डा० वीरेन्द्र सिंह यादव
किसी
भी राष्ट्र का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के मनुष्यों पर उतना
अवलम्बित नहीं है जितना कि आने वाली कल की नई पीढ़ी पर। अर्थात् आज का बालक
ही कल के समाज का सृजनहार बनेगा। बालक का नैतिक रूझान व अभिरूचि जैसी होगी
निश्चित तौर पर भावी समाज भी वैसा ही बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि
बालक नैतिक रूप से जिसे सही समझेगा, आने वाले कल के समाज में उन्हीं गुणों
की भरमार का होना लाजिमी है। वर्तमान की बात करें तो आज समाज के नैतिक स्तर
में अत्यन्त तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है। वैश्वीकरकरण, उदारवाद तथा
पश्चिमी उन्मुक्त स्वच्छन्दतावाद की वजह से किसी भी कार्य को बुरा नहीं
माना जाता है। ‘‘जैसी मरजी, वैसा करो और तब तक करते चलो जब तक दूसरों को
कोई क्षति न पहुँचे।’’ जनमत के आधार पर आज जिसे नैतिक रूप से उचित ग्रहण
किया जा रहा है, वही आगामी पीढ़ी के लिए विध्वंसक का कार्य करेगा। स्वच्छंद
सेक्स एवं नशीले द्रव्यों का प्रयोग अमेरिका या पश्चिमी देशों के लिए
अपराध की श्रेणी में नहीं आता है और इस पर वहाँ विधिवत कानूनी तौर पर वैधता
की स्वीकृति भी दी जाने वाली है। यही कारण भी है कि पश्चिमी देशों के
बालकों में बहुत तीव्रता के साथ नैतिक स्तर में गिरावट आ रही है। उनमें
अपने अथवा दूसरों के भले-बुरे के ज्ञान की भारी कमी देखी गई है। आज बाल
अपराध के आँकड़ों पर जब हम गौर करते हैं तो भविष्य के प्रति एक अन्जान भय
प्रतीत होता है।
युवा
साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा. वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित
विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके
सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक
लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में हो
चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक
पुस्तकों की रचना कर चुके डा. वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या
पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है।
वैश्विक
स्तर पर देखें तो शहर के विद्यार्थियों से लेकर जंगलों के बीच में बसे हुए
गाँवों के विद्यार्थियों में उद्दंडता, उच्छृंखलता और अनुशासनहीनता आज
बिल्कुल सामान्य हो गई है। भावी पीढ़ी के इन कर्णधारों के चरित्र की झाँकी
लें तो ‘‘छुटपन से ही अश्लीलताओं, वासनाओं, दुर्व्यसनों की दुर्गन्ध उड़ती
दिखाई देती है। छोटे-छोटे बच्चों को बीड़ी पीते, गुटका खाते देखकर ऐसा लगता
है कि सारा राष्ट्र बीड़ी पी रहा है, नशा कर रहा है। युवतियों के पीछे
अश्लील शब्द उछालता है, तो लगता है सम्पूर्ण राष्ट्र काम-वासना से उद्दीप्त
हो रहा है।’’ बड़े आश्चर्य की बात है कि आज के चार, पाँच, सातवें दरजे के
छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां, जिन्हें उम्र का एहसास तक नहीं है वर्जनाओं और
मर्यादाओं की सभी सीमाओं को पीछे छोड़ चुके हैं। स्कूली बच्चों के लिए
नैतिकता और मूल्यों के वे अर्थ अब नहीं रह गये हैं जिनकी उनसे अपेक्षा की
जाती है। ‘‘शराब-सिगरेट पीना, हल्की मादक दवाएं लेना, गुप-चुप सैर सपाटा,
अचानक स्कूल से गायब हो जाना, साइबर कैफे में इंटरनेट पर अश्लीलता से
सराबोर होना और बार आदि में जाने के लिए झूठ बोलना, ऐसे परिधान का चयन करना
जिन्हें वे घर में भी पहनने का साहस नहीं जुटा पाते आदि प्रचलन बन गया है।
समस्या बड़ी गम्भीर है और यह अनियंत्रति होने की स्थिति में है क्योंकि
अपराधी बालकों ने आज सारे समाज को ही कलंकित करके रख दिया है।’’ हकीकत यह
है कि आज के अधिकतर बच्चों में न अभिभावकों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का
भाव ही बचा है और न समवयस्कों के साथ प्रेम और सहयोग की भावना। नैतिकता का
स्तर इतना नीचे गिरता जा रहा है कि अध्यापक और बाजार में बैठे दुकानदार
उनके लिए समान हैं। कुछ शेष रहा है तो फैशन, शौकीनी सिनेमा और मटरगस्ती का
अन्तहीन आलम।
शोधकर्ताओं एवं
मनोवैज्ञानिकों की भाषा में कहें तो तमाम ऐसे कारक हैं जिसके कारण एक
स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और
अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। इस वातावरण में परिवार,
अवांछित पड़ोस, समाज, स्कूल का अविवेकपूर्ण वातावरण, टी. वी., सिनेमा आदि
शामिल हैं। इनके कारण बालक की मानसिक स्थिति अपराध की ओर मुड़ जाती है।
इसके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिकों ने अनेक ऐसे भी कारक गिनाये हैं जिनसे
बाल-अपराध या बाल-श्रमिकों के अपराधों में उत्तरोत्तर वृद्धि पायी गयी है
जैसे असुरक्षा की भावना, भय, अकेलापन, भावनात्मक द्वन्द्व। अपर्याप्त
निवास, परिवार में सदस्यों का अति-बाहुल्य, निम्न जीवन स्तर, पारिवारिक
अलगाव, पढ़ाई के बढ़ते बोझ के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, आधुनिक
संस्कृति, मनोवैज्ञानिक एवं पारिवारिक कारक भी अपराध की ओर उन्मुख करते
हैं। बाल अपराध की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भयावह कल्पना से रोंगटे
खड़े हो जाते हैं कि आखिर हमारी भावी पीढ़ी कहाँ जा रही है, इसकी मंजिल
कौन-सी है और इसकी दशा और दिशा किधर है।
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में बाल अपराध की समीक्षा करें तो आज की आधुनिक जीवन शैली ने
अभिभावकों और बच्चों के संवेदनशील सम्बन्धों को संक्रमण काल के दौर में ला
खड़ा कर दिया है। पहले माता-पिता/अभिभावक अपने बच्चों के सुख-दुख और
अपनेपन के साथ-साथ थे; परन्तु आज के माता-पिता/संरक्षक भौतिकता एवं
महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ के अंतहीन दौर में व्यस्त हो गये हैं। वे अपने
कैरियर को सँवारने में लगे रहते हैं। जहाँ एक ओर पिता को अपने विशिष्ट पेशे
(व्यवसाय) से वक्त निकालना मुमकिन नही हो पाता है वहीं माँ को भी अपने
कार्यों व मित्रों के साथ जश्न मनाने से फुरसत नहीं मिल पाती है। आज वे
दोनों अपने बच्चों के जीवन से कट से गये हैं। न माता-पिता को बच्चों के
भविष्य की चिंता है और न बच्चों को ही भावी जीवन के निर्माण हेतु आवश्यक
मूल्यों और मानदण्डों की फिक्र है।
पारिभाषिक
दृष्टि से देखें तो ‘‘एक बाल-अपराधी वह है जो अपना घर छोड़ देता है या
आदतन आज्ञाकारी नहीं है या माता-पिता के नियन्त्रण में नहीं रहता है और देश
के कानून का उल्लंघन करता है जिनका पालन करना उसके लिए आवश्यक है।’’
मनोवैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मानव परिस्थितिकी या
संस्थाएं व्यक्ति पर प्रभाव डालती हैं और इसके दबावों और तनावों के कारण वह
बाल-अपराधी बन जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने बाल-अपराधियों का उनकी
व्यक्तिगत विशेषताओं या उनके व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक गतिकी के आधार पर
निम्न समूहों में वर्गीकरण किया है। मानसिक रूप से दोषपूर्ण, मानसिक रोग से
पीड़ित, परिस्थितिजन्य एवं सांस्कृतिक वातावरण से विरक्त बालकों द्वारा
किये गये अधिकांश अपराधों में से लगभग 2.3 प्रतिशत ही पुलिस और न्यायालय के
ध्यान में आते हैं।’’ बाल-अपराधों का यदि हम आंकलन करें तो स्थानीय एवं
स्पेशल विधियों के तहत 1998 में सबसे अधिक योगदान उन अपराधों ने दिया जो
प्रोहिबिसन और आबकारी एक्ट (23.9) और गेम्बलिंग एक्ट (4.6:) के अन्तर्गत
आते हैं। सन् 1998 में पाँच राज्यों महाराष्ट्र (21.6%), मध्य प्रदेश
(27.2:), राजस्थान (8.5:), बिहार (6.8:) और आन्ध्र प्रदेश (8.0:) में पूरे
देश में आई.पी.सी. के तहत कुल बाल-अपराधों में से 77% हुए। बाल-अपराध के
मुख्य कारकों में गरीबी और अशिक्षा सबसे महत्वपूर्ण आयाम हैं। शोध एवं
आँकड़ों पर गौर करें तो बाल अपराध की दरें लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में
बहुत अधिक पायी गयी है। बाल अपराध की दरें प्रारम्भ की किशोरावस्था 12-16
वर्ष में सबसे ऊँची है। बाल अपराध ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरों में
अधिक है। अनेक शोध पत्रों से ज्ञात होता है कि अधिकांश बाल अपराध समूहों
में किये जाते हैं। अमेरिका में भी ’शा’ और ‘मैके’ ने अपने अध्ययन में पाया
कि अपराध करते समय 90.0% बच्चों के साथ उनके साथी थे। यद्यपि समूहों में
बाल अपराध किये जाते हैं, लेकिन भारत में ऐसे बच्चों के गुटों की संख्या
जिन्हें संगठित वयस्क अपराधियों का समर्थन प्राप्त है; अधिक नहीं है।
कोई
भी शिशु जन्मत: व स्वभावत: अपराधी नहीं होता। बच्चों को इन बाल अपराध की
समस्याओं से निकालने-उबारने तथा उनके विकास के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है कि
परिवार में बच्चों को समुचित ढंग से भावनात्मक पोषण एवं साहस तथा सम्बल
प्रदान किया जाए। अर्थात् अभिभावकों की जागरूकता बच्चों की तमाम समस्याओं
का समाधान कर सकती है। दूसरे स्तर पर बालकों से जुड़े अपराधों के कलंक से
निजात पाने के लिए बहुत ठोस कार्यक्रमों का क्रियान्वयन नहीं हो पाया है।
वर्तमान में इस दिशा की ओर विशेष ध्यान देकर विभिन्न प्रकार के कार्यों में
लगे बाल श्रमिकों की ठीक-ठीक संख्या, उनकी ठीक-ठीक आयु, पारिवारिक स्थिति,
शैक्षिक स्तर, कार्य के घंटे, कार्य की दशाएं, वेतन तथा पारिश्रमिक आदि की
सही सूचनाएं संकलित की जानी अपरिहार्य हैं, तभी उनके पुनर्वास अथवा कल्याण
की योजनाओं को मूर्त रूप दिया जाना सम्भव हो सकेगा।
हमारे
देश से बच्चों द्वारा किए जाने वाले अपराधों पर नियन्त्रण के लिए विशेष
न्यायिक व्यवस्था सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक व्यवस्थाओं के साथ किशोर
न्याय अधिनियम 1986 यथा संशोधित 2000 प्रचलन में है। उच्च न्यायालय ने अपने
दिसम्बर 1996 के बाल श्रम से सम्बन्धित निर्णय में बालश्रम के लिए गरीबी
को उत्तरदायी मानते हुए कहा कि जब तक परिवार के लिए आय की वैकल्पिक
व्यवस्था नहीं हो पाती, तब तक बालश्रम से निजात पाना मुश्किल है। वास्तव
में यदि देखा जाए तो यह निर्विवाद सत्य है कि देश में अधिकांश बाल अपराध
पारिवारिक गरीबी के कारण होते हैं। साथ ही यही गरीबी अशिक्षा का कारण बन
जाती है। हालांकि सरकार के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत 2003 में
93वें संविधान संशोधन को पास कर दिया गया है जिसमें श्रम के घण्टे कम कर
बच्चों को बालश्रम से मुक्ति व पुनर्वास के लिए विशेष विद्यालय एवं
पुनर्वास केन्द्रों की व्यवस्था की गई है; जहाँ रोजगार से हटाए गये बच्चों
को अनौपचारिक शिक्षा, व्यवसायिक प्रशिक्षण, अनुपूरक पोषाहार आदि की
व्यवस्था की गई है। सरकारी प्रयासों के अलावा बाल अपराध को रोकने के लिए
मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर भी इस समस्या से निजात पायी जा सकती है। सन्
2006 का किशोर न्याय संशोधन अधिनियम 2006 के द्वारा बच्चों के लिए अधिक
मैत्रीपूर्ण एवं महत्वपूर्ण है। लेकिन सच्चाई यह है कि देश में बाल
अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे अपराधी न बने इसके लिए आवश्यक
है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता
को फिर से पिघलाया जाये। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का
भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। श्रेष्ठ संस्कार बच्चों के व्यक्तित्व को
नई पहचान देने में सक्षम होते हैं। अत: शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही होनी
चाहिए। ‘‘आधुनिकता कोई बुरी बात नही हैं। बुरी बात है तो बस इस आँधी में
मूल्यों का ह्रास, नैतिकता का पतन, मर्यादाओं का उल्लंघन। आधुनिक जीवन शैली
में भी इन मूल्यों को सामयिक ढंग से समाहित करके अनेक गतिरोधों को समाप्त
किया जा सकता है।’’ गहरे अपनेपन के आधार पर अभिभावकों और बच्चों के बीच की
दूरी और दरार को मिटाकर वर्तमान समस्याओं से उपजते बाल-अपराध से निजात पाई
जा सकती है। अत: हमें बच्चों को उचित संस्कार देने व उनमें मानवीय मूल्यों
की स्थापना करने के लिए सजग, सचेष्ट और सक्रिय होना होगा। तभी इस बिगड़ते
बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्जवल
हो सकता है।
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