प्रस्तुति- संत शरण
तमिलनाडु के तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाइट निर्मित
है। विश्व में यह अपनी तरह का पहला और एकमात्र मंदिर है जो कि ग्रेनाइट का
बना हुआ है। बृहदेश्वर मंदिर अपनी भव्यता, वास्तुशिल्प और केन्द्रीय
गुम्बद से लोगों को आकर्षित करता है। इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर
घोषित किया है।
बृहदेश्वर मंदिर का रहस्य
राजाराज चोल - I इस मंदिर के प्रवर्तक थे। यह मंदिर उनके शासनकाल की गरिमा का श्रेष्ठ उदाहरण है। चोल वंश के शासन के समय की वास्तुकला की यह एक श्रेष्ठतम उपलब्धि है। राजाराज चोल- I के शासनकाल में यानि 1010 एडी में यह मंदिर पूरी तरह तैयार हुआ और वर्ष 2010 में इसके निर्माण के एक हजार वर्ष पूरे हो गए हैं।
अपनी विशिष्ट वास्तुकला के लिए यह मंदिर जाना जाता है। 1,30,000 टन ग्रेनाइट से इसका निर्माण किया गया। ग्रेनाइट इस इलाके के आसपास नहीं पाया जाता और यह रहस्य अब तक रहस्य ही है कि इतनी भारी मात्रा में ग्रेनाइट कहां से लाया गया। इसके दुर्ग की ऊंचाई विश्व में सर्वाधिक है और दक्षिण भारत की वास्तुकला की अनोखी मिसाल इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घेषित किया है।
मंदिर में सांड की मूर्ति
तंजावुर का "पेरिया कोविल" (बड़ा मंदिर) विशाल दीवारों से घिरा हुआ है। संभवतः इनकी नींव 16वीं शताब्दी में रखी गई। मंदिर की ऊंचाई 216 फुट (66 मी.) है और संभवत: यह विश्व का सबसे ऊंचा मंदिर है। मंदिर का कुंभम् (कलश) जोकि सबसे ऊपर स्थापित है केवल एक पत्थर को तराश कर बनाया गया है और इसका वज़न 80 टन का है। केवल एक पत्थर से तराशी गई नंदी सांड की मूर्ति प्रवेश द्वार के पास स्थित है जो कि 16 फुट लंबी और 13 फुट ऊंची है।
हर महीने जब भी सताभिषम का सितारा बुलंदी पर हो, तो मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि राजाराज के जन्म के समय यही सितारा अपनी बुलंदी पर था। एक दूसरा उत्सव कार्तिक के महीने में मनाया जाता है जिसका नाम है कृत्तिका। एक नौ दिवसीय उत्सव वैशाख (मई) महीने में मनाया जाता है और इस दौरान राजा राजेश्वर के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया जाता था।
मंदिर से जुड़े रोचक तथ्य
कैसे की होगी ग्रेनाइट पर नक्काशी?
ग्रेनाइट की खदान मंदिर के सौ किलोमीटर की दूरी के क्षेत्र में नहीं है; यह भी हैरानी की बात है कि ग्रेनाइट पर नक्काशी करना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी चोल राजाओं ने ग्रेनाइट पत्थर पर बारीक नक्काशी का कार्य खूबसूरती के साथ करवाया।
जब पूरे हुए थे एक हजार साल
रिजर्व बैंक ने 01 अप्रैल 1954 को एक हजार रुपये का नोट जारी किया था। जिस पर बृहदेश्वर मंदिर की भव्य तस्वीर है। संग्राहकों में यह नोट लोकप्रिय हुआ। इस मंदिर के एक हजार साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित मिलेनियम उत्सव के दौरान एक हजार रुपये का स्मारक सिक्का भारत सरकार ने जारी किया। 35 ग्राम वज़न का यह सिक्का 80 प्रतिशत चाँदी और 20 प्रतिशत तांबे से बना है।
और भी हैं मंदिर के नाम
बृहदेश्वर मंदिर पेरूवुदईयार कोविल, तंजई पेरिया कोविल, राजाराजेश्वरम् तथा राजाराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव को समर्पित यह एक हिंदू मंदिर है।
जमीन पर नहीं पड़ती गोपुरम की छाया
इस मंदिर की एक और विशेषता है कि गोपुरम (पिरामिड की आकृति जो दक्षिण भारत के मंदिर के मुख्य द्वार पर स्थित होता है) की छाया जमीन पर नहीं पड़ती। मंदिर के गर्भ गृह में चारों ओर दीवारों पर भित्ती चित्र बने हुए हैं, जिनमें भगवान शिव की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाया गया है।
पुरातात्व विभाग ने पहले जैसा बनाया
अंदर भित्ती चित्रों में एक भित्तिचित्र जिसमें भगवान शिव असुरों के किलों का विनाश करके नृत्य कर रहे हैं और एक श्रद्धालु को स्वर्ग पहुंचाने के लिए एक सफेद हाथी भेज रहे है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने चित्रों को डी-स्टक्को विधि का प्रयोग करके एक हजार वर्ष पुरानी चोल भित्तिचित्रों को पुन: पहले जैसा बना दिया है।
बृहदेश्वर मंदिर का रहस्य
राजाराज चोल - I इस मंदिर के प्रवर्तक थे। यह मंदिर उनके शासनकाल की गरिमा का श्रेष्ठ उदाहरण है। चोल वंश के शासन के समय की वास्तुकला की यह एक श्रेष्ठतम उपलब्धि है। राजाराज चोल- I के शासनकाल में यानि 1010 एडी में यह मंदिर पूरी तरह तैयार हुआ और वर्ष 2010 में इसके निर्माण के एक हजार वर्ष पूरे हो गए हैं।
अपनी विशिष्ट वास्तुकला के लिए यह मंदिर जाना जाता है। 1,30,000 टन ग्रेनाइट से इसका निर्माण किया गया। ग्रेनाइट इस इलाके के आसपास नहीं पाया जाता और यह रहस्य अब तक रहस्य ही है कि इतनी भारी मात्रा में ग्रेनाइट कहां से लाया गया। इसके दुर्ग की ऊंचाई विश्व में सर्वाधिक है और दक्षिण भारत की वास्तुकला की अनोखी मिसाल इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घेषित किया है।
मंदिर में सांड की मूर्ति
तंजावुर का "पेरिया कोविल" (बड़ा मंदिर) विशाल दीवारों से घिरा हुआ है। संभवतः इनकी नींव 16वीं शताब्दी में रखी गई। मंदिर की ऊंचाई 216 फुट (66 मी.) है और संभवत: यह विश्व का सबसे ऊंचा मंदिर है। मंदिर का कुंभम् (कलश) जोकि सबसे ऊपर स्थापित है केवल एक पत्थर को तराश कर बनाया गया है और इसका वज़न 80 टन का है। केवल एक पत्थर से तराशी गई नंदी सांड की मूर्ति प्रवेश द्वार के पास स्थित है जो कि 16 फुट लंबी और 13 फुट ऊंची है।
हर महीने जब भी सताभिषम का सितारा बुलंदी पर हो, तो मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि राजाराज के जन्म के समय यही सितारा अपनी बुलंदी पर था। एक दूसरा उत्सव कार्तिक के महीने में मनाया जाता है जिसका नाम है कृत्तिका। एक नौ दिवसीय उत्सव वैशाख (मई) महीने में मनाया जाता है और इस दौरान राजा राजेश्वर के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया जाता था।
मंदिर से जुड़े रोचक तथ्य
कैसे की होगी ग्रेनाइट पर नक्काशी?
ग्रेनाइट की खदान मंदिर के सौ किलोमीटर की दूरी के क्षेत्र में नहीं है; यह भी हैरानी की बात है कि ग्रेनाइट पर नक्काशी करना बहुत कठिन है। लेकिन फिर भी चोल राजाओं ने ग्रेनाइट पत्थर पर बारीक नक्काशी का कार्य खूबसूरती के साथ करवाया।
जब पूरे हुए थे एक हजार साल
रिजर्व बैंक ने 01 अप्रैल 1954 को एक हजार रुपये का नोट जारी किया था। जिस पर बृहदेश्वर मंदिर की भव्य तस्वीर है। संग्राहकों में यह नोट लोकप्रिय हुआ। इस मंदिर के एक हजार साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित मिलेनियम उत्सव के दौरान एक हजार रुपये का स्मारक सिक्का भारत सरकार ने जारी किया। 35 ग्राम वज़न का यह सिक्का 80 प्रतिशत चाँदी और 20 प्रतिशत तांबे से बना है।
और भी हैं मंदिर के नाम
बृहदेश्वर मंदिर पेरूवुदईयार कोविल, तंजई पेरिया कोविल, राजाराजेश्वरम् तथा राजाराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव को समर्पित यह एक हिंदू मंदिर है।
जमीन पर नहीं पड़ती गोपुरम की छाया
इस मंदिर की एक और विशेषता है कि गोपुरम (पिरामिड की आकृति जो दक्षिण भारत के मंदिर के मुख्य द्वार पर स्थित होता है) की छाया जमीन पर नहीं पड़ती। मंदिर के गर्भ गृह में चारों ओर दीवारों पर भित्ती चित्र बने हुए हैं, जिनमें भगवान शिव की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाया गया है।
पुरातात्व विभाग ने पहले जैसा बनाया
अंदर भित्ती चित्रों में एक भित्तिचित्र जिसमें भगवान शिव असुरों के किलों का विनाश करके नृत्य कर रहे हैं और एक श्रद्धालु को स्वर्ग पहुंचाने के लिए एक सफेद हाथी भेज रहे है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने चित्रों को डी-स्टक्को विधि का प्रयोग करके एक हजार वर्ष पुरानी चोल भित्तिचित्रों को पुन: पहले जैसा बना दिया है।
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