जयप्रकाश चौकसे
खबर है कि फिल्मकार प्रकाश झा ने अन्ना समर्थकों के इस अनुरोध को ठुकरा दिया है कि उनकी फिल्म क्रसत्याग्रहञ्ज में अन्ना से प्रेरित पात्र है और इसके लिए उनसे अनुमति आवश्यक है। उन्होंने कहा कि इस स्वतंत्र देश में जो चाहे टिकट खरीदकर फिल्म देख सकता है और प्रदर्शन के पूर्व वे सेंसर द्वारा प्रमाणित फिल्म के लिए सेंसर से परे स्वयंभू सेंसर शक्तियों के आगे नहीं झुकेंगे। ज्ञातव्य है कि प्रकाश झा ने राजस्थान के विधायकों द्वारा एक होटल में 'राजनीति' के अवैध शो के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई की थी। प्रकाश झा ने अपने अधिकार का प्रयोग किया है और नेताओं या सामाजिक आंदोलन करने वालों की धमकियों से वे नहीं डरते।
भ्रष्टाचार के खिलाफ फिल्म बनाने के लिए प्रकाश झा को वर्तमान के किसी व्यक्ति की प्रेरणा नहीं चाहिए, वे तो स्वयं जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े थे और अपने नेता पर एक वृत्तचित्र भी बना चुके हैं। स्वतंत्र भारत में वह पहला बड़ा आंदोलन था और उसकी विफलता के बावजूद उसके ही परोक्ष प्रभाव में इंदिरा गांधी के चुनाव में हारने के बाद बनी सरकार में उसी आंदोलन से जुड़े लोगों ने ऐसी असफल और विभाजित सरकार बनाई कि पूरे तीन साल भी शासन नहीं कर पाए। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि एक आदर्श के लिए लडऩे वाले लोग प्राय: सत्तासीन होकर उस आदर्श को भूल जाते हैं।
क्या सत्ता का रंग इतना गहरा है कि उसकी कुर्सी पर बैठने वाला उसी रंग में रंग जाता है? मसलन, केजरीवाल ने बिजली के बढ़ते दाम के विरोध में जनता से अपील की थी कि बिल ही अदा न करें। अगर वे सत्ता में आए और जनता ने बिल नहीं भरे तो क्या होगा? हमारे यहां विरोध, विरोध के लिए और शासन, शासन के लिए किया जाता है। अवाम के लिए कुछ नहीं।
बहरहाल, भारत में सेंसर के परे हुड़दंगी सेंसर शक्तियों के कारण विशुद्ध राजनीतिक फिल्म नहीं बनाई जा सकती और एकमात्र प्रकाश झा इस क्षेत्र में प्रयास करते आ रहे हैं। उनकी 'दामुल', 'मृत्युदंड', 'गंगाजल' और 'अपहरण' सामाजिक समस्याओं पर बनाई प्रभावोत्पादक फिल्में थीं। सिताराजडि़त 'राजनीति' पर गॉडफादर का प्रभाव प्रकाश झा के कद को कम करता है। इसी तरह असफल 'आरक्षण' के बाद माओवादी आंदोलन के सतही विवरण के कारण उनकी 'चक्रव्यूह' असफल हो गई। 'सत्याग्रह' में प्रकाश झा के 'गंगाजल' वाले तेवर की संभावना है। दरअसल, अन्य क्षेत्रों की तरह सिनेमा में भी किसी आदर्श को लेकर चलने वाला व्यक्ति सफलता पाने पर आदर्श से विमुख हो जाता है। प्रकाश झा ने कम बजट में 'दामुल' और 'परिणति' बनाई। मध्यम बजट में 'मृत्युदंड' से 'अपहरण' तक का सफर किया, परंतु बड़ा बजट और सितारे की मौजूदगी फिल्मकार को समझौते के लिए बाध्य करती है और एक बार भव्य सफलता चखने के बाद उसकी आदत पड़ जाती है।
प्रकाश झा ने जैसे ही यह जाना कि इस दौर में महंगे टिकट बेचने वाले मल्टीप्लेक्स में सिताराजडि़त फिल्म ही लंबी पारी खेलने का रास्ता बची है तो उन्होंने अपनी लीक छोड़ दी, परंतु सोद्देश्यता का स्पर्श बचाए रखा। उन्होंने एक व्यावहारिक मार्ग चुना और इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। भारतीय सिने उद्योग का आर्थिक पक्ष कुछ ऐसा है कि इसके सिवा उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझा। वे 'दामुल' से 'अपहरण' तक लंबा सफर तय कर चुके थे। भारत में प्राय: सिनेमाई क्रांति लाने का दम भरने वाले इसी तरह सिनेमाई व्यवस्था का विरोध करते-करते उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं। दरअसल, खेल में बने रहना ऐसा भाव है, जिसके लिए कुछ भी किया जा सकता है।
आज फिल्म उद्योग में सौ से अधिक सिताराविहीन फिल्में प्रदर्शन के लिए तैयार हैं, परंतु प्रदर्शन कर पाना कठिन है, क्योंकि प्रदर्शन पूर्व टेलीविजन पर प्रचार, प्रिंट इत्यादि का खर्च सात करोड़ आता है। अब तीन करोड़ में बनी फिल्म पर सात करोड़ लगाने वाले नहीं मिलते और भविष्य में मल्टी प्लैक्स पर एकाधिकार के बाद सिताराविहीन फिल्मों को बमुश्किल पच्चस प्रतिशत दिया जाएगा, तब समस्या विकराल हो जाएगी।
अत: यह संभव है कि इसी कारण उन्होंने व्यावहारिक रास्ता चुना। किसी भी व्यवस्था की क्रूरता उसके कलाकारों की मजबूरी से समझ में आती है।
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