मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

होली




होली  परम्पराएं और रीतिरिवाज




भारत को विविधताओं का देश कहा जाता है। यहां स्थान बदलने के साथ ही बोली, परंपराएं व रहन-सहन का तरीका भी बदल जाता है। यहां त्योहार मनाने का अंदाज भी अलग-अलग ही है। होली भी एक ऐसा ही त्योहार है, जो भारत के अलग-अलग प्रदेशों व स्थानों पर विभिन्न परंपराओं के साथ मनाया जाता है। आज इस लेख में हम जानेंगे की भारत के विभिन्न हिस्सों में होली का त्यौहार किन परम्पराओं और रीतिरिवाज से मनाया जाता है।
Tradition belongs to Holi Festival
मालवा अंचल में होली पर होता है भगोरिया उत्सव
भगोरिया मध्य प्रदेश के मालवा अंचल (धार, झाबुआ, खरगोन आदि) के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। भगोरिया के समय धार, झाबुआ, खरगोन आदि क्षेत्रों के हाट-बाजार मेले का रूप ले लेते हैं और हर तरफ फागुन और प्यार का रंग बिखरा नजर आता है। भगोरिया हाट-बाजारों में भील समाज के युवक-युवती बेहद सज-धज कर अपने भावी जीवनसाथी को ढूंढने आते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है।

सबसे पहले लड़का लड़की को पान खाने के लिए देता है। यदि लड़की पान खा ले तो लड़की की हां समझी जाती है। इसके बाद लड़का लड़की को लेकर भगोरिया हाट से भाग जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है।
bhagoria festival
रोचक है भगोरिया का इतिहास
भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। इस समय दो भील राजाओं कासूमार और बालून ने अपनी राजधानी भागोर में विशाल मेले और हाट का आयोजन करना शुरू किया। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजा भी इन्हीं का अनुसरण करने लगे, जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों का मानना है, इन मेलों में युवक-युवतियां अपनी मर्जी से भागकर शादी करते हैं। इसलिए इसे भगोरिया कहा जाता है।
होली पर्व पर बंगाल में निकाली जाती है दोल जात्रा
बंगाल में होली का स्वरूप पूर्णतया धार्मिक होता है। होली के एक दिन पूर्व यहां दोल जात्रा निकाली जाती है। इस दिन महिलाएं लाल किनारी वाली पारंपरिक सफेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं। इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं।
दोल शब्द का मतलब झूला होता है। झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रखकर महिलाएं भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं। इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है। प्राचीन काल में इस अवसर पर ज़मीदारों की हवेलियों के द्वार आम लोगों के लिए खोल दिये जाते थे। उन हवेलियों में राधा-कृष्ण के मंदिर में पूजा-अर्चना और भोज चलता रहता था। किंतु समय के साथ इस परंपरा में बदलाव आया है।
ऐसे मनाते हैं गोवा में होली
गोवा का नाम सुनते ही मन में बरबस ही समुद्र की लहरें, दूर तक फैला रेतीला तट तथा वहां के खुशनुमा माहौल की याद आ जाती है। गोवा में किसी समय पुर्तगालियों का शासन था। जिसके कारण वहां की परंपराएं व त्योहार आज भी प्रभावित नजर आती हैं। होली का उत्सव भी वहां अलग ही अंदाज में मनाया जाता है।
गोवा के निवासी होली को कोंकणी में शिमगो या शिमगोत्सव कहते हैं। वे इस अवसर पर वसंत का स्वागत करने के लिए रंग खेलते हैं। इसके बाद भोजन में तीखी मुर्ग या मटन की करी खाते हैं, जिसे शगोटी कहा जाता है। मिठाई भी खाई जाती है। गोवा में शिमगोत्सव की सबसे अनूठी बात पंजिम का वह विशालकाय जलूस है, जो होली के दिन निकाला जाता है।
यह जलूस अपने गंतव्य पर पहुँच कर सांस्कृतिक कार्यक्रम में परिवर्तित हो जाता है। इस कार्यक्रम में नाटक और संगीत होते हैं, जिनका विषय साहित्यिक, सांस्कृतिक और पौराणिक होता है। हर जाति और धर्म के लोग इस कार्यक्रम में उत्साह के साथ भाग लेते हैं।
छत्तीसगढ़ में खेली जाती है होरी
छत्तीसगढ़ में होली को होरी के नाम से जाना जाता है। इस पर्व पर लोक गीतों की परंपरा है। वसंत के आते ही छत्तीसगढ़ की गली-गली में नगाड़े की थाप के साथ राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुंह से बरबस फूटने लगते हैं। किसानों के घरों में होली से पहले ही नियमित रूप से हर दिन पकवान बनने की परंपरा शुरू हो जाती है, जिसे तेलई चढऩा कहते हैं।छत्तीसगढ में लड़कियां विवाह के बाद पहली होली अपने माता-पिता के गांव में ही मनाती है एवं होली के बाद अपने पति के गांव में जाती हैं। इसके कारण होली के समय गांव में नवविवाहित युवतियों की भीड़ रहती है। गांव के चौक-चौपाल में फाग के गीत होली के दिन सुबह से देर शाम तक निरंतर चलते हैं। रंग भरी पिचकारियों से बरसते रंगों एवं उड़ते गुलाल में मदमस्त छत्तीसगढ़ के लोग अपने फागुन महाराज को अगले वर्ष फिर से आने की न्यौता देते हैं।
कुमाऊं मंडल में होली पर सजती हैं महफिलें
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में होली के अवसर पर गीत बैठकी का आयोजन किया जाता है। इसमें होली के गीत गाए जाते हैं। यहां होली से काफी पहले ही मस्ती और रंग छाने लगता है। इस रंग में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है।बरसाने की लट्ठमार होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। शाम के समय कुमाऊं के घर-घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती हैं। गीत बैठकी में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग-रागिनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं।
इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह जफऱ की रचनाएं सुनने को मिलती हैं। गीत बैठकी की महिला महफिलें भी होती हैं। महिलाओं की महफिलों का रुझान लोक गीतों की ओर होता है। होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है।
बरसाना में पुरुषों को डंडे से पीटा जाता है
lathmar holi
भारत में होली के मौके पर कई अनोखी परंपराएं देखने को मिलती हैं। बरसाना की लट्ठमार होली देश में ही नहीं विदेश में भी प्रसिद्ध है। राधाकृष्ण की लीलाएं इसी गांव से संबंधित हैं। बरसाने की लट्ठमार होली फल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है।
इस दिन नंद गांव के ग्वाल-बाल होली खेलने के लिए राधा के गांव बरसाने जाते हैं और बरसाना गांव के लोग नंद गांव में जाते हैं। इन पुरूषों कोहोरियारेकहा जाता है। जब नाचते, झूमते लोग गांव में पहुंचते हैं तो औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से उन्हें पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष खुद को बचाते हैं, लेकिन खास बात यह है कि यह सब मारना, पीटना हंसी-खुशी के वातावरण में होता है।
औरतें अपने गांवों के पुरूषों पर लाठियां नहीं बरसातीं। बाकी आस-पास खड़े लोग बीच-बीच में रंग बरसाते हुए दिखते हैं। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग बरसाना आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब श्रीकृष्ण होली के लिए गोपियों को प्रतीक्षा करवाते थे, तब गोपियां उन पर गुस्सा होकर लाठियां बरसाती थीं। यही लट्ठमार होली आज भी बरसाना की लड़कियों और नंद गांव के लड़कों के बीच खेली जाती है।
लड्डुओं से भी खेली जाती है होली
यूं तो होली का त्योहार भारत सहित अन्य देशों में विभिन्न नामों से मनाया जाता है, लेकिन उन सभी में ब्रज की होली का अपना अलग महत्व है। ब्रज में होली वसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाई जाती है। ब्रज की होली देशभर में प्रसिद्ध है। ब्रज में खेली जाने वाली होली में भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य होली की झलक हमें मिलती है। यही कारण है कि इसे देखने के लिए हर साल हजारों लोग ब्रज मंडल में इकट्‌ठा होते हैं। ब्रज के सभी मंदिरों में हर रोज भगवान श्रीकृष्ण के साथ अबीर, रंग, गुलाल की होली खेली जाती है।
ब्रज के सभी क्षेत्र के मंदिरों में, जिनमें मथुरा का द्वारकाधीश मंदिर, जन्मभूमि मंदिर, वृंदावन का बांकेबिहारी मंदिर और इस्कॉन का हरे रामा-हरे कृष्णा मंदिर आदि शामिल हैं, में प्रतिदिन चंग (एक प्रकार का वाद्य यंत्र) बजा कर रास गीत गाए जाते हैं और नृत्य होता है। होली के पहले लड्डू मार होली खेली जाती है। जिसमें पुजारी श्रद्धालुओं पर लड्डू बरसाते हैं।
ब्रज की होली में प्रेम और भक्ति के रंग चारों तरफ बिखरे दिखाई देते हैं। ब्रजवासी जहां भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न दिखाई देते हैं, वहीं बाहर से आए श्रद्धालु भी भक्ति-भाव में डूब जाते हैं। ब्रज में खेली जाने वाली होली में प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। फूलों और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से बनाए गए रंगों के उपयोग से होली की मर्यादा बनी रहती है और आनंद बढ़ जाता है।
होली के दूसरे दिन यहां किया जाता है शक्ति प्रदर्शन
सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनंदपुर साहिब में होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते हैं। सिक्खों के लिये यह धर्मस्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहां पर होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है। इसीलिए दशम गुरू गोविंदसिंहजी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला मोहल्ला का प्रयोग किया। गुरुजी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे।
होला मोहल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर, भांग की तरंग में मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। पंज प्यारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद करते हैं।
आनंदपुर साहिब की सजावट की जाती है और विशाल लंगर का आयोजन किया जाता है। कहते हैं गुरु गोविंद सिंह ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।
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