की जरूरत है.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः अनवर जे अशरफ

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