रविवार, 6 जुलाई 2014

मर्दो को औरतों से सलूक सीखाने वाला स्कूल





प्रस्तुति-- किशोर प्रियद्रशी, उपेन्द्र कश्यप

 

पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ अच्छा सुलूक हो इसके लिए मर्दों को सीख लेनी जरूरी है. उन्हें समझना होगा कि महिलाओं के प्रति आम नजरिया कैसे बदला जाए, ताकि ऑनर किलिंग जैसे अपराध खत्म हो सकें.
बर्लिन में एक ग्रुप पुरुषों को यही सीख दे रहा है. वैसे तो बर्लिन सुन कर लगता है कि इस शहर में हर तरह की आजादी होगी. लेकिन यहां कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए विपरित लिंग के व्यक्ति से गहरी दोस्ती या फिर नाइट आउट बड़ी मुश्किल खड़ी कर देता है.
ये परिवार दो तीन पीढ़ियों से जर्मनी में रह रहे हैं लेकिन परिवार के किशोरों को पारंपरिक चाल चलन के हिसाब से ही रहना होता है, खासकर लड़कियों को. कई बार परिवार वाले ही इन लड़कियों को यौन संबंध बनाने और शादी के लिए घर से भागने पर जान से मार देते हैं.
'हीरो' नाम के संगठन की प्रमुख एल्देम तुरम बताती हैं कि सम्मान की यह परिभाषा किसी धार्मिक किताब में नहीं मिलेगी. वह कहते हैं, "ये एक अलिखित नियम है." वह ऐसे किशोरों के संपर्क में रहती हैं जो परिवार के नैतिक मूल्यों से जूझ रहे होते हैं, "सभी जानते हैं कि परिवार का सम्मान क्या है लेकिन कोई बता नहीं सकता. फिर भी सब जानते हैं कि आपकी सीमा कहां है और कहां सम्मान को ठेस पहुंचती हैं."
हीरो का लक्ष्य है पितृसत्तात्मक समाज में जारी रुढ़िवादी संरचनाओं को तोड़ने की कोशिश करना. इन नैतिक मूल्यों के मुताबिक लड़के तो देर रात बाहर रह सकते हैं, स्कूल ट्रिप पर भी जा सकते हैं, लेकिन उनकी बहनें ऐसा नहीं कर सकतीं.
गंभीर मामलों में परेशान लड़कियां 'टेरे दे फेम' जैसे महिला अधिकार संगठनों के पास सहायता के लिए जाती हैं. प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर मारिया बोएहम्के ने कई बच्चियों की मदद की है. जर्मनी भर से ये लड़कियां उनके पास पहुंचती हैं. वह बताती हैं, "लड़कियां कई बार कहती हैं कि मेरे भाई के पास बंदूक है. या फिर परिवार चाहते हैं कि वे एक सप्ताह के लिए तुर्की या पाकिस्तान जाएं, जहां वे उनकी शादी कर दें."
सम्मान का बोझ
जर्मनी के सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 3,443 लोग, जिनकी शादी परिवार वालों ने कर दी, उन्होंने 2008 में मदद मांगी. इनमें से 70 फीसदी 21 साल से कम उम्र के थे और एक तिहाई अल्पवयस्क.
सिर्फ लड़कियां ही नहीं, लड़के भी इस सम्मान का बोझ ढोते हैं. उन्हें परिवार में एक निश्चित भूमिका निभानी ही है और अगर वे खुलेआम इससे इनकरा करते हैं तो उन पर भी भारी दबाव पड़ता है.
'हीरो' संगठन युवा पुरुषों को सिखाने पर ध्यान देता है और उन्हें वह मंच देता है जहां वे इन मुद्दों पर बहस कर सकें. इसका उद्देश्य उनका आत्मविश्वास बढ़ाना है ताकि वे खुद इन मूल्यों और परंपराओं पर सवाल उठा सकें और उन्हें ऐसा भी न लगे कि वे अपनी संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं.
संगठन उन्हें सिखाता है कि सम्मान का मतलब है अपनी बहनों के लिए और उनकी आजादी के लिए खड़े होना, न कि उन्हें दबा कर रखना. इसलिए हीरो जैसे संगठनों का युवाओं के साथ काम न केवल अहम है, बल्कि बेहद जरूरी भी.
रिपोर्टः एलिजाबेथ ग्रेनियर/एएम
संपादनः ईशा भाटिया

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