प्रस्तुति -कृति शरण
भारत का बजट सोमवार
को आ रहा है. लगभग हर टीवी चैनल, हर अख़बार बजट की ख़बरों से रंगे हुए हैं.
पर आम आदमी के लिए यह कवरेज और बजट बेतुका है.
पर क्यों? इसके पाँच बड़े कारण निम्न हैं.वित्तीय घाटा: सारे वित्तमंत्री और विशेषज्ञ बजट में वित्तीय घाटे के बारे में ख़ूब बोलते हैं. भारत की सभी सरकारें साल 2008 तक क़ानूनन देश के वित्तीय घाटे को कम कर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के तीन फ़ीसदी के बराबर लाने के लिए बाध्य थीं. ऐसा फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट 2003 के तहत किया जाना था.
लेकिन सरकारें ऐसा नहीं करतीं. वो संसद से इस सीमा को लांघने की इजाज़त ले लेती हैं. पिछली बार जेटली ने भी यही किया था. वो इस बार फिर ऐसा कर सकते हैं.
उनके पहले भी ऐसा हुआ है. जब संसद के पास किए क़ानून को सांसद आगे खिसका देते हैं और साल भर में वित्तीय घाटे के टारगेट रिवाइज़ होते हैं, बजट कि ओर क्यों ताकें?
कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों में आई भारी गिरावट से हो रही बचत का 70-75 फ़ीसद हिस्सा (डीज़ल और पेट्रोल पर टैक्स बढ़ाकर) सरकार ख़ुद अपनी तिजोरी में रख रही है. जबकि इसका 25-30 फ़ीसद हिस्सा पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में कम करके जनता को दिया जा रहा है.
सरकार ने ये सब तो नहीं बताया था बजट में कि ऐसा करेंगे. अब बताइए, बेचारे आम आदमी के लिए बजट हुआ ना बेमतलब का.
आयकर: लेकिन हर अख़बार, टीवी यहाँ तक की एफ़एम तक टैक्स में छूट...टैक्स में छूट चिल्लाते हैं. लेकिन 120 करोड़ से ज़्यादा लोगों के इस मुल्क में 97 फ़ीसदी लोग आयकर या इनकम टैक्स नहीं देते हैं.
पिछले साल अप्रैल से दिसंबर के बीच अप्रत्यक्ष करों से वसूली क़रीब 33 फ़ीसदी बढ़ी. ऐसा नहीं कि इस दौरान देश में उत्पादन बढ़ा हो. सरकार ने ख़ुद बताया कि देश में उत्पादन कम हुआ है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था: इस बार तय है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली जी बजट में ज़ोर शोर से बताएंगे कि वो किसानों के लिए, गाँवों में रहने वाले भूमिहीन मज़दूरों के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए क्या हैं.
मज़दूर अब इस योजना से भागने लगा है. बजट में यह तो नहीं बताया था. मज़दूरों और गाँवों में काम करने वाले कहते हैं कि यूपीए-2 और एनडीए दोनों इस योजना को मारना चाहते हैं.
बजट की हक़ीक़त पता लगती हैं आठ-दस महीने बाद. उसके पहले बजट में जो प्रावधान करते हैं, उसे ख़र्चते नहीं हैं.
नए-नए बहानों तरीक़ों से पैसे जनता से निकालते रहते हैं. आम लोग अब समझते हैं कि बजट में सरकारें बात बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती हैं. लेकिन असलियत और कुछ होती है.
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