गांव में बनाई जा रही सड़क कई हिस्सों में ध्वस्त हो गई। मलबा नालों में गिरने लगा। जिससे जल निकासी रूकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव व धंसाव होने लगा। सरकार की गलत नीतियों ने आज उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों को मात्र व्यावसायिक साधन बना दिया है। इसके खिलाफ उठी आवाजों को बाहुबल, धनबल व कानून की आड़ में डराया जा रहा है। फूट डालो, छीनो और झपटो की नीतियों के साथ लगातार जल-जंगल-जमीन का दोहन हो रहा है। नई पीढ़ी ने शहरों की ओर रुख किया। जो गांवों में हैं, लूटो-झपटो के अभियान में वही मोहरे बन रहे हैं। जिसका नतीजा है कि अधिकांश जंगल नष्ट हो गए हैं।
अब सरकारी और गैर सरकारी संगठन पुनः जंगल बनाने का अभियान चला रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के नाम पर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बहस से पेड़ लगाने की सोच के साथ पैसा व्यय किया जा रहा है। उस पैसे पर भी लूट की नीतियां ही हावी हैं। ग्रामीणों व जंगलों के बीच की दूरी अपने स्वार्थपूर्ति हेतु सरकारी विभाग व माफिया संस्कृति के पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई है।
जल विद्युत परियोजनाओं से उजड़ रहे उत्तराखंड के जनजीवन व नदियों के स्वरूप को नीति घाटी में भ्रमण के दौरान मैंने (लेखक ने) बेहद करीब से देखा। तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना का ही उदाहरण लें तो, जयप्रकाश कंपनी द्वारा वर्ष 1998-99 में प्रारंभ की गई इस परियोजना के निर्माण से पहले ही ग्रामीणों को भविष्य में होने वाले खतरे का अहसास हो गया था। इसलिए उन्होंने इस विद्युत परियोजना का विरोध किया। केंद्र सरकार व राज्य सरकार के मंत्रियों के साथ-साथ जिला प्रशासन को भी बार-बार लिखा गया, लेकिन कंपनी विरोध को दबाने में सफल रही।
इस परियोजना के कारण कई गांवों के चारागाह, वन संपदा व उपजाऊ भूमि के साथ ही कई घर तबाह हो गए, लेकिन सरकार व कंपनी को कोई फर्क नहीं पड़ा। गांव के नीचे सुरंग, जमीन के भीतर बने पावर हाउस, बड़े-बड़े विद्युत पोलों व परियोजना हेतु बनी सड़क ने दर्जनों गांव तबाह कर दिए। विस्फोट से मकानों में दरार पड़ गई। गांव में रहना मुश्किल हो गया तथा ग्रामीण हर वक्त भयभीत रहने लगे। विष्णुगाड़ से चांई गांव तक बनी लगभग 17 किमी. की सुरंग से पानी के स्रोतों पर प्रभाव पड़ने लगा।
आखिरकार वर्ष 2007 चांई गांव के लिए विनाश लेकर आया। गांव में बनाई जा रही सड़क कई हिस्सों में ध्वस्त हो गई। मलबा नालों में गिरने लगा। जिससे जल निकासी रुकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव व धंसाव होने लगा। विस्फोट से जर्जर हो चुके चांई गांव के भूगर्भ में सुरंग का पानी तबाही मचाने लगा, जिससे पेड़, खेत, गौशाले व मकान धंस गए। 25 मकान व 954 नाली कृषि भूमि कंपनी की भेंट चढ़ गई। जिला प्रशासन ने सर्वेक्षण में 25 मकान पूर्ण ध्वस्त तथा 20 मकान आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त व 954.30 नाली कृषि भूमि को क्षतिग्रस्त माना।
गांव को अन्यत्र बसाने की आवश्यकता बताई गई, किंतु वहां के लोग आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। कंपनी या सरकार कोई भी अपनी जिम्मेदारी इस तबाही के लिए लेने को तैयार नहीं है। सरकार भी कंपनी को बचाने के पक्ष में खड़ी दिखती है। लोग गांव छोड़ राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। उनके पुनर्वास की भी कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है। वहां की अध्यक्षा का कहना था कि हमें उजाड़कर महानगरों में रह रहे लोगों को 'एसी' हेतु बिजली देने की सोच ने सब तबाह कर दिया।
तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना जोशीमठ से 15 किमी. नीति मार्ग पर तपोवन से प्रारंभ होती है। इसका बांध तपोवन में बन रहा है। कार्य जोरों पर है। यह धौलीगंगा के किनारे पर बसा है। सन् 2002 में उत्तराखंड सरकार व नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन के समझौते के साथ कंपनी ने कार्य प्रारंभ किया। इस परियोजना में 520 मेगावाट विद्युत पैदा किए जाने का प्रस्ताव है। जिसके लिए तपोवन से विष्णुगाड़ (अणमठ) तक सुरंग बननी है, जो जोशीमठ के नीचे से होकर जाएगी। लोगों का कहना है कि जोशीमठ व उसके आसपास के सुनील, रविगांव, बड़ागांव, परसारी, मारवाड़ी आदि गांव खतरे की जद में हैं। खेती व जंगल पर निर्भर ग्रामीण अपने जीवन को खतरे में मान रहे हैं।
कंपनी द्वारा बनाई जा रही सुरंग से 25 दिसंबर 2009 को अचानक 600 ली./से. निकलने वाले जल ने खतरे के संकेत दे दिए हैं। इससे यह भी साफ हुआ कि परियोजना का भूगर्भीय विश्लेषण नहीं हुआ या भूगर्भीय विश्लेषण कंपनी के पक्ष में किया गया। समस्या सामने आने के बाद भी कंपनी और सरकारें प्रकृति से छेड़छाड़ कर विनाश को आमंत्रित कर रही हैं। दोनों परियोजनाओं से ग्रामीणों की दशा समझी जा सकती हैं जोशीमठ से नीति तक 15 से 20 परियोजनाओं के प्रभावों को और अधिक जानने हेतु जोशीमठ से गमशाली के बीच यात्रा की। कई दुकानदारों से बातचीत की, लेकिन अधिकतर लोग बात करने को तैयार नहीं थे।
उपप्रधान ओमप्रकाश डोभाल ने बताया कि कंपनी द्वारा ग्रामीणों का दमन किया जा रहा है, श्मशान उजड़ गया, मंदिर टूट गया, खेती वाली जमीन लोगों को मजबूर होकर बेचनी पड़ी, जो विरोध करता है, उस पर मुकदमे लगा दिए जाते हैं, निर्माणाधीन सुरंग में स्थानीय लोगों को काम नहीं मिलता। क्योंकि सुरंग में कई लोगों की मृत्यु हो जाती है। क्षेत्रीय लोगों की होने पर हल्ला होता है। इसलिए अधिकतर नेपाल, बिहार के मजदूर कार्य करते हैं।
जमीन बेचकर अधिकतर पैसा लोगों ने शराब आदि में बर्बाद कर दिया है। संपन्न लोग शहरों में बस गए हैं। क्योंकि वे पहले से ही बाहर बसे थे। गांव का गौचर, खेती, पानी सब खत्म हो रहा है। विरोध करने के बावजूद कोई सुनने वाला नहीं है। शासन, प्रशासन के बजाय कंपनी हमारी विधाता हो गई है। विरोध को दबाने के लिए पैसा और ताकत का इस्तेमाल किया जा रहा है।
स्त्रोत--रीजनल रिपोर्टर, जनवरी 2011
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