प्रस्तुति- कृति शऱण |
विश्वविद्यालय की प्रति कुलपति डा एस. के. जबीं राज्य की पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्हें इस पद पर लाया गया है. विगत 37 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव रखने वाली इस विद्वान महिला ने उर्दू और फारसी में कई शोध परक पुस्तकें लिखीं हैं जो विद्यार्थियों के लिये काफी लाभप्रद भी हैं. लेकिन सवाल उठता है कि राज्य की मदरसा शिक्षा प्रणाली को लचर बना देने तथा राज्य के स्कूलों से फारसी और अरबी की शिक्षा को चौपट करने की प्रभावी व्यवस्था के बाद मुसलमानों में पसरी चुप्पी का फायदा उठाते हुए नीतीश सरकार अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की जगह अब अन्तरराष्ट्रीय म्यूज़ियम के निर्माण को क्यों प्राथमिकता देने लगी हैं.राज्य की नीतीश सरकार में जब बेली रोड के सरकारी आवास सं-5 के मुख्य द्वार पर मौलाना मजरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का बड़ा सा साइन बोर्ड लगा था तो राज्य के अरबी-फारसी के विद्वानों, खासकर मदरसा शिक्षा प्रणाली से जुड़े शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को यह विश्वास हो गया था कि अब मौलाना मजहरूल हक विश्वविद्यालय के साथ भेद-भाव नहीं होगा. नीतीश कुमार को लोगों ने बोलने से अधिक कार्य करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में देखा था. लेकिन यह विश्वास तब टूट गया जब नीतीश सरकार के भवन निर्माण विभाग के एक कनीय पदाधिकारी रंजन कुमार के हस्ताक्षर से विश्वविद्यालय के कुल सचिव गुलाम मो. मुस्तफा के हाथों में आवास सं-05 को शीघ्र खाली कर इसे कार्यपालक अभियंता, पाटिलीपुत्रा भवन प्रमंडल, भवन निर्माण विभाग को सौंप देने का फरमान थमा दिया गया. भवन निर्माण विभाग के पत्रांक 6645 दिनांक 19.07.2011, 8080 दिनांक 30.08.2011 तथा 8736 दिनांक 20.09.2011 के द्वारा बार-बार ताकीद की जा रही है कि भवन खाली किया जाए. भवन को खाली करने की बात नीतीश सरकार के पदाधिकारी ज़रूर कर रहे हैं लेकिन खाली करने के बाद विश्वविद्यालय को अब किस के आवास में ले जाया जाएगा, नीतीश सरकार के लोगों से पूछने वाला कोई नहीं है. बिहार के महान स्वतंत्राता सेनानी तथा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दाहिने हाथ कहे जाने वाले मौलाना मजहरूल हक के नाम से नामित इस विश्वविद्यालय का यह दुर्भाग्य रहा है कि 31 वर्षों बाद भी इसे एक अदद अपना कमरा तक नसीब नहीं हो सका है. इस विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा सबसे पहले 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डा जगन्नाथ मिश्र ने की थी लेकिन वर्षों तक इसका वजूद सरकार के बजट भाषणों से बाहर नहीं निकल सका. जब लालू प्रसाद की सरकार बनी तो 1992 में मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय एक्ट बना. एक्ट क्या बना मुस्लिमनुमा सरकारी दलालों ने लालू यादव का भजन कीर्तन शुरू कर दिया और इसी के नाम पर अगले विधनसभा चुनाव के लिए मुस्लिम वोटों की खेती आरंभ कर दी गई. वित्तीय वर्ष 1998-99 के बजट भाषण में तो इस विश्वविद्यालय के खुल जाने का भी दावा कर दिया गया था. लेकिन जब सदन में बजट भाषण पढ़ने से पहले तत्कालीन राज्यपाल डॉ ए.आर. किदवाई ने सरकार से पूछा कि विश्वविद्यालय कहां हैं तो रातो-रात तंबू-शामियाना डालकर डम्मी विश्वविद्यालय का उद्घाटन 10 अप्रैल, 1998 को कर दिया गया. साथ ही हार्डिंग रोड स्थित एक खाली सरकारी आवास सं-28 के सामने मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का बोर्ड लगा दिया गया. अरबी-फारसी के विद्वान डॉ. मुखतारूद्दीन आरजू को इस विश्वविद्यालय का कुलपति भी बना दिया गया. पहले कभी इस आवास में कॉलेज सेवा आयोग के अध्यक्ष बालेश्वर प्रसाद रहते थे. लेकिन जब इस पर अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का बोर्ड लगा तो इस आवासीय परिसर में एक धोबी, एक ड्राइवर और एक माली रहता था. माली संजय गांधी जैविक उद्यान का कर्मचारी था. परिवार के आवासियों को कभी यह पता नहीं चल पाया कि यहां कोई विश्वविद्यालय भी है. लगता है इस सरकार में मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय सहित अल्पसंख्यक सरोकार के सभी मुद्दे गौण होकर रह गए हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए बेली रोड के आवास सं-05 से कथित अरबी-फारसी विश्वविद्यालय को निकाल बाहर करने के सरकारी फरमान को अल्पसंख्यक समुदाय निश्चित रूप से गंभीरता से लेता. धरना-प्रदर्शन होता और फिर नीतीश कुमार से यह सवाल पूछा जाता कि बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम 1976 के तहत जे.पी. विश्वविद्यालय, छपरा, बीर कुंअर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बी.एन.मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा एवं कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा के साथ-साथ 1992 में मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी तो फिर वह क्या कारण है कि एक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय को छोड़कर बाकी सब वर्षों से पूरी तरह कार्यरत हैं तथा इन्हें भूमि, भवन, शैक्षणिक एवं शिक्षकेत्तर पदों की स्वीकृति, पर्याप्त फंड, आधरभूत संरचना तथा अन्य सभी प्रशासनिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक सुविधएं प्राप्त हैं. विकास का ढोल पीटने वाली नीतीश सरकार से यह भी बहुत पहले पूछा गया होता कि राजधनी की मुख्य सड़क बेली रोड स्थित तक बड़े सरकारी बंगले के मुख्य द्वार पर अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का बोर्ड लगा देने तथा इसके सुविधा भोगी कुछ प्रशासनिक पदों पर चन्द लोगों को बैठा देने मात्र से राज्य में अरबी-फारसी शिक्षा तथा शोध का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा?
अरबी-फारसी विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति डॉ. एस. जोहा पहली बार अरबी-फारसी के विद्वान कुलपति बनाये गए हैं. प्रोफेसर एस.जोहा चन्द माह पूर्व इस पद पर आसीन हुये हैं. इन्होंने अल्प अवधि में अरबी-फारसी के विकास तथा प्रचार-प्रसार पर बल दिया है. मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का कार्य क्षेत्र पूरा बिहार है. परंतु यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मापदंड पर पूरा नहीं उतरता है. जिसके कारण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मिलने वाली करो़डों रुपये के अनुदान से वंचित है. नतीजतन, विश्वविद्यालय का बहुमुखी विकास नहीं हो पा रहा है. राज्य सरकार इसे अब तक अपने योजना मद से राशि आवंटित करती आ रही है. यदि ग़ैर योजना मद में इसे रखा जाता तो विश्वविद्यालय का भला होता. चालू वित्तीय वर्ष 2011-12 में राज्य सरकार द्वारा 9 करोड़ रुपये की स्वीकृति मिली है परंतु अभी तक विश्वविद्यालय को राशि आवंटित नहीं की गई है. फलस्वरूप विकास कार्य वाधित है. मौलाना मजहरूल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय राज्य के 117 आलीम और फाजिल स्तर के मदरसों से जुड़ा है. जिसमें लगभग 15 हजार बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.
विश्वविद्यालय की प्रति कुलपति डा एस. के. जबीं राज्य की पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्हें इस पद पर लाया गया है. विगत 37 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव रखने वाली इस विद्वान महिला ने उर्दू और फारसी में कई शोध परक पुस्तकें लिखीं हैं जो विद्यार्थियों के लिये काफी लाभप्रद भी हैं. लेकिन सवाल उठता है कि राज्य की मदरसा शिक्षा प्रणाली को लचर बना देने तथा राज्य के स्कूलों से फारसी और अरबी की शिक्षा को चौपट करने की प्रभावी व्यवस्था के बाद मुसलमानों में पसरी चुप्पी का फायदा उठाते हुए नीतीश सरकार अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की जगह अब अन्तरराष्ट्रीय म्यूज़ियम के निर्माण को क्यों प्राथमिकता देने लगी हैं. असंवेदनशीलता, निष्क्रियता और सरकारी दलाली के इस ऐतिहासिक काल में नीतीश सरकार जो कुछ भी कर रही है, राज्य के आम मुसलमानो को इस पर तनिक भी हैरत नहीं होनी चाहिए.
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