| अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए |
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| अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं | |
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| अब ख़ुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला | |
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| आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया |
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| आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही |
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| उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ |
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| उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा | |
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| उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है |
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| एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा |
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| कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत | | |
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| कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है |
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| कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता | |
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| काला अम्बर पीली धरती या अल्लाह |
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| किसी भी शहर में जाओ कहीं क़याम करो |
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| कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई |
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| कुछ दिनों तो शहर सारा अजनबी सा हो गया |
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| कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई | |
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| कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को है |
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| कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया |
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| गरज बरस प्यासी धरती फिर पानी दे मौला | |
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| गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया |
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| घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे | |
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| चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं |
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| जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी |
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| जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया | | |
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| जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे |
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| ज़िहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला |
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| जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता | | |
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| तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे | |
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| तू क़रीब आए तो क़ुर्बत का यूँ इज़हार करूँ |
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| दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही | |
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| दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती |
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| दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है | |
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| दो चार गाम राह को हमवार देखना |
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| धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो |
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| न जाने कौन सा मंज़र नज़र में रहता है | |
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| नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर |
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| नील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँद |
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| बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैय्या अल्लाह हू |
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| बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता |
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| बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ |
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| मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन | |
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| मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं |
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| मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ | | |
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| यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख |
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| यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है |
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| ये जो फैला हुआ ज़माना है |
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| वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना |
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| हर इक रस्ता अंधेरों में घिरा है |
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| हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो |
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| हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए |
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| हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा |
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| हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ |
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| हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी | |
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