रविवार, 13 जुलाई 2014

नए बसाएंगे तो पुराने शहरों का क्या (करेंगे) होगा ?





लेखक-अनुपम मिश्र
प्रस्तुति-- स्वामी शरण,अर्चना तिवारी
हमारे ज्यादातर बड़े शहरों की परिभाषा यह हो गई है कि उनका पानी कितने किलोमीटर दूर से आता है। जिन शहरों को जितनी दूरी से पानी मिल रहा है, उन्हें उतना ही स्वावलंबी माना जा रहा है।

आसमान में तरह-तरह के आरोपों की धूल खूब उड़ाई जा रही है। दूसरी ओर सभी का भला करने के दावों-वायदों को उनसे भी ऊपर उठाया जा चुका है। धूल को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया गया है, उससे यह कुर्सी कहीं बहुत नीचे ही रहेगी। अब इन सबके बाद जो कोई भी एक छोटी-सी, नीची-सी कुर्सी पर बैठने वाला है, उसे समस्त शुभकामनाएं।

हमारे संस्कृत साहित्य में कोई एक हजार साल पहले ‘शुकनासोपदेश’ नाम का एक साहित्य रचा गया था। राजा हर्षवद्धन के समय में बाणभट्ट रचित्त ‘कादंबरी’ में युवराज चंद्रापीड को सिंहासन पर बैठने से पूर्व उनके महामंत्री शुकनास ने कुछ उपदेश दिए थे, जिसे देश में एक सप्ताह बाद गद्दी पर बैठने वाले बहुत लोकतांत्रिक समझे जाने वाले नेता को जरूर पढ़ना चाहिए। शुकनास कहते हैं- ‘युवराज आपने सारी जानने योग्य चीजें पढ़ ली हैं। अब कोई भी चीज आपको पढ़नी बाकी नहीं रह गई लेकिन फिर कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा।’ उन्होंने चंद्रापीड के सामने सत्ता और लक्ष्मी (पैसा) के मिलन से क्या-क्या गुल खिलते हैं, का विस्तार से वर्णन किया है और उनसे बचने के उपायों के बारे में भी बातें की हैं। इसके अलावा उन्होंने चापलूसों से होने वाले नुकसान के बारे में भी उपदेश दिया है। वे कहते हैं- राजा अपनी प्रशंसा सुनकर खुद को देवता का अवतार समझने लग जाते हैं। दर्शन देने मात्र को बड़ी कृपा मानते हैं। किसी पर दृष्टिपात को भी उपकार समझ बैठते हैं। किसी से बात कर ली तो यह समझने लग जाते हैं कि मानो उसे कोई बड़ा पुरस्कार दे दिया। जिसे छू दिया मानो उसे पवित्र कर दिया। ऐसे शासक हमेशा विद्वानों का उपहास उड़ाते हैं। वे मित्रों की सलाह को बुढ़ापे का प्रलाप मानते हैं। वे उन्हें सम्मान देते हैं, अपने पास बिठाते हैं, उनकी ही सलाह मानते हैं, जो सारे कामों को भुलाकर दिनभर स्तुति में लगे रहते हैं।’

चुनाव आयोग ने जब चुनाव की तारीखें तय की थीं तब यह खबर नहीं थी कि प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों में जलवायु परिवर्तन की घटना के रूप में ‘अल नीनो’ नाम का शैतान प्रकट हुआ है। वैसे प्रशांत महासागर का यह इलाका हमसे बहुत ज्यादा दूरी पर है लेकिन मौसम विज्ञानी बता रहे हैं कि इसका असर हमारे देश की जलवायु पर भी पड़ेगा। नया राज चाहे जिसका भी आए, उसे राजनीतिक-सामाजिक सभी पहलुओं के अलावा मौसम के इस बहुत कठिन पहलू को भी ध्यान में रखना होगा।

चुनाव में उतरी हुई पार्टियों ने पिछले दिनों जो वायदे जनता से किए हैं, उन्हें व्यावहारिक रूप में कैसे निभाया जा सकेगा, यह देखने वाली बात होगी। इसमें वादा टूटने या जुड़ने की बात नहीं है। हो सकता है कि वादे पूरे हो जाएं लेकिन इसकी कोई कीमत हमें चुकानी पड़ सकती है। मिसाल के तौर पर दोनों ही प्रमुख पार्टियों ने नए शहर बसाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात की है। इस बात के लिए उन्हें धन्यवाद दिया जाना चाहिए लेकिन उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि इससे पहले बने हुए शहरों का वे क्या करने वाले हैं? क्या उन पुराने शहरों को और भी अंधेरे में धकेल दिया जाएगा? पुराने कस्बों, शहरों और यहां तक कि महानगरों में भी बुनियादी सुविधाएं और गुणवत्ता मुहैया नहीं है। यहां रहने वाली बड़ी आबादी को ठीक समय पर और पीने योग्य पानी नहीं मिलता है। किसी को दस घंटे, किसी को दो दिन पानी हासिल करने के लिए इंतजार करना पड़ता है। कुछ लोगों को तो प्यास बुझाने के लिए पानी की बोतलें बाजार से खरीदनी पड़ती हैं। हमारे बड़े शहरों की परिभाषा यह हो गई है कि उनका पानी कितने किलोमीटर दूर से आता है। जिन शहरों को जितनी दूरी से पानी मिल रहा है, उन्हें उतना ही स्वावलंबी माना जा रहा है, यानी वैसे शहर जिनके पास अपना पानी है, उसे पानी के मामले में आत्मनिर्भर नहीं मानेंगे। दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों का पानी 200-300 किलोमीटर से आता है और यह किसी का हक चुराकर ही आता है।

नए शहर बसाने से पूर्व हमें गुजरात के सूरत में आई कुछ साल पहले की बाढ़ को नहीं भूलना चाहिए। सूरत को इसलिए भी नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि वह गुजरात का हिस्सा है। वहां उकाई बांध की वजह से बाढ़ आई थी। यह बांध कुछ ही मीटर ऊंचा है। इस बाढ़ के बाद वहां चार महीने एक मंजिल तक पानी टिका रहा था। सौ शहर बनाने की जो बात हो रही है, कहीं वे सूरत को तो आदर्श शहर नहीं बना लेंगे? उन नए शहरों में बाढ़ आएगी तो उसका हल क्या होगा? गर्मियों में पीने का पानी कहां से आएगा?

बस्ती के बारे में यह परिभाषा दी गई है- ‘बसते, बसते बसती है बस्ती।’ हम यदि शहर नियोजन के फॉर्मूले से किसी नगर या महानगर को अचानक बसा दें तो उसमें कृत्रिमता आ जाती है। चंडीगढ़ और गुड़गांव ऐसे ही कृत्रिम शहर हैं। चंडीगढ़ बनाने में जहां बहुत पैसा खर्च हुआ है, तो वहीं दूसरी ओर गुड़गांव को किसी भी तरीके से सफल शहर नहीं माना जा सकता है। इसके बरक्स जो भी पार्टी 100 नए शहर बनाएगी, वहां जीवन जीने की बुनियादी सुविधाएं होंगी या नहीं, अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता है।

रफ्तार एक बड़ी चीज है। इन प्रमुख पार्टियों के घोषणा-पत्रों में बहुत तेज गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन की भी बात की गई है। इसके तहत देश की दो राजधानियों को बुलेट या ऐसी ही तेज गति से चलने वाली ट्रेन से जोड़ने की बात की गई है। हमारे यहां पहले से राजधानी, शताब्दी और दुरंतो जैसी कुछ तेज चलने वाली ट्रेनें हैं। बुलेट शब्द पहली बार इस पटरी पर दौड़ने वाला है। यह पटरी ऐसी ट्रेनों के लायक नहीं है, क्योंकि ये ट्रेनें 250-350 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती हैं। इन ट्रेनों को दौड़ाने के लिए बिल्कुल सीधी पटरी की जरूरत होगी, ताकि वह गति को बर्दाश्त कर सके। यदि ऐसा किया जाता है तो पर्यावरण का नुकसान बड़े पैमाने पर होगा। इसकी वजह से बड़े पैमाने पर विस्थापन भी होगा। अभी तक बिजली उत्पादन, कारखानों और बांधों की वजह से विस्थापन होता रहा है। उन विस्थापितों को आज तक सम्मान के साथ नहीं बसाया जा सका है। संभव है कि यह वादा पूरे करने वालों के लिए भविष्य में सिरदर्द ही बढ़ाएगा।

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