स्टॉप एसिड अटैक अभियान के सुनीत शुक्ला से बातचीत
भारत की सर्वोच्च अदालत ने सरकार को हुक्म दिया है कि वो एसिड के कारोबार को नियमों में बांधें. एसिड अकसर महिलाओं पर हमले में इस्तेमाल होता है. लेकिन सिर्फ इतने से ही हमले नहीं रुकेंगे, समाज को बदलना होगा. एसिड खरीदने वालों को अब पहचान पत्र दिखाना होता है. एसिड बेचने वाले दुकानदार उनका नाम पता दर्ज करते हैं,यह सब सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के बाद शुरू हुआ है. एसिड, पीड़ितों की त्वचा तो जलाता ही है, उनके शरीर को भयानक जख्म भी देता है. एसिड हमलों का कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है क्योंकि उन्हें अलग तरह का अपराध नहीं माना गया है. भारत में इन हमलों को रोकने के लिए स्टॉप एसिड अटैक अभियान चल रहा है. इस संगठन के मुताबिक हर हफ्ते तीन से चार मामले भारत में सामने आते हैं. अभियान से जुड़े लोग कठोर नियमों और समाज में बदलाव के लिए मुहिम चला रहे हैं. स्टॉप एसिड अटैक अभियान से जुड़े सुनीत शुक्ला से डीडब्ल्यू ने बात की.
डीडब्ल्यूः कुछ दिन पहले तक एसि़ड खरीदना बहुत आसान था. यह तो है ही इसके साथ एक सच्चाई यह भी है कि यह बहुत सस्ता हथियार है. क्या कठोर नियमों से एसिड हमलों को रोका जा सकेगा क्योंकि अब एसिड हासिल करना कठिन है?
सुनीत शुक्लाः निश्चित रूप से यह अपराध को रोकने की दिशा में पहला कदम है. हालांकि भारत में बहुत से लोग छोटी छोटी दुकानों में एसिड बेचते हैं. जहां तक मैने देखा है पहचान पत्र पर बेचना और दुकानदारों के पास इसे दर्ज कराने का नियम लागू करना काफी मुश्किल है. सुप्रीम कोर्ट का नियम 18 जुलाई को आया और उसके बाद से अब तक हमें चार और एसिड हमलों का पता चल चुका है.
एसिड बेचने पर पूरी तरह से रोक क्यों नहीं लगा दी जाती?
लोग इसका इस्तेमाल घर की नालियों और शौचालयों की सफाई में करते हैं. अगर लोग घरों में इसका इस्तेमाल ना भी करें तो कई उद्योग हैं जहां इसे इस्तेमाल किया जाता है. रंगाई, कांच, बैटरी बनाने और इसी तरह के दूसरे कई उद्योगों में इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. ऐसे में अगर एसिड काउंटर से न बेचा जाए तो भी ऐसे बहुत सारे रास्ते हैं जहां से एसिड हासिल किया जा सकता है.
दूर दराज के इलाकों में एसिड की बिक्री पर नजर रखना क्यों मुश्किल है?
केवल दूर दराज के इलाकों की ही बात नहीं है. भारतीय मीडिया बता रहा है कि नई दिल्ली में भी बिना नियम कानून के एसिड बिक रहा है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी हमें भी एसिड हमलों का पता चला रहा है. इससे साफ है कि नियमों को लागू कराने का तंत्र भारत में कितना सक्षम है. पुलिस पहले ही अपनी बहुत सी जिम्मेदारियां निभाने में नाकाम है.
नियम बनाने से इस पर पूरी तरह से नियंत्रण नहीं होगा. यह अपराध को कुछ हद तक रोक सकता है. अगर आज 10 हमले हो रहे हैं तो हो सकता है कि यह घट कर शायद 8, 7 या 6 हो जाएं लेकिन मेरी चिंता यह है कि अपराध जारी रहेगा.
हमलों को रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?
भारत में मजबूत पितृ प्रधान समाज इस अपराध की जड़ में है. हम महिलाओं के साथ किस तरह बर्ताव करें इसमें बहुत सी समस्याएं हैं. लोगों की संवेदनाएं जगाने की जरूरत है वो इस अपराध और इससे होने वाली तकलीफ को लेकर उदासीन हैं, यह किसी इंसान(पीड़ित) की पूरी जिंदगी तबाह कर देता है. वो तीन-चार साल तक घर से बाहर नहीं जा पाते क्योंकि उन्हें बहुत ज्यादा इलाज की जरूरत होती है. बहुत सी महिलाएं हैं जिन्होंने अपनी आंखें खो दी, किसी के कान गल गए तो किसी की नाक मिट गई, किसी के चेहरे का ढांचा ही बिगड़ गया.
आप कोर्ट के फैसले से संतुष्ट हैं?
नहीं, सचमुच नहीं, क्योंकि यह सात साल पहले लक्ष्मी (2005 में हमले की शिकार) की तरफ से दायर याचिका पर आया है, कोर्ट सात साल से इस पर काम कर रही थी. इतने सालों में बस उन्होंने इतना किया कि 2012 में एसिड हमले को भारत की दंड संहिता में अलग से दर्ज कर दिया गया और 2013 में यह नियम लेकर आ गए. यह बहुत धीमी प्रक्रिया है.
जब हम इनके पुनर्वास की बात करते हैं तो कोर्ट ने सुनवाई फिर चार महीने के लिए आगे बढ़ा दी और अब शायद जब तक ये पुनर्वास के बारे में नियम बनाएंगे तब तक तीन चार साल और लग जाएंगे. जिन पीड़ितों के साथ हम काम कर रहे हैं वो पहले ही अपनी जिंदगी से लड़ रही हैं. उनके पास पैसा नहीं है, काम नहीं है.
आपको क्या लगता है कोर्ट इस तरह के मामलों में इतना वक्त क्यों लेती है?
सरकार की इसमें दिलचस्पी नहीं है, वह इस तरह के मुद्दों के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं है. बांग्लादेश की सरकार ने खुद ही पहल कर एसिड की बिक्री के नियम कानून बनाए हैं. उन्हें सुप्रीम कोर्ट के दखल की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन भारत में ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि कोर्ट ने दखल देकर सरकार को बुलाया एक बार नहीं तीन बार.
पीड़ितों के साथ आपका जो अनुभव रहा है उसके मुताबिक इलाज में कितने पैसे की जरूरत पड़ती है.
सुप्रीम कोर्ट ने तीन लाख रुपये की रकम मुआवजे के तौर रखी है जो बहुत छोटी रकम है. डॉक्टरों का अनुमान है कि सर्जरी के लिए 35 से 40 लाख रुपयों की जरूरत होती है. हम सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर मामलों को तीन महीने के भीतर निपटाने और पीड़ित के लिए जितना बेहतर संभव है वो इलाज मुहैया कराने की मांग कर रहे हैं. पुनर्वास के लिए हम सरकारी नौकरी चाहते हैं. पूरी तरह से विकलांगता या आंखों की रोशनी चले जाने पर हम पीड़ित के लिए पेंशन चाहते हैं.
आपने समाज को शिक्षित करने की भी बात की है. आमतौर पर बेहद खूबसूरत और जवान महिलाएं इसका शिकार कभी एकदम अनजान तो कभी ऐसे शख्स के हाथों बनती हैं जो उनका प्रेमी रहा है. कैसे इन्हें बचाया जा सकता है?
अपराध पर सिर्फ नियम और कानून से नियंत्रण नहीं होगा. लोगों की सोच बदलने की जरूरत है. जिस तरह से लोग महिलाओं से बर्ताव करते हैं उसे बदलना होगा, जिस तरह प्रेमी रिश्ता बनाते हैं उसे बदलना होगा. लोगों को समझना चाहिए कि इनकार का मतलब नहीं है कि आप किसी महिला का चेहरा बिगाड़ देंगे. अगर आप किसी से प्यार करते हैं तो आप किसी महिला के साथ ऐसा नहीं कर सकते. इस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देने की जरूरत है, नुक्कड़ नाटक, सोशल मीडिया, रैली इन सबके जरिए लोगो को समझाना हमारा पहला लक्ष्य है.
सरकार के साथ बातचीत या न्यायिक प्रक्रिया में हमें शामिल होना पड़ता है. सख्त कानून, बेहतर और सुधारवादी सजाएं और पीड़ितों के लिए पुनर्वास की अच्छी सुविधा हासिल करने के लिए हमें यह सब करना पड़ता है. हम चाहते हैं कि एसिड हमले के शिकार लोग भी यह महसूस करें कि अभी जिंदगी में बहुत कुछ बचा हुआ है. हम चाहते हैं कि वो बाहर आएं और खुद को उतना ही आत्मविश्वास से भरा महसूस करें जितना हमले के पहले करते थे.
इंटरव्यूः सारा श्टेफान/एनआर
संपादनः आभा मोंढे
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- तारीख 02.08.2013
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